Thursday 28 November 2019

ताकि 5 ट्रिलियन मुंगेरीलाल का सपना न बन जाए



केंद्र सरकार की आलोचना करने वालों के पास सबसे अच्छा मुद्दा अर्थव्यवस्था है। तीन वर्ष पूर्व की गयी नोट बंदी और उसके बाद जीएसटी लागू किये जाने के फैसले को अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसकारी मानने वाले भी बढ़ते जा रहे हैं। भले ही वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण इसे आर्थिक मंदी न कहते हुए किसी और नाम से संबोधित करें लेकिन ये तो वे भी मानती हैं कि आर्थिक जगत अभूतपूर्व सुस्ती से गुजर रहा है। हालाँकि उनके बचाव में खड़े होने वाले लोगों का कहना है कि वैश्विक आर्थिक परिस्थितियाँ भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। अपने दावे के पक्ष में उनका तर्क है कि विश्व की आर्थिक महाशक्ति के तौर पर धूमकेतु की तरह उभरे चीन की रफ्तार भी धीमी पड़ी है। विकास दर का आंकड़ा जिस तरह नीचे आता जा रहा है उसके कारण भी चिंता का माहौल है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के अनुमानों को भले ही न मानें लेकिन रिजर्व बैंक सहित बाकी भारतीय वित्तीय संस्थाओं का भी कहना है कि अर्थव्यवस्था में उठाव की उम्मीद तो दूर, यदि गिरावट को ही थाम लिया जाए तो बड़ी बात होगी। गत दिवस संसद में वित्तमंत्री ने एक बार फिर मंदी से इनकार कर दिया। उनका दावा इस तकनीकी आधार पर है कि जब लगातार दो तिमाही में विकास दर शून्य से नीचे रहती है तब मंदी की पुष्टि होती है जबकि भारत में अभी भी विकास दर पांच प्रतिशत के इर्द-गिर्द मंडरा रही है। वित्तमंत्री के समर्थन में एक तथ्य ये भी सहायक है कि इस वर्ष दुनिया की विकास दर भी ढलान पर है और 2018 की तुलना में घटकर 2.9 प्रतिशत रहेगी। सरकार के पास अपने बचाव के और भी तर्क हैं लेकिन जमीनी वास्तविकता ये है कि बजार में रौनक नहीं है जिससे औद्योगिक इकाइयाँ मांग में कमी के संकट से जूझ रही हैं। लोगों की जेब में नगदी की किल्लत भी आम चर्चा का विषय है। अधिकांश बैंक कर्ज की अदायगी नहीं होने से डगमगा रहे हैं। जमाकर्ताओं में घबराहट की वजह से बैंकों के सामने भी नगदी की समस्या बढ़ी है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि राजनीतिक क्षेत्र की तरह आर्थिक जगत में भी जबरर्दस्त अविश्वास का माहौल है। लेकिन इसके विपरीत तस्वीर का दूसरा पहलू भी है जिसके आधार पर ये माना जा रहा है कि अर्थव्यवस्था में सुस्ती का ये अस्थायी दौर है। इसके पक्ष में शेयर बाजार में निवेशकों के बढ़ते विश्वास को बतौर प्रमाण प्रस्तुत किया जा रहा है। गत दिवस शेयर बाजार 41 हजार के रिकार्ड स्तर पर बंद हुआ। विदेशी निवेशकों की भारतीय पूंजी बाजार में रूचि बनी रहना उन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के अनुमानों को विरोधाभासी साबित कर रहा है जो विकास दर को लेकर निराशजनक तस्वीर पेश करते आ रहे हैं। देश में ऑटोमोबाइल, कपड़ा, निर्माण और अब तो टेलीकाम क्षेत्र तक में कारोबारी सुस्ती आई है। इलेक्ट्रानिक्स उत्पादों की बिक्री भी घटी है। बेरोजगारी के आँकड़े सर्वकालिक उच्चतम स्तर पर हैं। इस सबके बावजूद यदि पूंजी बाजार में विदेशी धन धड़ल्ले से आ रहा है तब ये मानकर चला जा सकता है कि मंदी या आर्थिक सुस्ती के ये काले बादल जल्द छंट जायेंगे। उम्मीद की किरण के पीछे रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दर में और कटौती की उम्मीदें भी हैं जिससे कर्ज सस्ता होगा। हालाँकि पिछली  अनेक तिमाहियों में रिजर्व बैंक द्वारा दी गयी राहतों का कितना असर हुआ ये अभी तक सतह पर नजर नहीं आ रहा लेकिन ऑटोमोबाइल और जमीन-जायजाद व्यवसाय की स्थिति सुधरने के संकेतों से उम्मीदों को बल मिल रहा है। हालांकि ये भी सही है कि शेयर बाजार की हलचलों को पुख्ता आधार मानकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। विशेष तौर पर विदेशी पूंजी के दीर्घकालीन टिके रहने की कोई गारंटी नहीं होती। उनका निवेश विशुद्ध मुनाफा कमाने के लिये होता है और जहां उन्हें ज्यादा लाभ मिलेगा वे यहाँ से धन निकालकर वहां लगा देंगे। ऐसे में भारत सरकार को चाहिए कि वह आर्थिक मोर्चे पर छाई अनिश्चितता और निराशा को दूर करने के लिए इस तरह के उपाय करे जिनसे आम जनता में विश्वास कायम हो। जहां तक बात विकास दर की है तो उसकी गति से उतनी चिंता नहीं जितनी अर्थव्यवस्था में लोगों का भरोसा बनाये रखना है। प्रधानमंत्री ने आने वाले चार-पांच सालों में भारतीय अर्थव्यस्था को पांच ट्रिलियन डालर अर्थात 5 हजार अरब डालर के बराबर पहुंचाने का जो लक्ष्य रखा है वह मुंगेरीलाल के हसीन सपने में तब्दील न हो जाये इसके लिए जरूरी है कि बजाय तदर्थ उपायों के ठोस और स्थायी तरीके अपनाए जाएं। एक बात जो अभी तक देखने मिली है वह ये कि मोदी सरकार कड़े फैसले लेने में हिचकिचाती नहीं है। इसलिए बेहतर होगा यदि वह सरकारी खजाने पर बोझ बन रही खैराती योजनाओं को कुछ समय के लिए ठंडे बस्ते में रखकर उत्पादकता आधारित योजनाओं और कार्यक्रमों पर सरकारी धन खर्च करे। वरना वोटबैंक की राजनीति से उत्पन्न मुफ्तखोरी की संस्कृति इस देश को निकम्मों की आश्रयस्थली में बदल देगी। याद रहे चीन ने अफीमचियों की छवि से बाहर आकर ही आज की स्थिति हासिल की है। भारत में बिना कुछ किये मुफ्त की रोटी खाने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाया जाना जरूरी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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