Saturday 30 November 2019

तो बहिन - बेटी का दिन में निकलना भी मुश्किल हो जायेगा



हैदराबाद में एक महिला पशु चिकित्सक के साथ चार लोगों द्वारा दुराचार करने के बाद उसकी हत्या का मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया। सोशल मीडिया पर इसे लेकर टिप्पणियों की बाढ़ आ गयी। घटना का विवरण प्रसारित हो चुका है। राजनीति भी अपने ढंग से चल रही है। मृतका और जघन्य कृत्य के कर्ताधर्ताओं के धर्म को लेकर भी तीखी बातें हो रही हैं। महिला संगठन सक्रिय होने की तैयारी में हैं जबकि राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी मामले का संज्ञान लेने के बाद दोषियों पर कड़ी कार्रवाई करने का दबाव बना दिया है। केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को महिलाओं के विरुद्ध इस तरह के अपराध रोकने की सलाह भी जारी कर दी है। अपराधियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। वे सब पेशे से ट्रक के धंधे से जुड़े बताये गये हैं। पीडि़ता की हत्या कैसे की गयी ये तो जांच से स्पष्ट होगा लेकिन जिस तरह से उसके शरीर को आग लगाकर सबूत नष्ट करने का प्रयास किया गया उससे लगता है कि चारों आरोपी बहुत ही निर्दयी स्वभाव के हैं। महिलाओं से दुष्कर्म करने की घटनाएं तो देश में कहीं न कहीं रोजाना होने के बावजूद ह्त्या जैसी वारदात कम होने से उनको लेकर उग्र प्रतिक्रिया सुनाई देती है। हैदराबाद की घटना समाज में विकृत मानसिकता वाले लोगों की मौजूदगी का ताजा प्रमाण है। बलात्कार अचानक जन्मा कोई आधुनिक अपराध नहीं है। पौराणिक काल में भी इसके अनेक प्रसंग हैं लेकिन आज के भारत में ये प्रवृत्ति जिस तेजी से बढ़ती दिखाई दे रही है उसके बाद ये सोचने को बाध्य होना पड़ता है कि क्या समाज में संस्कारों के सृजन की प्रक्रिया का अंतिम संस्कार हो चुका है? संदर्भित घटना को अंजाम देने वाले भले ही अत्यंत साधारण पृष्ठभूमि के क्यों न रहे हों लेकिन किसी अकेली महिला को देखकर उसके साथ दरिंदगी करने जैसा कृत्य पारिवारिक या व्यवसायिक पृष्ठभूमि से ज्यादा संबंधित व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करता है जो उसके इर्द-गिर्द के वातावरण से प्रेरित और प्रभावित होती है। इस तरह की घटनाओं का केवल कानूनी नहीं वरन मनोवैज्ञानिक आधार पर भी विश्लेषण करते हुए उन्हें रोकने के उपाय तलाशे जाने चाहिए। कुछ दिन तक आक्रोशित होने और मोमबत्तियां जलाने जैसे आयोजन समाज की संवेदनशीलता को अभिव्यक्त तो करते हैं किन्तु मानसिकता को बदल नहीं सकते। जहां तक बात दोषियों को दंडित करने की है तो निर्भया कांड के उपरान्त दुराचारियों को कठोर से कठोर दंड देने का प्रावधान कर दिया गया। आये दिन अदालतों द्वारा महिलाओं की अस्मत से खिलवाड़ करने वालों को दी जाने वाली सजा की खबरें भी आती रहती हैं लेकिन बजाय रुकने के ऐसी वारदातों का लगातार बढ़ता जाना ये साबित करता है कि केवल कानून का डर अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकता। कट्टर इस्लामी देशों में बलात्कार करने वाले की सजा मौत है। लेकिन दंड प्रक्रिया 24 घंटे से लेकर एक सप्ताह में पूरी करने की व्यवस्था होने से आरोपी ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह पाते। पोलेंड में तो दुराचारी को सुअरों के बीच छोड़ दिया जाता था जो उसे काट-काटकर मार डालते थे। वहीं ईरान में बलात्कारी को पत्थर मार-मारकर मौत के घाट उतारा जाता है। लेकिन भारत में न्याय प्रक्रिया पूरी तरह से लोकतान्त्रिक होने से आरोपी को सफाई और बचाव का समुचित अवसर मिलता है। मृत्यदंड मिलने के बाद भी दया याचिका के चलते वह लम्बे समय तक जीवित बना रहता है। ताजा घटना के आरोपी पकड़ तो लिये गए लेकिन उनके अपराध को सबित करते हुए उन्हें उनके किये की सजा मिलने में काफी समय लगेगा। ऐसे में देखने वाली बात ये है कि क्या हम ऐसी घटनाओं को भी नियति मानकर शांत बैठ जाएँ या फिर ऐसा कुछ किया जाए जिससे बलात्कार की घटनाएं कम की जा सकें। लेकिन यक्ष प्रश्न ये है कि ऐसा करेगा कौन? और इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें भारत की उस परम्परागत सामाजिक सोच को पुनर्जीवित करना होगा जिसमें महिलाओं के प्रति श्रद्धा और सम्मान का जन्मजात संस्कार था। आज जिस पश्चिमी समाज और सभ्यता का अन्धानुकरण करने की होड़ मची है वहां खुलेपन के बावजूद महिलाओं के प्रति जो सम्मान और सौजन्यता का भाव दिखाई देता है वह हमारे यहाँ के कथित आधुनिकतावादी भुला देते हैं। और फिर जिन नायकनुमा हस्तियों का समाज अनुसरण करता है उनका आचरण भी जनसामान्य की मानसिकता पर असर डालता है। दुर्भाग्य से आजादी के बाद के बीते सात दशकों में जो चेहरे बतौर आदर्श स्थापित हुए उनमें से अधिकतर दोहरे चरित्र वाले होने से परिणाम उलटे निकले। बीते कुछ वर्षों में लिव इन रिलेशनशिप, समलैंगिक यौन सम्बन्ध और इन जैसे अन्य विषयों पर जिस तरह के कानूनी और राजनीतिक फैसले हुए उनके बाद से समाज में एक अधकचरी सोच का विस्तार होता गया जिसमें भोग विलास और सम्बन्धों के प्रति लापरवाही भरे रवैये को प्रोत्साहन मिला। कहने का आशय ये है कि सरकार और कानून के भरोसे सब कुछ छोड़कर बैठ जाना समाज के सामूहिक दायित्वबोध की इतिश्री होगी। माना कि ऐसे कार्यों में समय लगता है लेकिन संस्कारों का प्रवाह यदि पुन: शुरू नहीं किया गया तब कितने भी कड़े कानून बना लिए जावें किन्तु कभी निर्भया तो कभी हैदराबाद जैसी वारदातें दोहराई जाती रहेंगी। नारी को पूज्या की बजाय भोग्या मानने वाली संस्कृति और संस्कार का जो स्रोत है उसे बंद करना समय की मानसिकता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तब रात में तो क्या दिन में भी किसी बहिन-बेटी का घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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