Wednesday 27 November 2019

महाराष्ट्र के महानाट्य से उपजे महा मुद्दे



महाराष्ट्र में राजनीतिक अनिश्चितता दूर होते ही अब उस घटनाक्रम की समीक्षा होने लगी है जिसमें भाजपा ने एनसीपी में सेंध लगाकर सरकार बनाने का दांव चला जो न केवल बुरी तरह फ्लाप हो गया अपितु सबसे अलग दिखने वाली पार्टी के साथ ही देवेन्द्र फणनवीस की एक ईमानदार नेता की छवि पर भी बुरा असर पड़ा। बात यहीं तक नहीं रुकी और आलोचना के घेरे में राज्यपाल के अलावा केंद्र सरकार और कुछ हद तक राष्ट्रपति भी आ गए। विधानसभा चुनाव परिणाम आने के साथ ही शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद की जिद पकड़कर जो गतिरोध उत्पन्न कर दिया उसके अंतिम परिणाम को समझने में भाजपा नेतृत्व असफल साबित हुआ। उसे ये खुशफहमी थी कि शिवसेना का उसके साथ गठबंधन में रहना मजबूरी है। लेकिन शिवसेना ने बिना लागलपेट के कह दिया कि वह किसी भी पार्टी से हाथ मिलाने में संकोच नहीं करेगी। शरद पवार के तो खैर स्व. बाल ठाकरे से निजी सम्बन्ध बहुत अच्छे थे लेकिन जब शिवसेना ने ये कह दिया कि कांग्रेस भी महाराष्ट्र की दुश्मन नहीं है तब तक ये साफ हो चुका था कि वह सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती और उसने ये कर दिखाया। दूसरी तरफ  भाजपा को ये उम्मीद रही कि हिन्दुत्ववादी छवि की वजह से शिवसेना को कांग्रेस का समर्थन नहीं मिलेगा। उसकी सोच सही भी थी क्योंकि सोनिया गांधी काफी हिचक रही थीं लेकिन शरद पवार ने उन्हें इसके लिए राजी किया। शिवसेना को भाजपा के खेमे से निकलने के लिए एनसीपी द्वारा शुरुवात में रखी गई ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री वाली शर्त भी वापिस ले ली गई। इसी वजह से अजीत पवार नाराज हुए क्योंकि उनके मन में मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा लम्बे समय से जोर मार रही थी। जैसी जानकारी मिली है उसके मुताबिक अजीत लगातार फणनवीस के संपर्क में थे। लेकिन यहीं भाजपा से चूक हो गई। दरअसल न सिर्फ  देवेन्द्र बल्कि पार्टी का हाईकमान भी शिवसेना की भड़काऊ और काफी हद तक अपमानित करने वाली बयानबाजी की वजह से उसे सबक सिखाने के बारे में सोचने लग गए थे। आज की भारतीय राजनीति में चूंकि सत्ता हासिल करना ही सफलता के साथ नेतृत्व क्षमता और कौशल का मापदंड बन गया है इसलिए हर पार्टी और नेता किसी भी कीमत पर सरकार बनाने में जुटे रहते हैं। 1989 से शुरू हुआ गठबंधन युग अब एक वास्तविकता बन चुकी है। एक ज़माने में कांग्रेस किसी पार्टी का सहयोग लेना अपनी तौहीन समझती थी लेकिन धीरे-धीरे वह भी क्षेत्रीय दलों के साथ कनिष्ट भागीदार बनने लगी। शिवसेना को न सिर्फ  समर्थन देना अपितु उद्धव ठाकरे के मंत्रीमंडल में शामिल होने का उसका फैसला इस बात का ताजा प्रमाण है। हालाँकि इसके पीछे उसकी मजबूरी भी है क्योंकि उसकी राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत लगातार कमजोर होती जा रही है। लेकिन आज की भाजपा के सामने ये बाध्यता नहीं है। केंद्र में उसकी मजबूत सरकार है। प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के सामने कोई बड़ी चुनौती भी निकट भविष्य में नहीं है। बावजूद इसके भाजपा ने महाराष्ट्र में सम्मानजनक विपक्ष के रूप में बैठकर अनुकूल समय का इंतजार करने के बजाय जो प्रपंच रचा उससे हासिल तो कुछ हुआ नहीं उलटे पाप की गठरी सिर पर लद गयी। पार्टी विथ डिफरेंस का उसका दावा तो कभी का हवा-हवाई हो चुका है लेकिन जिन बातों का विपक्ष में रहते हुए वह विरोध करती थी उनसे उसे लेशमात्र भी परहेज नहीं रहा। अजीत पवार की ताकत को परखने में गलती तो एक बार नजरअंदाज भी की जा सकती थी। लेकिन जिस रहस्यमय तरीके से राष्ट्रपति शासन हटाकर सुबह-सुबह राजभवन में गिनती के लोगों के सामने शपथ ग्रहण