Friday 15 July 2022

पंचायत चुनाव का बाजारीकरण लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट



म.प्र में पंचायत चुनाव के अधिकतर परिणाम गत दिवस घोषित हो गए | यद्यपि ये चुनाव गैर दलीय आधार पर करवाए जाते हैं लेकिन राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों को उतारकर उन्हें जितवाने का प्रयास करते हैं |  जिला  और जनपद पंचायत के लिए  चुने गए सदस्य  अध्यक्ष का चुनाव करते हैं | जबकि ग्राम पंचायत का सरपंच सीधे मतदाताओं द्वारा ही निर्वाचित होता है | कल जैसे ही जिला और जनपद पंचायत के परिणाम घोषित हुए ,  भाजपा और कांग्रेस ने अनेक जिलों में अपने समर्थित विजयी उम्मीदवारों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया जिससे वे दूसरे पक्ष के साथ न चले जाएँ | गैर दलीय चुनाव होने से दलबदल कानून इन पर लागू नहीं होता इसलिये खरीद – फरोख्त भी जमकर होती है | इस कारण अक्सर एक पार्टी ये दावा करती है कि उसके पास बहुमत है लेकिन अध्यक्ष दूसरे दल का बन जाता है | चूंकि जीते हुए सदस्य स्वतंत्र तौर पर चुनकर आते हैं इसलिए वे दलीय प्रतिबद्धता से भले ही  मुक्त रहें  लेकिन पार्टी के  चिन्ह पर न लड़ने के बाद भी  जीतते तो उसके समर्थन से ही हैं | ऐसे में उनकी निष्ठा उस पार्टी के प्रति होना अपेक्षित है परन्तु  इस बारे में कानूनी बंदिश न होने से  चुनाव जीतते ही जिला और जनपद पंचायत सदस्य की बोली लगने लगती है | विधानसभा और लोकसभा चुनाव में होने वाले भारी - भरकम खर्च और मतदाताओं को प्रलोभन देने की चर्चा तो आम है लेकिन पंचायत के चुनावों में भी जिस तरह से पैसा खर्च होता है और अध्यक्ष बनने के लिए सदस्यों के दाम लगते हैं उसे देखते हुए  कहना गलत न होगा कि ये चुनाव उस पंचायती राज से पूरी तरह अलग है जिसकी कल्पना महात्मा गांधी ने की थी | ग्राम पंचायत की जो परम्परागत व्यवस्था भारत में थी उसमें पंचों को परमेश्वर माना जाता था तथा  पंचायत के निर्णय हर किसी पर बंधनकारी होते थे |  लेकिन आज का पंचायती राज पूरी तरह राजनीतिक प्रदूषण का शिकार हो चुका है और उसके चुनाव बजाय जन कल्याण के निजी  स्वार्थ साधना का जरिया बन गए हैं | जो परिणाम गत दिवस आये उनके बारे में ज्यादातर टिप्पणियाँ इसी बात पर हैं कि किस नेता का परिजन जीता या हारा | चूंकि इन चुनावों में महिलाओं के लिए भी सीटें आरक्षित होती  हैं इसलिए बड़ी संख्या में ऐसी महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरने लगी हैं जिनका सार्वजनिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होने से  वे पिता या पति के नाम पर लड़ती हैं और पद पर आने के बाद भी उनके काम परोक्ष तौर पर उनके परिवारजन ही करते हैं | इसीलिये भ्रष्टाचार के मामलों में ज्यादातर महिलाओं की आड़ में उनके पुरुष सहयोगी की ही भूमिका होती है | चुनाव होते ही जीते उम्मीदवारों को एकत्र कर एक ही स्थान पर रखने का उद्देश्य वैसे तो उन्हें दूसरे पक्ष के हाथों बिकने से बचाना है | लेकिन ऐसा करने का अर्थ उन पर अविश्वास करने जैसा ही है | किसी भी पार्टी के सदस्य यदि  निष्ठावान हैं तब उनके बिकने का खतरा नहीं होता किन्तु  आजकल राजनीति में जिस तरह के अवसरवादी आने लगे हैं और राजनीतिक दल भी क्षणिक लाभ के लिए उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी परखे बिना उन्हें सिर आँखों पर बिठाते  हैं उसके कारण उन पर अविश्वास बना रहता है | राज्यों में होने वाली राजनीतिक खींचतान के दौरान विधायकों को  किसी पञ्च सितारा होटल या आरामगाह में रखने की संस्कृति का फैलाव पंचायत  तक होना प्रजातंत्र रूपी भूमि  में  लोभ , लालच और बेईमानी का बीजारोपण करना है | पंचायत स्तर पर ही सौदेबाजी का स्वाद चख चुका व्यक्ति विधायक और सांसद बनने के बाद  अपनी कीमत और ज्यादा बढ़ा दे तो अचरज नहीं होता | हाल ही में संपन्न राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में भी  अनेक राज्यों में विधायकों को खरीददारों से बचाने के लिए सुरक्षित स्थान पर रखा गया | राजस्थान में सचिन पायलट बागी होने के बाद अपने समर्थक विधायकों को लेकर गुरुग्राम के एक होटल में जा बैठे थे वहीं  जयपुर में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने  पक्ष के विधायकों को एक आलीशान होटल में एक साथ रखा जिससे वे पायलट खेमे में न जा सकें , जबकि दोनों एक ही  पार्टी के हैं | महाराष्ट्र में शिवसेना की टूटन के बाद जो कुछ हुआ वह भी किसी से छिपा नहीं है | सही मायनों में  म.प्र में पंचायत चुनाव के नतीजों के बाद चुने हुए  जिला एवं जनपद  पंचायत सदस्यों को बटोरकर एक स्थान पर छिपाना पंचायती राज की धज्जियां उड़ाने के लिए पर्याप्त हैं | जब प्रजातंत्र की प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की संस्थाओं के चुनाव में ये सब हो रहा है तब ऊपरी स्तर पर क्या – क्या होता होगा ये अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है |  चुनाव के दौरान जिस सदस्य पर जनता ने विश्वास किया वह जीतने के बाद इतना अविश्वसनीय हो जाता है कि उसकी पार्टी को   ही  उसकी ईमानदारी पर संदेह होने लगता है | इस खेल में एक भी ऐसा खिलाड़ी नहीं दिखाई देता जो सीना तानकर इस बात का ऐलान करे कि वह कहीं नहीं छिपेगा और कोई उसे खरीदने की हिम्मत न करे | सही बात ये है कि विश्वास का संकट इस हद तक गहरा गया है कि दायाँ हाथ , बाएँ पर विश्वास करने तैयार नहीं | ये देखते हुए पंचायती राज के रूप में सत्ता के  विकेंद्रीकरण का जो उद्देश्य था वह रास्ते से भटकते हुए भ्रष्टाचार नामक खरपतवार की तरह निचले स्तर तक फ़ैल गया | लोकतंत्र के बाजारीकरण की ये स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है | प्राथमिक पाठशाला में विद्यार्थी के उज्जवल भविष्य की नींव रखी जाती है | उस दृष्टि से पंचायत व्यवस्था लोकतंत्र की पहली पाठशाला है | यदि इसमें बजाय  नैतिकता , निःस्वार्थ सेवा और ईमानदारी के अनैतिकता , स्वार्थसाधना और बेईमानी का पाठ पढ़ाया जावेगा तब भविष्य की कल्पना ही भय पैदा कर देती है | यद्यपि इस सबकी वजह से लोकतंत्र की इस बुनियाद की जरूरत और सार्थकता पर सवाल उठाना गलत होगा परन्तु  इसकी पवित्रता इसी तरह नष्ट होती गयी  और चुने हुए जनप्रतिनिधि भरे बाजार में नीलाम होते रहे तब विश्वास का संकट बढ़ते – बढ़ते विस्फोट में बदल जाए तो अचरज नहीं होगा क्योंकि  एक सीमा के बाद जनता की सहनशक्ति जवाब दे ही जाती है | पड़ोसी देश श्रीलंका में  जो कुछ हुआ और हो रहा है वह  चेतावनी भी है और सबक भी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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