Wednesday 13 July 2022

उद्धव की स्थिति बिना दांत और नाखून वाले शेर जैसी हो गई है



 
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने राजनीतिक जीवन में इतने निरीह और लाचार इसके पहले कभी नजर नहीं आये | यद्यपि उनके  स्वर्गीय पिता बाल ठाकरे जैसा कड़क अंदाज उनका नहीं रहा लेकिन शिवसेना की पहिचान बने उग्र हिन्दुत्व का झंडा जरूर उन्होंने उठाये रखा |  2019 के विधानसभा चुनाव के बाद विघ्नसंतोषी सलाहकारों के चंगुल में फंसकर उद्धव ने सत्ता के लिए सिद्धांतों से समझौता करने की गलती की और राकांपा तथा कांग्रेस  के साथ मिलकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन बैठे | वैसे कहा तो ये जाता है कि वे स्वयं सत्ता में आने के बजाय अपने बेटे आदित्य को मुख्यमंत्री बनाना चाह रहे थे लेकिन  शरद पवार तथा सोनिया गांधी ने उससे इंकार कर दिया | और तब उद्धव को सरकार की कमान संभालनी पड़ी | लेकिन  दूसरी कहानी ये भी है कि उस बेमेल गठबंधन के असली शिल्पकार शिवसेना के मुंहफट प्रवक्ता संजय राउत थे जिन्होंने चुनाव के दौरान ही श्री ठाकरे के मन में मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा के समक्ष अड़ जाने की बात बिठा दी थी | परिणाम आने के पहले ही श्री राउत का ये कहना उन इरादों का संकेत देने लगा था कि शिवसेना के पास दूसरे विकल्प भी हैं | उसके बाद का घटनाक्रम सब जानते हैं | लगभग ढाई साल तक अपनी घोर वैचारिक विरोधी राकांपा और कांग्रेस के साथ सरकार चलाने के दौरान उद्धव को तो शिवसेना की आधारभूत पहिचान से समझौता करना पड़ा  लेकिन  उस गठबंधन के बाकी घटक  अपनी नीतियों पर अडिग बने रहे  | एकनाथ शिंदे ने भी अपनी बगावत के कारणों में इस बात का उल्लेख किया है कि उद्धव को मुख्यमंत्री बनाकर राकांपा और कांग्रेस अपना जनाधार मजबूत करते रहे  लेकिन शिवसेना की पकड़ कमजोर होती गई |  कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि उद्धव तो नाम के मुख्यमंत्री थे और सत्ता का असली नियंत्रण राकांपा प्रमुख शरद पवार के हाथ में रहा  | आख़िरकार अपने अंतर्विरोधों के कारण वह सरकार चलती बनी | लेकिन उसके साथ ही शिवसेना में जो विभाजन हुआ उसने ठाकरे परिवार की ठसक और धमक दोनों खत्म कर दीं  | जो उद्धव और उनके बेटे आदित्य खुद को शिवसेना को अपनी निजी जागीर  समझते थे उनके हाथ से पहले तो सत्ता गयी और उसके बाद  पार्टी पर बना हुआ एकाधिकार भी खतरे में पड़ने लगा | 39 विधायकों के पाला बदलने के बाद उद्धव के साथ रहे विधायकों की सदस्यता पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं | ये आशंका भी है कि उनमें से भी कुछ शिंदे गुट के साथ जा सकते हैं | दूसरी तरफ पार्टी के अनेक सांसद पहले से ही श्री शिंदे के पाले में आ गये थे | उद्धव के साथ बचे सांसदों ने भी जब सार्वजनिक तौर पर एनडीए की राष्ट्रपति प्रत्याशी  द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की इच्छा जताई तब उद्धव के कान खड़े हुए और उन्होंने उनकी बैठक बुलाई जिसमें लगभग सभी ने श्रीमती मुर्मू के समर्थन पर जोर दिया जिसके बाद उद्धव ने भी तत्संबंधी घोषणा कर डाली | कहा जा रहा है कि श्री राउत ने आख़िरी समय तक विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के समर्थन के लिए सांसदों को मनाने का प्रयास किया लेकिन  श्री ठाकरे ने सांसदों के दबाव के समक्ष झुकने की  अक्लमंदी दिखाई | हालांकि उन्होंने और श्री राउत दोनों ने दबाव में आकर यह निर्णय लेने से इंकार किया है किन्तु वे कहें कुछ भी लेकिन श्री शिंदे के दांव से चारों खाने चित्त होने के बाद उद्धव अपनी मर्जी थोपने की हैसियत में नहीं रह गये थे | उनको ये भय सता रहा था कि सांसदों की बात  न मानी गई तो कंगाली में आटा गीला वाली कहावत चरितार्थ होते देर न लगेगी | और इसीलिए उन्होंने बची – खुची पूंजी सहेजकर रखने का फैसला लिया | हालाँकि राकांपा ने ये कहकर इस फैसले का बचाव किया कि एनडीए में रहते हुए भी शिवसेना ने प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन किया था लेकिन कांग्रेस को  ये  अच्छा नहीं लगा | दरअसल श्री ठाकरे ये समझ गए हैं कि सरकार चली जाने के बाद यदि पार्टी पर भी  आधिपत्य खत्म हो गया तो  राजनीति के मैदान में वे अकेले और असहाय खड़े रहने बाध्य होंगे | हालांकि श्रीमती मुर्मू का समर्थन करने के बावजूद श्री राउत ये कहने से नहीं चूके कि इसे भाजपा का समर्थन न माना जाए परन्तु इस कदम को भाजपा से दोबारा जुड़ने की प्रक्रिया की शुरुवात माना जा सकता है | महाराष्ट्र की राजनीति के जानकार ये भी कह रहे हैं कि अब तक उनके साथ बने हुए शिवसेना के नेताओं ने उद्धव को ये समझाइश दी है कि वे पार्टी में शरद पवार के एजेंट बन बैठे संजय राउत से पिंड छुडाते हुए भाजपा के साथ दोबारा जुड़ने की संभावना तलाशें | सांसदों की सलाह या दबाव को मानते हुए उद्धव द्वारा श्रीमती मुर्मू के पक्ष में आ जाने का निर्णय उसी दिशा में बढ़ने की शुरुवात हो सकती है | ये भी सुनने में आया है कि श्री ठाकरे की पूर्व मुख्यमंत्री और श्री  शिंदे को भाजपा के साथ जोड़ने के लिए जिम्मेदार देवेन्द्र फड़नवीस से भले ही न पटती हो लेकिन केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के साथ उनके रिश्ते बेहद सौहार्द्रपूर्ण हैं जो  इस मामले में वही भूमिका निभा सकते हैं जो बालासाहेब ठाकरे के ज़माने में शिवसेना – भाजपा गठबंधन को आकार देने में प्रमोद महाजन ने निभाई थी | हालाँकि इस बारे में पक्के तौर पर कुछ भी कह पाना कठिन है लेकिन उद्धव द्वारा राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा द्वारा उतारी गईं प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करना इतना तो दर्शाता ही है कि उनकी अकड़ खत्म हो चुकी है और उन्हें   ये भी समझ में आने  लगा है कि शरद पवार और कांग्रेस से पिंड छुडाकर हिंदुत्व के रास्ते पर चलकर ही वे अपना राजनीतिक अस्तित्व बचा सकेंगे वरना संगठन भी उनके हाथ से  जाना तय है | सही कहें तो भाजपा भी मन ही मन यही चाह रही होगी क्योंकि अब उद्धव की स्थिति बिना दांत और नाखून वाले शेर जैसी हो गयी है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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