Friday 8 November 2019

बूढ़े माता-पिता बोझ नहीं वरदान हैं




खत्म होती संयुक्त परिवार प्रथा , हम दो हमारे दो से प्रेरित एकाकी परिवार और बच्चों के बाहर चले जाने के कारण अकेले बुजुर्ग माता-पिता आधुनिक भारतीय समाज की पहिचान बनते जा रहे हैं। पहले केवल ये सब शहरों तक सीमित था लेकिन अब तो कस्बों और गाँवों में भी अकेलेपन के शिकार बुजुर्ग नजर आने लगे हैं। इसी के साथ ही एक और नई समस्या उत्पन्न हो गई है जिसको बूढ़े माता-पिता की उपेक्षा के तौर पर जाना जाता है। आये दिन बुजुर्ग अभिभावकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें आया करती हैं। जिन औलादों को वे बड़े ही अरमानों से पाल पोसकर बड़ा करते हैं वे ही बोझ मानकर उनको प्रताडि़त करने से बाज नहीं आते। उनके साथ अमानुषिक व्यवहार की जानकारी आने पर और भी दु:ख होता है। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर कड़े निर्देश देते हुए नालायक औलादों को दण्डित करने के लिए समुचित व्यवस्था करने कहा। इस बारे में आज एक नई खबर आई। केंद्र सरकार जल्द ही एक कानून बनाने जा रही है जिसमें माता-पिता की उचित देखभाल नहीं करने वाली संतानों के विरुद्ध दंडनीय कार्रवाई की जायेगी। इसमें तीन माह की सजा के मौजूदा प्रावधान को बढ़ाकर छह माह किया जावेगा। नये प्रावधानों के अंतर्गत पुलिस थानों में बुजुर्गों की खोजखबर रखने एवं उनकी शिकायतों पर प्राथमिकता के आधार पर कार्रवाई करने की व्यवस्था भी होगी। सरकार की सोच अपनी जगह बिलकुल सही है लेकिन केवल कानून बना देने से ही यदि समस्या हल होती तब तीन महीने की सजा भी कम नहीं थी। भारतीय समाज का आधार परिवार नामक इकाई को ही माना जाता है। सैकड़ों सालों की विदेशी सत्ता के बाद भी यदि हमारी संस्कृति सुरक्षित रह सकी तो उसका मुख्य कारण परिवार ही थे जिनकी वजह से संस्कार एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते गए। केवल माता-पिता ही नहीं उनके समकक्ष माने जाने वाले अन्य रिश्तों को उतना ही सम्मान देने की परम्परा भी रही है। ये सब पूरी तरह समाप्त हो गया हो ऐसा नहीं है लेकिन ये भी कड़वा सच है कि वृद्ध माँ-बाप के प्रति दुव्र्यवहार की घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। उनकी संपत्ति हड़पकर उन्हें बेसहारा छोड़ देने की शिकायत भी आम हो चली है। बढ़ती उम्र और शारीरिक अशक्तता के कारण ऐसे अधिकांश बुजुर्ग चाहकर भी पुलिस या कानून की सहायता नहीं ले पाते। बहुत से तो चुपचाप अपनी औलाद का अत्याचार सहते हैं क्योंकि बोलने से परिवार की बदनामी होगी। नाते-रिश्तेदारों में भी अब पहले जैसी सम्वेदनशीलता नहीं रही जिस वजह से सब कुछ पता होते हुए भी लोग किसी के मामले में दखल नहीं देते। पश्चिमी सभ्यता के अन्धानुकरण की वजह से भी परिवारों के टूटने का सिलसिला बेरोकटोक जारी है। युवा होते बच्चे अपने माता-पिता द्वारा दादा-दादी के साथ किया जाने वाला व्यवहार देखकर ही संस्कारित होते हैं। यही वजह है कि अपनी बारी आने पर वे भी ऐसा ही करने में नहीं झिझकते। अनेक बुजुर्गों ने तो