Wednesday 20 July 2022

रुपया भले टूटे लेकिन हौसला और उम्मीद नहीं टूटना चाहिए



यूक्रेन संकट से अप्रभावित लग रहे भारत पर उसका सीधा प्रभाव रूपये की कीमत में हो रही गिरावट  के तौर पर सामने आ रहा है | डा. मनमोहन सिंह की  सरकार के समय भी जब ऐसी स्थिति बनी तब मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कटाक्ष करते हुए उसे उनकी उम्र से जोड़ा था | लेकिन फिलहाल न वे  कुछ कह रहे हैं और न ही उनकी पार्टी , सिवाय इसके कि दुनिया भर  की मुद्राएँ गिर रही हैं और उनकी तुलना में भारतीय रूपये की गिरावट अपेक्षाकृत कम है | दूसरी तरफ ये खबर भी आ रही  है कि हमारा विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से कम हो रहा है जिसका कारण विदेशी निवेशकों द्वारा अपना पैसा भारत से निकालकर अमेरिका में रखना है। हालांकि यूरोप से भी विदेशी निवेश निकलकर अमेरिका में  केन्द्रित हो रहा है | यही वजह है कि यूरो और पाउंड जैसी ताकतवर मुद्राओं की विनिमय दर  भी अमेरिकी डालर के मुकाबले काफी गिरी है | जिसका कारण वहां ब्याज दर में की गई वृद्धि है | लेकिन भारतीय मुद्रा में गिरावट का सीधा कारण आयात और निर्यात का असंतुलन ही है | कोरोना के बाद की आर्थिक परिस्थितियों में हालाँकि पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाई है | यद्यपि अनेक  मामलों में भारत को लाभ भी हुआ है क्योंकि कुछ चीजों के निर्यात में वृद्धि देखने मिली। लेकिन दूसरी तरफ आयात होने वाली चीजों के दाम बढ़ने से विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव बढ़ा | हालांकि उपभोक्ताओं की मांग बढ़ने से घरेलू औद्योगिक उत्पादन बढ़ा है | अर्थव्यवस्था को मजबूती देने वाले निर्माण व्यवसाय में तेजी आने से सीमेंट , इस्पात जैसी  चीजों की खपत संतोषजनक स्तर को छूने लगी है  जिसका प्रभाव अन्य चीजों की मांग के साथ ही श्रमिकों को मिलने वाले रोजगार के तौर पर देखने मिल रहा है | राजमार्ग , फ्लाय ओवर , पुल आदि के काम भी तेजी  से चल रहे हैं जिनसे  अर्थव्यवस्था  को गति मिल रही है | पर्यटन का क्षेत्र  भी कोरोना की दहशत से मुक्त हो चुका है | तीर्थस्थलों पर उमड़ रही भीड़ इसका  प्रमाण है | रेल गाड़ियों में प्रतीक्षा सूची की नौबत आना  दर्शाता है कि यात्रा करने वालों की संख्या बढ़ रही है | हवाई सेवा का भी  जबरदस्त विस्तार हो रहा है | ये सारे लक्षण अर्थव्यवस्था में चैतन्यता के संकेत हैं लेकिन रूपये की कीमत लगातार नीचे आते जाने से उद्योग – व्यापार जगत के साथ सरकार और रिजर्व बैंक की चिंता बढना  स्वाभाविक  है | जो खबरें आ रही हैं उनके अनुसार केन्द्रीय बैंक रूपये की गिरती कीमत से ज्यादा विदेशी मुद्रा के भण्डार में आ रही कमी से परेशान है क्योंकि हमारे देश पर भी काफी विदेशी कर्ज है जिसका भुगतान समय पर न करने से वह बढ़ता जाता है जिसके  दुष्परिणाम की कल्पना श्रीलंका की मौजूदा स्थिति देखकर की जा सकती है | चूँकि भारत का आर्थिक  ढांचा आज भी आयात आधारित है इसलिए विदेशी मुद्रा भंडार की  अहमियत बहुत ज्यादा है | भले ही बीते अनेक सालों से रूपये में विदेशी व्यापार किये जाने के दावे हो रहे हैं लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के विस्तार के बावजूद रुपया आज तक वैश्विक मुद्रा बनने की स्थिति को नहीं छू सका | दूसरी तरफ उदारीकरण के कारण उपजी उपभोक्तावादी जीवनशैली की वजह से भारत