हमारे देश में राजनीति ने देश के मानस पर इतना ज्यादा अतिक्रमण कर लिया है कि जनहित के अनेक विषयों का अपेक्षित संज्ञान नहीं लिया जाता। दिल्ली में बीते कुछ दिनों से वायु प्रदूषण जिस खतरनाक स्थिति में जा पहुंचा है उसको लेकर संसद में भी एक दो दिन होहल्ला मचा किन्तु उसके बाद सांसद और सरकार दूसरे कामों में उलझ गए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय जरूर इस विषय पर काफी गंभीरता से विचार करते हुए सरकार पर दबाव बनाये हुए है। पराली से उत्पन्न प्रदूषण रोक पाने में असफलता के लिए पड़ोसी राज्यों के मुख्य सचिवों को बुलाकर भरी आदालत में उनकी खिंचाई करने के बाद गत दिवस न्यायाधीशों का गुस्सा बुरी तरह फट पड़ा। गुस्से में वे यहाँ तक बोल गए कि प्रदूषण के कारण कैंसर जैसी बीमारी से मरने की बजाय बेहतर हो लोगों को बम से उड़ा दिया जाए। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से तो अदालत ने यहाँ तक पूछा कि क्या ये गृहयुद्ध जैसे हालात नहीं हैं ? इसके अलावा न्यायालय ने पड़ोसी राज्यों के अधिकारियों को भी समुचित कदम उठाने के कड़े निर्देश दिए। राजधानी दिल्ली की कोई भी खबर चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो जाती है इसलिए दिल्ली के प्रदूषण पर भी खूब हल्ला मचता है लेकिन देश के अंदरूनी हिस्सों में कहीं-कहीं हालात दिल्ली जैसे ही नहीं बल्कि उससे भी बदतर हैं। भले ही वायु प्रदूषण उतना न हो लेकिन कहीं कचरे के ढेर हैं तो कहीं जल निकासी न होने से लोगों का चलना फिरना दूभर है। मच्छर और सुअरों के कारण होने वाली बीमारियों पर हर साल हल्ला मचता है लेकिन उनकी रोकथाम के लिए समुचित प्रबंध नहीं होने से हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे। सर्वोच्च न्यायालय ने लोगों को बम से उड़ाने जैसी जो तल्ख टिप्पणी की वह भले ही गुस्से में की गयी हो लेकिन देश की राजधानी में रहने वालों की जब ये दुर्दशा हो तब बाकी जगहों की कल्पना आसानी से की जा सकती है। देश के अनेक औद्योगिक नगर ऐसे हैं जिनमें प्रदूषण का स्तर खतरनाक से भी ऊपर बना रहता है लेकिन कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। कहने को प्रदूषण नियंत्रण मंडल जैसा संस्थान देश भर में कार्यरत है किन्तु वह भी बाकी सरकारी विभागों की तरह भ्रष्टाचार में फंसा हुआ है। हालाँकि ये भी सही है कि प्रदूषण को रोकने के लिए उठाये जाने वाले कड़े क़दमों का राजनीतिक और जनता दोनों के स्तर पर विरोध होने लगता है। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले उद्योगों को बंद करने के फैसले की रोजगार छिनने की नाम पर मुखालफत होने लगती है। पहले केवल महानगरों में प्रदूषण और पर्यावरण की समस्या थी लेकिन बढ़ते शहरीकरण के कारण अब मझोले किस्म के शहरों में भी वैसी ही समस्याएँ जन्म लेने लगी हैं। औद्योगिक प्रदूषण और पराली जैसी अस्थायी समस्याओं के अलावा आम नागरिक की उपेक्षावृत्ति भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। अपने घर का कूड़ा-कचरा सड़क या किसी और खाली जगह पर फेंक देना हमारा राष्ट्रीय स्वभाव बन गया है। कचरा संग्रहण भी एक बड़ा प्रकल्प बनता जा रहा है। दिल्ली में करनाल की तरफ जाने वाले रास्ते पर कचरे का जो ढेर है उसकी दुर्गन्ध दूर तक फैलती है लेकिन उसका कोई इलाज नहीं हो पा रहा। जीवनशैली में हुए परिवर्तन की वजह से अब केवल शहरों में ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी कचरे के ढेर नजर आने लगे हैं। पॉलीथिन भी राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुकी है। तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उसका उपयोग धड़ल्ले से जारी है। प्रधानमन्त्री ने लालकिले की प्राचीर से सिंगल यूज प्लास्टिक के उपयोग को रोकने का जो आह्वान किया उसका असर होना शुरू तो हुआ है लेकिन वह जन अभियान नहीं बन सका। कपड़े का थैला लेकर चलने की अपील से प्रेरित होने वाले भी बढ़े हैं लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है। राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के बाद लोगों में जागरूकता आई है लेकिन समाज का काफी बड़ा वर्ग इसे लेकर उदासीन है। ये सब देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय की चिंता और गुस्सा दोनों जायज हैं। लेकिन ये तभी फलीभूत हो सकेंगे जब पर्यावरण संरक्षण एक जनांदोलन बने। दुनिया के अनेक देशों में आम जनता इस दिशा में बेहद संवेदनशील होने से वहां हर तरह के प्रदूषण पर नियंत्रण पा लिया गया है। विकसित देशों में इसके लिए काफी प्रबंध भी किये जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में स्मॉग टावर लगाने का जो निर्देश दिया वह धीरे-धीरे और भी शहरों में लगाये जाने की जरुरत है। एयर फे्रशनर बनाने वाली कम्पनियों ने तो मौके का लाभ लेते हुए अपना धंधा शुरु भी कर दिया है परन्तु वह संपन्न वर्ग के लिए ही संभव है। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय उनसे गत दिवस जिस तरह के कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया उन्हें केवल सम्बन्धित सरकारी अधिकारी ही नहीं आम जनता भी गंभीरता से ले क्योंकि प्रदूषण फैलाने में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हम भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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