इसलिए अपनी देहदान करने का फैसला लिया क्योंकि उन्हें इस बात का भरोसा नहीं था कि संतान द्वारा उनका अंतिम संस्कार भी ढंग से किया जावेगा या नहीं। सरकार चूंकि कानून बना सकती है लेकिन उसका कितना असर होगा ये कहना मुश्किल है। बेहतर हो समाज इस बारे में अपनी भूमिका के निर्वहन के लिए आगे आये। हमारे देश में आज भी जातीय संगठन सक्रिय हैं। एक समय ऐसा था जब ये संगठन ऐसे मामलों में दबाव समूह का काम करते थे और उनके द्वारा किये गए फैसले बंधनकारी होते थे। आदिवासी समुदाय सहित समाज के निचले वर्ग में तो अभी भी सामाजिक व्यवस्था का लिहाज कायम है लेकिन शहरों और ग्रामों में जातीय संगठन अब केवल वोट बैंक बनकर रह गये हैं। उन पर राजनीतिक नेताओं के अलावा संपन्न वर्ग का आधिपत्य होने लगा है। सबसे बड़ी बात ये है कि शिक्षित होने के बाद युवा पीढ़ी ऐसे संगठनों से दूर होती जा रही है। इसका दुष्परिणाम बुजर्ग अभिभावकों की उपेक्षा के तौर पर सामने आने लगा है। दरअसल उनके प्रति किया जाने वाला अत्याचार विकृत मानसिकता का परिचायक है। किसी भी सभ्य समाज के लिए ये स्थिति कलंक से कम नहीं है। जहां तक बात पश्चिमी समाज की है तो वहां सामजिक विघटन के चलते परिवार नामक इकाई का अस्तित्व खतरे में है। किशोरावस्था में ही लड़के-लड़कियां आत्मनिर्भर होकर परिवार से दूर होने में नहीं हिचकते। लेकिन हमारे देश में संतानों को जिम्मेदारी मानकर उनका भविष्य संवारने के लिए माँ-बाप हरसंभव कष्ट उठाते हैं। संपत्ति का उत्तराधिकारी भी औलाद ही होती है। इसीलिए उससे अपेक्षा की जाती है कि वह वृद्धावस्था में अपने जन्मदाताओं का ख्याल रखे जिससे वे खुद को बेसहारा या कमजोर न मानकर प्रसन्नचित्त रहते हुए जीवनयापन कर सकें। निराश्रित वृद्धों के लिए शासन और निजी स्वयंसेवी संगठनों द्वारा वृद्धाश्रमों का संचालन किया जाता है जिनमें आने वालों की संख्या में वृद्धि परिवार नामक संस्था में आ रही टूटन का प्रमाण है। ताजा जानकारी के अनुसार बड़े औद्योगिक घराने अब पश्चिमी देशों की तर्ज पर सर्वसुविधायुक्त वृद्धाश्रम खोलने की दिशा में बढ़ रहे हैं। जिनमें एक निश्चित्त धनराशि जमा करवाकर बुजुर्ग लोग आजीवन आराम से रह सकेंगे। वहां उन्हें अपने हमउम्रों का सान्निध्य भी सहज उपलब्ध होगा। लेकिन क्या ये भारतीय समाज के लिए चिन्तन का विषय नहीं है कि किसी बूढ़े माँ-बाप को वृद्धाश्रम में महज इसलिए रहना पड़े क्योंकि उसकी अपनी संतानें उन्हें बर्दाश्त करने तैयार नहीं। और तो और तो उनके साथ अमानुषिक बर्ताव करती हैं। सरकार कानून जरुर बनाये लेकिन समाजिक स्तर पर इस तरह की मुहिम चलाई जानी जरूरी है जिसके जरिये वृद्ध माँ-बाप के प्रति नई पीढ़ी के बेटे-बेटियों के मन में भी वैसी ही सेवा और श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो जो हमारे देश का संस्कार है। बूढ़े माता-पिता को बोझ मानने की बजाय वरदान मानने की मानसिकता सरकार नहीं समाज ही विकसित कर सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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