विकसित देशों के लिए एक बाजार बन गया है जहाँ वे अपनी बढ़िया और घटिया सभी चीजें आसानी से बेच सकते हैं | इसका सबसे बड़ा उदाहरण चीन है | गलवान घाटी में हुए तनाव के बाद प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत और वोकल फॉर लोकल जैसे नारे दिए थे | उसके प्रभावस्वरुप कुछ समय तक तो चीन के सामान का आयात  कुछ कम हुआ और केंन्द्र सरकार ने  भी करारोपण के जरिये उसे घटाने के उपाय किये लेकिन तनाव कम होने के साथ ही स्थिति पूर्ववत हो गई | यही नहीं तो आयात और बढ़ गया | इसी तरह दवाइयों सहित अनेक वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि की वजह से व्यापार में कुछ सुधार देखा  जा रहा था | लेकिन यूक्रेन और रूस  के बीच लडाई शुरू होते ही सब उलट – पुलट हो गया | शुरुवात में भारत से खाद्यान्न के निर्यात  ने जोर पकड़ा किन्तु जब ये देखने में आया कि उसका असर घरेलू बाजार में कीमतें बढ़ने के अलावा सार्वजनिक वितरण प्रणाली हेतु की जाने वाली सरकारी खरीद पर पड़ने लगा तो उसे रोक दिया गया | कच्चे तेल के साथ ही खाद्य तेल में उपयोग होने वाली चीजों मसलन सूरजमुखी के आयात में आई रुकावट ने भी भारतीय मुद्रा पर दबाव बढ़ा दिया | इस स्थिति से बचने का एकमात्र तरीका आयात में कमी और निर्यात में वृद्धि ही माना जाता है | लेकिन भारत  में पेट्रोल – डीजल की  लागातार बढ़ती खपत की वजह  से कच्चे तेल का आयात करना ही पड़ता है | हालाँकि रूस ने इस दौरान सस्ती दरों पर कच्चा तेल देकर काफी कुछ राहत दी लेकिन हमारी जरूरत कहीं ज्यादा होने से अन्य तेल उत्पादक देशों से आयात की बाध्यता बनी रही | कुल मिलाकर रूपये की विनिमय दर गिरने का एकमात्र कारण आयात और निर्यात के बीच का असंतुलन है और जब तक इसे ठीक नही किया जाता तब तक रुपये की स्थिति इसी तरह नीचे – ऊपर होती रहेगी | वैसे सस्ता रुपया निर्यातकों को रास आता है लेकिन जो लोग आयात करने बाध्य हैं उनके लिये वर्तमान स्थिति कमर तोड़ने वाली है | बेहतर हो केंद्र सरकार संसद के माध्यम से  देश के सामने वास्तविक स्थिति प्रस्तुत करे | प्रधानमंत्री चाहें तो टीवी प्रसारण के माध्यम से भी देशवासियों से मुखातिब हो सकते हैं | ऐसा करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि श्रीलंका के घटनाक्रम के बाद भारत में भी अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता है | बेलगाम होती महंगाई , रोजगार का संकट , खाद्यान्न भण्डार में कमी आदि के कारण आम जनता  फिक्रमंद  है | हालाँकि हमारे देश में श्रीलंका जैसे हालात बनना असम्भव है लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि विदेशी मुद्रा के भंडार में हमारी कमाई  नहीं वरन निवेशकों का धन भरा था जिसके निकलते ही रुपया गिरने लगा  | ये देखते हुए अब आत्मनिर्भर भारत के साथ स्वदेशी की भावना को तेजी से प्रसारित करने की जरूरत है | देश की जनता संकट के समय सदैव अनुशासन और त्याग के लिए तैयार रही है | यदि मौजूदा हालात में आयात कम करने की दिशा में उसका सहयोग माँगा जावे तो वह निराश नहीं करेगी | लेकिन इसके लिए उसके सामने सही स्थिति पेश की जानी चाहिए | इस बारे में सबसे बड़ी बात है उम्मीद का बना रहना | सरकार को चाहिए वह देश को इस बारे में आश्वस्त करे कि रुपया भले टूट रहा हो लेकिन हौसला और उम्मीद नहीं |

-रवीन्द्र वाजपेयी


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