करवाया गया उसकी वजह से भाजपा मुम्बई से लेकर दिल्ली तक शर्मसार हो गयी। शरद पवार ने जिस तरह से शांत रहते हुए अपनी पार्टी और परिवार पर आये संकट को टालकर पांसे पलट दिए उसकी वजह से वे नई सरकार के रिंग मास्टर बनकर उभरे। महाराष्ट्र के इस महानाट्य में श्री पवार ने निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, चरित्र अभिनेता जैसी सभी भूमिकाएं सफलतापूर्वक निभाईं। उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री भले बनने जा रहे हों लेकिन उनका भविष्य पूरी तरह से श्री पवार की मर्जी पर टिका होगा। भाजपा के लिए ये बहुत बड़ा धक्का है। यदि वह अजीत पवार के साथ सरकार बनाने में सफल हो जाती तब आज उसकी सफलता के नगाड़े बज रहे होते लेकिन शिवसेना द्वारा एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के प्रयास को जनादेश का अपमान बताने वाली भाजपा के सामने इस बात का कोई समुचित उत्तर नहीं है कि शरद पवार को अँधेरे में रखकर अजीत पवार के साथ गुपचुप सरकार बनाने की स्टंटबाजी किस जनादेश पर आधारित थी? सवाल और भी हैं। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के राजनीतिक विवाद पर जो फैसला दिया वह दरअसल एक तरह की तदर्थ व्यवस्था ही है क्योंकि उसने राज्यपाल के अधिकार और विवेक के अलावा ऐसी स्थितियों में सदन के संचालन आदि के बारे में कोई निर्देश या सुझाव नहीं दिया। खंडित जनादेश की स्थिति में इस तरह के हालात पहले भी उत्पन्न हुए हैं। जिनमें केंद्र में बैठी सत्ता के इशारे पर राज्यपाल ऐसी कार्रवाई करते आये हैं जो भले ही संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत गलत न लगे लेकिन नैतिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। अनेक संविधान विशेषज्ञों ने कल संविधान में ऐसे संशोधन की जरुरत पर बल दिया जिससे कि ऐसी स्थिति होने पर संवैधानिक प्रावधानों की मनमाफिक व्याख्या न की जा सके और गलत होते हुए भी किसी कृत्य को गलत न ठहराया जा सके। बहरहाल महाराष्ट्र में जो होना था वह हो चुका। उद्धव ठाकरे और शिवसेना की जिद या महत्वाकांक्षा जो भी कहें वह पूरी हो चुकी है। एनसीपी और कांग्रेस ने भी अपनी चुनावी हार को जीत में बदलकर भाजपा को सत्ता से वंचित करने का लक्ष्य कर्नाटक शैली में हासिल कर लिया। शरद पवार ने ये साबित कर दिया कि वे भले ही राष्ट्रीय नेता न बन पाए हों किन्तु महाराष्ट्र में अभी भी उनकी पकड़ और प्रभाव कायम है। राजनीतिक जोड़तोड़ में उनका अनुभव उनकी सबसे बड़ी ताकत साबित हुई जिसके बल पर वे अतीत में सोनिया गांधी तक को गच्चा दे चुके थे। जहां तक बात भाजपा की है तो वह अजीत पवार को ब्लैंक चैक समझकर दीवाली मना बैठी लेकिन बैक में पर्याप्त बैलेंस न होने से चैक वापिस आ जाने पर सारी खुशी काफूर हो गई, जगहंसाई उपर से हुई सो अलग। लेकिन इसके लिए केवल देवेन्द्र फणनवीस को ही कसूरवार नहीं माना जा सकता क्योंकि बिना नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अनुमति वे इतना बड़ा जोखिम नहीं उठा सकते थे। जहां तक बात इस सरकार के स्थायित्व की है तो वह कल के बाद दिखाई देगा क्योंकि सुविधा के समझौते और स्वार्थों की पूर्ति पर आधारित होने से इस सरकार का रास्ता निष्कंटक नहीं रहेगा। उद्धव ठाकरे और शिवसेना अभी तक तो सबको जो चाहे सुनाते आये हैं लेकिन अब उन्हें सबकी सुननी होगी। सबसे बड़ी बात उनकी हिन्दुत्ववादी छवि आये दिन कसौटी पर रहेगी। एनसीपी और कांग्रेस श्री ठाकरे को वैसी स्वछंदता नहीं देंगे जैसी उन्हें भाजपा के साथ हासिल थी। और फिर ये सरकार ठाकरे से ज्यादा पवार की कहलायेगी। एक बात और जो फिलहाल दबकर रह गई वह है अजीत पवार का राजनीतिक भविष्य क्योंकि घायल शेर ज्यादा खतरनाक होता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment