Saturday 16 July 2022

आजादी के 75 साल बाद तो संसद और सड़क में फर्क करना सीखें सांसद



सोमवार से प्रारंभ होने जा रहे मानसून सत्र के सिलसिले में लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा  सर्वदलीय बैठक बुलाई गयी है | हर सत्र के पूर्व पीठासीन अधिकारी इसी तरह की बैठकें बुलाते हैं जिसमें सत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए सभी दलों से सहयोग मांगा जाता है | इस दौरान सत्ता और विपक्ष अच्छी – अच्छी बातें करते हैं | चाय – नाश्ते के साथ बैठक खत्म हो जाती है | लेकिन उसके बाद जब सत्र शुरू होता है तब इस बैठक में दिए गये आश्वासन भुलाकर क्या सत्ता और क्या विपक्ष सब उसी ढर्रे पर लौट आते हैं जिसके कारण संसद की प्रतिष्ठा जनमानस में लगातार गिरती चली जा रही है | दो दिन पूर्व असंसदीय शब्दावली का खुलासा होने पर विपक्ष ने हल्ला मचाया था | उस पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि किसी भी शब्द के इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाई गयी है लेकिन सदन की गरिमा बनाये रखने के लिए 2010 से हर साल विलोपन योग्य समझे जाने वाले शब्दों की सूची जारी की जाती है और ये परंपरा पहले से चली आ रही है | ये विवाद शांत हो पाता उसके पहले ही गत दिवस राज्यसभा महासचिव द्वारा जारी परिपत्र के जरिये संसद के परिसर में धरना , प्रदर्शन , अनशन या धर्मिक कार्यक्रम के आयोजन पर रोक लगाए जाने पर विपक्ष एक बार फिर भड़क गया | इसके बाद महासचिव ने सफाई दी कि इस प्रकार का परिपत्र  हर सत्र के पहले जारी किया जाता रहा है | जहाँ तक बात असंसदीय अथवा विलोपन योग्य शब्दों की है तो  इस बारे में संसदीय मंत्रालय की समिति निर्णय लेती है जिसमें विपक्ष के सदस्य भी रहते हैं | और जब राज्यसभा के महासचिव ने साफ़ कर दिया कि संसद परिसर के भीतर धरना , प्रदर्शन जैसे आयोजन पर रोक लगाने का परिपत्र हर सत्र के पहले जारी किया जाता है तब विपक्ष द्वारा  संसदीय विमर्श पर बुलडोज़र चलाये जाने जैसा आरोप बेमानी हो जाता है और फिर  इससे एक बात स्पष्ट हो गई कि इस तरह के परिपत्र को हमारे माननीय सांसद रद्दी कागज समझकर उपेक्षित कर देते हैं | वैसे इस तरह के अनुशासन को तोड़ने के मामले में भाजपा और कांग्रेस सहित सभी दल बराबर के कसूरवार हैं क्योंकि संसद परिसर के भीतर स्थित महात्मा गांधी की प्रतिमा के समक्ष लगभग प्रत्येक सत्र में कोई न कोई ऐसा आयोजन होता रहा है जिस पर संदर्भित परिपत्र में रोक लगाई गई है | राज्यसभा महासचिव द्वारा का ये स्पष्टीकरण कि परिपत्र जारी करने संबंधी औपचारिकता हर सत्र के पहले निभाई जाती है संसदीय प्रशासन की मजबूरी का प्रमाण है | इसका अर्थ ये है कि सांसदों से जो काम न किये जाने की अपील की जाती है वे उसे करने में न डरते हैं और न ही संकोच करते हैं | यही वजह है कि लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा सत्र के पूर्व सर्वदलीय बैठक बुलाकर सत्र के निर्विघ्न चलने की जो अपील और अपेक्षा की जाती है वह पहले दिन ही दम  तोड़ देती है | संसद का हर सदस्य जानता है कि सदन के संचालन में हर मिनिट लाखों रुपये खर्च होते हैं | कोई भी सदस्य एक मिनिट के लिए भी सदन के भीतर जाकर बाहर आ जाता है तो उसे पूरे दिन का भत्ता मिल जाता है | यही  वजह है कि अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों और मुद्दों पर चर्चा के दौरान सदन आधे से भी ज्यादा खाली नजर आता है | राज्यसभा की स्थिति तो इस मामले में और भी दयनीय है क्योंकि उसके सदस्यों को अपने निर्वाचन क्षेत्र की जनता को संसद में अपनी सक्रियता का परिचय नहीं देना होता | ऐसे में विचारणीय मुद्दा है कि संसद सत्र के पहले पीठासीन अधिकारी द्वारा बुलाई गई बैठक में  सदन को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए किये गए निर्णयों का पालन क्यों नहीं किया जाता ? यद्यपि इसके लिए किसी एक दल या पक्ष को जिम्मेदार ठहराना तो गलत होगा क्योंकि आज जो सत्ता में बैठे हैं विपक्ष में रहते हुए उन्होंनें भी सदन को बाधित करने में कोई कसर नहीं छोडी थी | बेहतर हो आजादी का  अमृत महोत्सव मनाते समय संसद के दोनों सदनों का एक विशेष संयुक्त अधिवेशन संविधान सभा की तर्ज पर आयोजित कर सदन के भीतर अनुशासन बनाये  रखने के साथ ही बहस के स्तर को सुधारने पर विचार  करते  हुए इस तरह की व्यवस्था लागू की जाए जिसका उल्लंघन करने वाले सदस्य को संसद की अवमानना का दोषी मानकर कुछ समय के लिए निलम्बित किया जाये और जो सदस्य लगातार ऐसा करे उसकी  सदस्यता समाप्त करने का नियम बने | आजदी के 75 साल पूरे होने का अवसर केवल जश्न मनाने और अच्छे – अच्छे भाषण देने के अलावा इस बारे में आत्मावलोकन करने का भी है कि क्या हमारी संसद उस स्तर और गरिमा को बरकरार रख सकी जो स्वाधीनता प्राप्ति के प्रारम्भिक वर्षों में नजर आती थी | ऐसा नहीं है कि लोकसभा और राज्यसभा में राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न विषयों पर बोलने  वाले कुशल वक्ता और गंभीर  किस्म के जानकार सांसदों का अभाव है किन्तु सदन में होने वाले होहल्ले के कारण उनकी प्रतिभा दबी रह जाती है |  यहाँ तक कि  बजट जैसे जरूरी मुद्दे पर भी जैसी बहस होनी चाहिए वह देखने - सुनने नहीं मिलती | संदन के भीतर दिए  जाने वाले भाषण  से किसी सदस्य का बौद्धिक स्तर और संस्कार व्यक्त होते हैं | इसके साथ ही वह किस  वातावरण से आता है ये भी पता चल जाता है | जबसे टीवी पर सीधा प्रसारण शुरू हुआ तबसे बजाय अच्छी बहस के शोर शराबा ,टोकाटाकी ,गर्भगृह में आकर हंगामा करने जैसे तरीके  संसदीय आचरण पर हावी हो गये हैं  | ऐसे  में राज्यसभा महासचिव का ये कहना कि ऐसे परिपत्र हर सत्र के पहले जारी होते हैं ये दर्शाने के लिये पर्याप्त है कि हमारे सांसद और उनकी पार्टियाँ संसद परिसर और सडक में फर्क करने तैयार ही नहीं हैं | पीठासीन अधिकारियों द्वारा जो सर्वदलीय बैठक सत्र के पहले बुलाई जाती है वह भी अपना अर्थ और उपयोगिता खो चुकी है | ये देखते हुए मानसून सत्र केवल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान तक सीमित रह जायेगा | जहां तक विधायी कार्य की बात है तो सरकार अपने बहुमत के बल पर विपक्ष के हंगामे के बीच उसे संपन्न करवा लेती है |  ये स्थिति संसदीय प्रणाली के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती | लेकिन दुःख इस बात का है न ही सत्ता पक्ष को इसकी फ़िक्र है और न ही विपक्ष को | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


No comments:

Post a Comment