Thursday 14 November 2019

कॉलेजियम में पूर्ण पारदर्शिता होनी चाहिए



सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस एक महत्वपूर्ण फैसले में देश के प्रधान न्यायाधीश के दफ्तर को भी  सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने के दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय पर मोहर लगा दी । यद्यपि अभी भी न्यायपालिका से जुड़ी बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें सूचना का अधिकार लागू नहीं होगा किन्तु सेवानिवृत्ति के चंद रोज पहले प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई का ये कहना मायने रखता है कि सूचना का अधिकार न्यायिक स्वतंत्रता को कम नहीं करता। सबसे रोचक बात ये है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के संदर्भित निर्णय को सर्वोच्च न्ययालय के सेकेट्ररी जनरल और केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी द्वारा ही सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। अब उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए बनने वाले कॉलेजियम में शामिल नामों का खुलासा तो करना होगा लेकिन उसका कारण बताना जरूरी नहीं होगा । श्री गोगोई सहित वरिष्ठ न्यायाधीशों की पीठ के इस फैसले के बाद हालांकि सूचना के अधिकार का दायरा बढ़ा है और देश के प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय में भी पारदर्शिता बढ़ेगी लेकिन कॉलेजियम में शामिल नामों का कारण नहीं बताए जाने के कारण बहुत सी चीजें अभी भी पर्दे के पीछे रहेगीं। पीठ ने साफ  तौर पर कहा भी है कि सूचना के अधिकार का उपयोग सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी के लिए नहीं किया जा सकता । निश्चित तौर पर ये एक अच्छा फैसला है जिसका दूरगामी असर होगा । देश की सबसे बड़ी न्यायिक पीठ पर आसीन मुखिया के क्रियाकलापों को पूरी तरह से छिपाकर रखना तमाम संदेहों को जन्म देता रहा है । वैसे भी न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में ताक झांक करने की हिम्मत अच्छे-अच्छों की नहीं होती। यहां तक कि समाचार माध्यम भी उसे लेकर बेहद सतर्क रहते हैं । न्यायपालिका के प्रति सम्मान और विश्वास में कमी के बावजूद अदालत की अवमानना का भय बदस्तूर कायम है । यद्यपि अदालती फैसलों पर आलोचनात्मक टिप्पणियां सुनने और समीक्षात्मक लेख पढऩे मिलने लगे हैं । मुस्लिम नेता सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना करते हुए कहा था कि वह सर्वोच्च होने से आदरणीय है लेकिन अचूक नहीं है । श्री ओवैसी स्वयं बैरिस्टर हैं। इसलिए उनके विधिक ज्ञान पर भी अंगुली उठाने का औचित्य नहीं  है किंतु सीधे न कहते हुए भी उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में चूक की आशंका व्यक्त कर दी। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एके गांगुली ने भी इस फैसले की जमकर आलोचना की । टीवी चैनलों पर होने वाली चर्चाओं में भी उक्त फैसले के पक्ष और विपक्ष में कहा -सुना गया। ये एक शुभ संकेत है क्योंकि इससे न्यायपालिका  अपनी जवाबदेही और निष्पक्षता के प्रति सजग और सतर्क रहती है लेकिन उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु बनने वाले कॉलेजियम सम्बन्धी पारदर्शिता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अधूरापन बरकरार रखा । जिन लोगों के नाम उसमें शामिल होते हैं उनको सूचना के अधिकार के अंतर्गत उजागर करने पर सहमत होने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने उनके चयन का कारण बताने से इंकार कर दिया। बाकी बातों को छोड़ दें तो कॉलेजियम में नाम शामिल करने के आधार को गोपनीय रखने से उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर होने वाली टीका-टिप्पणियों को रोकना मुश्किल होगा । इसे लेकर न्यायपालिका के भीतर भी तरह - तरह की चर्चाएं चला करती हैं । बेहतर होता सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय में इस पहलू पर भी विचार कर लेता । न्यायाधीशों की नियुक्ति में योग्यता को पूरी तरह उपेक्षित किया जाता हो ये कहना तो गलत होगा किन्तु  न्यायाधीशों के परिवारों से ही नियुक्तियां होने से अंकल जज जैसी फब्तियां कसी जाने लगीं । सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू तो इस विषय में सार्वजनिक तौर पर भी तीखी टिप्पणियां करते रहे हैं । न्यायिक क्षेत्र को लेकर होने वाली हर चर्चा में कॉलेजियम में नाम शामिल करने के आधार पर खूब बातें होती हैं । यद्यपि देश के प्रधान न्यायाधीश के दफ्तर को सूचना के अधिकार के दायरे में लाना एक सकारात्मक फैसला है लेकिन न्यायपालिका के प्रति विश्वास को अखंड बनाये रखने के लिए जरूरी है कि उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की समूची प्रक्रिया पूरी तरह निर्दोष और पारदर्शी हो । न्यायिक नियुक्ति आयोग को अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का हवाला दिया था । जिन 4 न्यायाधीशों ने इस मुद्दे पर पत्रकार वार्ता की थी उसकी अगुआई श्री गोगोई ने ही की थी । लेकिन न्यायपालिका का स्वछंद होना भी ठीक नहीं होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय स्वप्रेरणा से कॉलेजियम को लेकर की जाने वाली अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जरूरी कदम उठाएगा । गत दिवस जो फैसला हुआ उसे शुरूवात माना जा सकता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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