Thursday 2 January 2020

वोट वासना से अर्थव्यवस्था की मुक्ति जरूरी




केंद्र सरकार 6 करोड़ किसानों के खाते में आज 2-2 हजार रूपये जमा करेगी। इस प्रकार कुल 12 हजार करोड़ रूपये का भार खजाने पर आयेगा। इसके पहले कल ही रेल किराये में कुछ पैसे की वृद्धि किये जाने के साथ ही गैर सब्सिडी वाले घरेलू गैस सिलेंडर की कीमत में बढ़ोतरी कर दी गयी। मप्र सरकार कर्मचारियों को 5 फीसदी महंगाई भत्ता देने जा रही है। साथ ही विधान परिषद के गठन का प्रस्ताव भी केंद्र को भेजा जा रहा है। बीते माह जीएसटी का संग्रहण लगातार दूसरे महीने एक लाख करोड़ का आँकड़ा पार कर गया जिससे सरकार की जान में जान आई। आगामी बजट में आयकर की दरें घटाने की संभावनाओं पर विराम लग रहा है। सरकार के भीतरखानों में चल रही चर्चाओं के अनुसार कारपोरेट टैक्स घटाए जाने से राजस्व में आई कमी के कारण वित्त मंत्री और दरियादिली नहीं दिखा सकेंगीं। सरकार की उम्मीदें एयर इंडिया सहित सार्वजानिक क्षेत्र के कुछ उद्यमों के विनिवेश (बेचने) पर टिकी हैं। लेकिन इस दिशा में अभी तक मिले संकेत बहुत आशा नहीं जगाते। बहरहाल अच्छे मानसून की वजह से कृषि क्षेत्र से अच्छी खबर आने की उम्मीद से अर्थव्यवस्था के लडख़ड़ाते कदमों के सम्भलने की संभावना जताई जा रही है। नई नौकरियों के सृजन के साथ ही वेतन वृद्धि की उम्मीद भी आर्थिक विशेषज्ञ व्यक्त कर रहे हैं। बावजूद इसके आम जनता को बहुत ज्यादा राहत मिलने की उम्मीद इसलिए नहीं है क्योंकि अभी तक जीएसटी के ढांचे को लेकर चली आ रही अनिश्चितताएं खत्म नहीं हुईं। आये दिन कोई न कोई नया नियम या फार्म आ जाता है। जिन कारोबारियों ने जीएसटी समय पर जमा कर दिया है उन्हें भी इनपुट के्रडिट का लाभ नहीं मिल रहा। सरकार के पास पैसा नहीं होने से इन्फ्रा स्ट्रक्चर के तमाम काम रुके पड़े हैं। राज्यों की हालत तो और भी खराब है। मप्र सरकार ने दो दिन पहले ही एक हजार करोड़ का कर्ज फिर ले लिया। चुनावी वायदे के मुताबिक किसानों के कर्ज माफ़  करने का काम अभी तक ठीक तरह से आकार नहीं ले सका। जिन राज्यों के विधानसभा चुनाव में सत्ता परिवर्तन होता है वहां नई सरकार पिछली सत्ता पर खजाना खाली कर जाने का आरोप तो लगाती है परन्तु उसकी अपनी नीतियाँ भी आर्थिक हालात सुधारने की बजाय मुफ्तखोरी बढ़ाने वाली होने से हालत और भी चिंताजनक हो जाती है। दरअसल जब सरकार के पास पर्याप्त धन नहीं है तब उसे बेकार की रईसी दिखाने से बचना चाहिए। किसानों, कर्मचारियों, निराश्रित बुजुर्गों और गरीबों को मिलने वाली सौगातों से किसी को तब तक कोई ऐतराज नहीं होता जब तक उसका बोझ किसी दूसरे के कंधों पर नहीं आये। दुर्भाग्य से सता में बैठे लोगों की मानसिकता तदर्थ व्यवस्थाओं पर आकर सिमट गई है। होना तो यह चाहिए कि जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारा जाए लेकिन यहाँ तो पाँव खाट से बाहर आने वाली नौबत है। प्रश्न ये है कि राजनीतिक पार्टियों को अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सरकारी खजाने की लूटमार का अधिकार आखिर कब तक दिया जाता रहेगा? जरुरतमंदों की मदद करना किसी भी लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था की जिम्मेदारी है लेकिन उसके साथ ही ये भी देखा जाना चाहिए कि उस हेतु समुचित संसाधन हैं भी या नहीं ? यही स्थिति विकास कार्यों के सम्बन्ध में है। उनकी आड़ में होने वाले भ्रष्टाचार पर तो किसी का नियंत्रण नहीं है जिसकी वजह से आने वाली पीढिय़ों पर कर्ज चढ़ रहा है। सुरक्षा के क्षेत्र की तो अनदेखी नहीं की जा सकती इसलिए उस पर चाहे-अनचाहे व्यय करना ही पड़ता है किन्तु शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बेहद जरूरी क्षेत्रों की उपेक्षा बदस्तूर जारी है। मोदी सरकार ने पिछले कार्यकाल में गरीबों को 5 लाख तक के मुफ्त इलाज की जो सुविधा दी उसके औचित्य और उपयोगिता को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा लेकिन वह गरीबों से ज्यादा निजी अस्पतालों की कमाई में सहायक साबित हुई है। कहने का आशय ये है कि सरकारी क्षेत्र का समूचा आर्थिक प्रबंधन चूंकि राजनीतिक हित संवर्धन पर टिका हुआ है इसलिए उसमें सच्चाई से आँखें मूंदने की गलती दोहराई जा रही है। भारत के बैंकिंग उद्योग का सत्यानाश करने में भी सत्ताधीशों की वोट वासना ही सर्वाधिक जिम्मेदार है। न सिर्फ  छोटे अपितु बड़े कर्ज भी राजनीतिक दबावों के चलते नियमों को शिथिल करते हुए बंटवाये गए जिसका नतीजा माल्या और नीरव मोदी के रूप में देश को झेलना पड़ रहा है। कुल मिलाकर आज की स्थिति में देश एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है जहां उसे अपनी आर्थिक दिशा दूरगामी सोच के अनुसार तय करनी होगी। चुनाव जीतने के लिए की जाने वाली मार्केटिंग अपनी जगह है लेकिन उसके लिए सरकारी खजाना लुटाने की छूट बंद होनी चाहिए। सरकार में बैठे लोग मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर अपना उल्लू तो सीधा कर ले जाते हैं लेकिन उसका भार उन ईमानदार करदाताओं पर पड़ता है जिनके प्रति सरकार पूरी तरह बेरहम है। इस बारे में किसी एक पार्टी को दोषी ठहराना न्यायोचित नहीं होगा क्योंकि सभी एक ही दिशा में बढ़ रही हैं। बेहतर होगा आर्थिक प्रबन्धन के समूचे ढांचे को व्यवहारिक रूप देते हुए सरकार की कर नीति को अस्थिरता और अनिश्चितता से मुक्त किया जाए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तब आर्थिक अराजकता की आशंका दिन ब दिन प्रबल होती जायेगी। कड़े निर्णय बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा है लेकिन किसी न किसी को तो वह करना ही पड़ेगा। 21 वीं सदी का बीसवां वर्ष शुरू हो गया है। दुनिया कहाँ से कहाँ जा पहुँची है और हम हैं कि दिन रात बस वोट के फेर में उलझे हुए हैं। राजनीति और अर्थशास्त्र रेल की पटरी की तरह एक साथ चलते हैं लेकिन उनके बीच सदैव एक निश्चित दूरी रखी जाती है। उसमें थोड़ी सी भी घट-बढ़ दुर्घटना का कारण बन जाती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के गड़बड़ाने का कारण पटरियों के बीच की दूरियों में अंतर आना ही है। जब तक हमारे राजनेता इस वास्तविकता को समझकर उसे दुरुस्त नहीं करते तब तक एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली हालत जारी रहेगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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