Saturday 9 July 2022

अमरनाथ हादसा : प्रकृति की शांति भंग करने का दंड है ये आपदाएं



ये पहला हादसा नहीं है जब किसी पर्वतीय तीर्थस्थान पर प्राकृतिक आपदा की वजह से जनहानि हुई हो | 16 जून 2013 की रात उत्तराखंड के चार धामों में से एक केदारनाथ में आये जल सैलाब में  हजारों तीर्थयात्रियों बह गये थे | मंदिर को छोड़कर वहाँ कुछ भी नहीं बचा | केदारनाथ की चढ़ाई जिस गौरीकुंड से प्रारम्भ होती है वहां तक जलप्रलय की स्थिति बन गयी | आज भी अनेक लोग ऐसे हैं जिनका पता नहीं चला | दरअसल  एक दिन पहले से हुई भारी वर्षा के कारण केदारनाथ धाम से और ऊपर स्थित पहाड़ी झीलें लबालब हो जाने के बाद उनसे बहा पानी मौत लेकर नीचे आया |  समूचे उत्तराखंड में वैसी प्राकृतिक आपदा उसके पहले नहीं देखी गयी थी | यद्यपि उसके पहले चमोली में आये भीषण भूकम्प ने भी काफी नुकसान किया था | लेकिन केदारनाथ में आया पानी मानों इन्द्रदेव के कोप का प्रदर्शन ही था | उसका कारण  भी बादल का फटना रहा | उसके बाद केदारनाथ सहित उत्तराखंड के बाकी तीनों धामों में मूलभूत सुविधाओं का काफी विस्तार हुआ | तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या को दृष्टिगत रखते हुए सड़कों का निर्माण बड़े पैमाने पर किया गया ताकि  आवागमन सुलभ होने के साथ ही दुर्घटनाओं को कम किया जा सके | ठहरने के सुरक्षित और सुविधाजनक स्थल विकसित किये जाने से तीर्थयात्रियों का प्रवास पूर्वापेक्षा सुखद होने लगा | लेकिन इस कारण हिमालय के  सुख - चैन में भी खलल पड़ा  | प्रकृति इंसानी जुबान नहीं बोलती लेकिन अपनी बात संकेतों के जरिये समय – समय पर बताती रहती है जिसे मनुष्य या तो बिलकुल नहीं समझ पाता या समझने के बाद  भी उसकी अनदेखी करने का अपराध करता है | यही वजह है कि कभी – कभी  आने वाली प्राकृतिक आपदाएं  जल्दी – जल्दी आने लगी हैं | लेकिन बजाय डरने के इन्सान प्रक्रृति को चुनौती देते हुए उससे लड़ने पर आमादा तो हो जाता  है परन्तु वह ये भूल जाता है कि उसकी तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियां उसकी  अदृश्य शक्ति के सामने बौनी हैं | गत दिवस कश्मीर घाटी में स्थित  अमरनाथ में भी केदारनाथ जैसी घटना की पुनरावृत्ति  हुई |  दुर्घटना के बाद सुरक्षित लौटे एक यात्री के अनुसार बादल फटने के समय गुफा के पास अस्थायी आवासीय क्षेत्र में 10 से 15 हजार श्रद्धालु थे | आज सुबह तक 16 मौतों के अलावा लगभग 60 लोगों के लापता होने एवं दर्जनों के आहत होने की जानकारी आई है | यात्रियों के लिए चलाये जा रहे लंगर और अनेक तम्बुओं के बहने के कारण उनका  सामान  भी बाढ़ की भेंट चढ़ गया | हालाँकि इस साल यात्रा की शुरुवात में भी बादल फटने की घटना हुई थी और  जुलाई 2021 में भी जल सैलाब आया था लेकिन जानमाल का इतना नुकसान नहीं हुआ जितना गत दिवस देखने मिला | फिलहाल यात्रा रोक दी गई है और हालात सुधरने के बाद दोबारा प्रारंभ होने का आश्वासन भी प्रशासन दे रहा है | अमरनाथ जाने वाले दोनों रास्तों अर्थात  पहलगाम और बालटाल में हजारों यात्री फंसे हुए हैं |  कोरोना के कारण दो वर्ष के विराम के बाद तीर्थ स्थानों को खोले जाने से इस वर्ष उत्तराखंड के चारों धामों में तीर्थयात्रियों का सैलाब आ गया है | उसी तरह की स्थिति कश्मीर घाटी  में भी है जो  इन दिनों पर्यटकों से लबालब रहती है | लेकिन इस साल अपेक्षा से ज्यादा सैलानी  आये हैं | यही बात अमरनाथ पर भी लागू हो रही है | वैसे ये यात्रा  सैकड़ों सालों से चली आ रही है किन्तु  आतंकवाद के उदय के बाद प्रतिक्रियास्वरूप देश के अन्य हिस्सों से इसमें शामिल होने वालों की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है | गुफा के निकट का खुला इलाका भी इतना बड़ा नहीं है कि वहां बड़ी संख्या में लोगों के ठहरने का स्थायी प्रबंध हो सके | ऐसे में जरूरी है  कि आस्था के इन केन्द्रों में जाने वाले श्रृद्धालुओं की संख्या पर नियन्त्रण लगाया जाए जिससे पहाड़ों की शांति  में उतना ही  खलल पड़े जितना वे सहन कर सकते हैं | उत्तराखंड स्थित चारों प्रमुख तीर्थों की यात्रा भी सदियों से होती रही है जिसके लिए  पहले यात्री गण पैदल जाया  करते थे | 1962 में चीन के हमले के बाद इन इलाकों में सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) द्वारा  बड़े पैमाने पर सड़कों का जाल बिछाये जाने के बाद   वाहनों द्वारा होने से तीर्थयात्रा   , पर्यटन में बदलने लगी | दूसरी तरफ यात्री सुविधाओं का विस्तार करने के लिए प्रकृति के साथ अत्याचार किये जाने  का परिणाम   पर्यावरण असंतुलन के तौर पर सामने आने लगा  | जो इलाके निर्जन हुआ करते थे वहां लाखों लोगों की आवाजाही और  वाहनों की वजह से ध्वनि और वायु प्रदूषण में वृद्धि दिखने लगी  | शहरों की तरह कचरा भी फैलने लगा | जिसका दुष्प्रभाव ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में सामने आ रहा है  | बादल फटने जैसी घटनाएँ अतीत में भी होती रहीं लेकिन भीड़ कम होने से ज्यादा नुकसान नहीं होता था | कालान्तर में  जो  हालात बने वे  प्रकृति के क्रोध  को बढाने में सहायक हुए और जिन आपदाओं के बारे में बुजुर्गों से सुना करते थे वे हर साल दो साल बाद लौटकर आने लगीं | दरअसल इनके जरिए प्रकृति हमें चेतावनी दिया करती है लेकिन हम हैं कि विकास और विलासिता की वासना में डूबे होने से उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते | केदारनाथ के बाद अमरनाथ की ताजा घटना को प्रकृति की चेतावनी मानकर यदि हम उसके प्रति अपना व्यवहार नहीं सुधारते तब इस तरह के हादसे बढ़ते जायेंगे और हम लाचार खड़े देखने के सिवाय और कुछ भी करने में असमर्थ रहेंगे | जल , जंगल और जमीन हमें जीने के लिए बहुत कुछ देते हैं लेकिन अभार स्वरूप यदि हम उनकी शांति में बाधा डालेंगे तब उनका रौद्र रूप दिखाना नितान्त स्वाभाविक ही माना जाएगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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