Tuesday 9 March 2021

आरक्षण : आखिर 70 साल कम नहीं होते



आरक्षण एक ऐसा  मुद्दा है जिस पर लोगों  के सार्वजनिक विचार कुछ होते हैं और निजी कुछ और | इसकी वजह है उससे होने वाले   फायदे और नुकसान | सीधे - सीधे वोट बैंक से जुड़ा होने की वजह से राजनीतिक क्षेत्र के लोग इसके बारे में कुछ भी कहने से सौ बार सोचते हैं | बीते कुछ दशकों से देश में धार्मिक आधार पर राजनीतिक चर्चाएँ खुलकर होने लगी हैं लेकिन जातिगत आरक्षण को लेकर पक्ष - विपक्ष के आमने - सामने होने की नौबत नहीं आती क्योंकि ये विषय इतना  संवेदनशील है जिस पर लीक से हटकर की  गई  किसी भी तरह की टिप्पणी बवाल मचा देती है | आरक्षण का प्रावधान संविधान में सीमित समय के लिए किया गया था किन्तु कालान्तर में ये महसूस किया गया कि जिस उद्देश्य से इसे लागू किया गया था वह चूँकि हासिल नहीं हो सका इसलिए उसे आगे बढ़ाया जावे और ये सिलसिला स्थायी हो गया | पहले केवल अनु. जाति और जनजाति ही इससे लाभान्वित होती थीं  किन्तु वीपी सिंह की सरकार के समय ओबीसी ( अन्य पिछड़ी जातियों ) को भी  आरक्षण की परिधि में ले लिया गया | उसके बाद जब ये लगा कि आरक्षण का दायरा बढ़ने से गैर आरक्षित वर्ग में असंतोष बढ़ रहा है तब उसकी सीमा तय करने का विचार सामने आया और सर्वोच्च  न्यायालय ने 50 फीसदी की बंदिश लगा दी | हालाँकि अनेक राज्यों ने उसकी परवाह नहीं करते हुए आरक्षण का प्रतिशत 75 और 85 तक बढ़ा दिया | मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किये जाने के बाद जबसे ओबीसी आरक्षण शुरू हुआ तबसे इसे लेकर बहस और विवादों का दौर  शुरू हो गया | पदोन्नति में आरक्षण को लेकर भी विभिन्न राज्यों में विवाद बना हुआ है | गैर आरक्षित पद पर  आरक्षित्त वर्ग के लोगों की नियुक्ति से भी  ऐतराज होने लगे | क्रीमी लेयर का सवाल भी गाहे - बगाहे उठता रहता है | जिस जाति प्रथा को मिटाकर सामाजिक समरसता का सपना देखा गया था वह आरक्षण के कारण और मजबूत होने लगी जिसका प्रमाण जातियों के भीतर से निकल  आई उप जातियां हैं |  राजनीतिक पार्टियां उम्मीदवारी देते समय जातिगत समीकरणों का पूरी तरह ध्यान रखती हैं | चुनाव सर्वेक्षण करने वाली संस्थाए भी जाति  को आधार बनाकर ही अपने निष्कर्ष निकालती हैं | ये कहना अभी काफी हद तक सही है कि जातिगत समीकरण भारतीय राजनीति को गहराई तक प्रभावित करते हैं | शासन - प्रशासन सभी पर इसकी छाया देखी जा सकती है | आरक्षित वर्ग के अलग कर्मचारी संगठन भी बड़ी संख्या में बन गये हैं | यहाँ तक कि आरक्षित जातियों के उद्योग - व्यापार संगठन भी जन्म लेते जा रहे हैं | इस तरह आरक्षण का प्रभाव केवल सरकारी नौकरियों तक ही सीमित न रहकर सामाजिक और राजनीतिक सभी स्तरों पर साफ़ दिखाई देने लगा है | गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा तय करने संबंधी मामले में लगातार सुनवाई करते हुए उसकी स्थायी व्यवस्था करने की दिशा में कदम उठाया | विभिन्न राज्यों द्वारा चुनावी लाभ हेतु आरक्षण की सीमा को लांघने का जो फैसला किया गया उसके कारण लम्बे समय से ये अपेक्षा की जा रही थी कि न्याय पालिका  ऐसा कुछ करे जिसका पालन करने सभी राज्य बाध्य हों और उससे जुड़े विवाद भी खत्म हो सकें | सही बात तो ये हैं कि आरक्षण का आकर्षण केवल सरकारी सेवाओं  तक सीमित होकर रह गया है | लेकिन बीते कुछ वर्षों से शासकीय नौकरियों में निरंतर कमी आने से उससे जुड़ा ये लाभ भी संकुचित हो रहा है | बढ़ते निजीकरण के कारण सरकारी नौकरियों के अवसर लगातार घटते जाने से बेरोजगारी में भी वृद्धि हुई है | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में साफ़ कर दिया कि निजीकरण एक अनिवार्यता बन गई है | उन्होंने सरकार द्वारा व्यवसायिक गतिविधियों से पिंड छुडाने का साफ संकेत दे दिया | विभिन्न सेवाओं से सरकार ने अपना हाथ खींच लिया  है | विनिवेश के जरिये सरकारी उपक्रमों में से अपनी हिस्सेदारी वह कम करती जा रही है | बावजूद इसके राजनीतिक लाभ के लिए राज्य सरकारों द्वारा चुनाव के पहले आरक्षण की खैरात बाँटने का क्रम अनवरत जारी है | इसीलिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शुरू की जा रही सुनवाई से ये अपेक्षा उत्पन्न हुई है कि आरक्षण के बारे में न्यायपालिका जो सीमा रेखा  तय करेगी उसे लांघने का साहस करना गैर कानूनी होगा | हालांकि राजनीतिक दल इसे लेकर कितने गंभीर रहेंगे ये कह पाना कठिन है लेकिन आरक्षण का लाभ लेकर आर्थिक , शैक्षणिक और सामाजिक दृष्टि से लाभान्वित वर्ग को  अब उस लाभ से वंचित करने पर ठोस निर्णय करना भी  समय की मांग है | जिस तरह सरकार ने रसोई गैस और रेल टिकिट पर मिलने वाली  सब्सिडी छोड़ने का आह्वान किया  उसी तरह उसे  क्रीमी लेयर की  श्रेणी में आ चुके आरक्षित वर्ग के लोगों से उसका  लाभ छोड़ने की अपील करनी चाहिए | ऐसा होने से नए लोगों को अवसर मिलेंगे और आरक्षित  वर्ग के भीतर बढ़ रहा वर्ग भेद भी कम किया जा सकेगा | वैसे ये कहना भी  गलत न होगा कि आरक्षण अब सामाजिक भेदभाव दूर करने से ज्यादा वोटों की दुकानदारी पर आकर केन्द्रित हो गया है | उसका लाभ लेकर नौकरी और नेतागिरी में ऊपर उठ चुके लोग अपने समाज के उन्नयन की बजाय अपने परिवारों के कल्याण में लगे रहते हैं | सर्वोच्च न्यायालय की ताजा पहल का क्या अंजाम होता है ये तो वही जाने लेकिन आरक्षण के जरिये समाज के दलित और वंचित वर्ग के उत्थान की प्रक्रिया का समुचित  लाभ नहीं हो सका तो इसके कारणों पर विचार होना चाहिए  | आखिर 70 साल कम नहीं होते |


-रवीन्द्र वाजपेयी

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