Tuesday 16 March 2021

किसानों के हाथ से निकलकर राजनीति के शिकंजे में फंसा आन्दोलन



किसान आन्दोलन के 100 दिन पूरे होने के बाद किसान नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल प.बंगाल गया और  भाजपा के अलावा किसी को भी मत देने की अपील कर आया | इसी तरह राकेश टिकैत विभिन्न राज्यों में जाकर किसानों को लामबंद करते हुए केंद्र सरकार के विरुद्ध माहौल बनाने में जुटे हुए हैं | किसान नेताओं द्वारा  उठाये जा रहे मुद्दे और मागें  वही हैं  जो दिल्ली की सीमा पर  दिए जा रहे धरने में उठाई गई थीं |  केंद्र सरकार लगातर कह  रही है कि वह किसानों द्वारा सुझाये  संशोधनों पर विचार करने के लिए तैयार  है किन्तु किसान नेताओं की जिद है कि सभी कानून वापिस लिए जाएं और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप दिया जाए | चूंकि दोनों पीछे हटने राजी नहीं हैं इसलिए गतिरोध दूर होने की सम्भावना नजर नहीं आ रही | श्री टिकैत सरकार द्वारा समर्थन  मूल्य को जारी रखने के आश्वासन का मजाक उड़ाते हुए लगातार कह रहे हैं कि अब किसान जिलाध्यक्ष कार्यालय जाकर  अपना अनाज बेचने और समर्थन मूल्य हासिल करने का दबाव बनाएंगे | ये   बहुत ही बचकानी बात है क्योंकि सरकारी खरीद या तो कृषि उपजमंडी में होती है या प्रशासन द्वारा निर्धारित केन्द्रों में | जिन राज्यों में आन्दोलन का असर है वहां  के किसान भी श्री टिकैत के सुझाव को कितना स्वीकार करेंगे ये कहना कठिन है | आज  प्राप्त समाचार के अनुसार मक्का को  छोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में आने वाले अनेक खाद्यान्नों एवं अन्य चीजों की कीमतें फ़िलहाल समर्थन मूल्य से ज्यादा चल रही हैं | कपास के दाम तो काफी ऊपर चल रहे हैं  | इसी तरह भारतीय गेंहू और चावल की मांग  भी विदेशों में बढ़ी है | यद्यपि ये अस्थायी दौर हो सकता है क्योंकि  अनेक दक्षिण एशियाई देशों में  उत्पादन गिरा है जबकि भारत में सौभाग्यवश अच्छी फसल आने से हम निर्यात करने में सक्षम हुए हैं | जैसे संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में भारत खाद्यान्न के बड़े निर्यातक के रूप में अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरेगा | किसान आन्दोलन के संचालकों को अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने का पूरा अधिकार है लेकिन जिलाध्यक्ष कार्यालय जाकर अनाज बेचने की बात गले नहीं उतरती | उल्लेखनीय है वे संसद जाकर अनाज के न्यूनतम  समर्थन मूल्य वसूलने जैसी घोषणा भी कर चुके हैं | उनसे ये पूछा जा सकता है कि जिन जिंसों के दाम समर्थन मूल्य से ज्यादा हो गए हैं क्या  उन्हें भी जिला मुख्यालय अथवा संसद ले जाकर न्यूनतम मूल्य पर बेचा जाएगा ? वैसे भी  किसान आन्दोलन से इतर सोचने वाली बात ये है कि कृषि प्रधान देश होने के बाद भी भारत खाद्यान्न के निर्यात में वैश्विक स्तर पर अपनी जगह क्यों नहीं  बना सका ? | किसान आन्दोलन के बाद खेती और उससे उत्पादित  चीजों के दाम और उत्पादक को होने वाले लाभ का मुद्दा राष्ट्रीय विमर्श बन चुका है | राजनीति  से अलग हटकर देखें तो ये शुभ संकेत है किन्तु साथ ही ये याद रखना जरूरी होगा कि जिस तरह वामपंथी सोच पर आधारित श्रमिक आन्दोलनों ने  श्रमिकों की संघर्ष क्षमता खत्म कर दी  ठीक उसी तरह किसान आन्दोलन को लेकर भी  आशंका  है कि उसकी हालत भी वैसी ही न  हो जाए | किसानों की जायज मांगों से किसी को ऐतराज नहीं  है लेकिन श्री टिकैत और बाकी  किसान नेता जिस तरह से बातें कर रहे हैं वे इस बात का संकेत हैं कि उनका उद्देश्य आन्दोलन को टाँगे रखना है न कि किसानों की भलाई | 100 दिन बीत जाने के बाद भी आन्दोलन को वैसा अखिल भारतीय स्वरूप नहीं  मिल सका जैसा किसान संगठन सोच रहे थे | दिल्ली की सीमा पर चल रहे धरने भी अब रौनक खोते जा रहे हैं | जिस तरह किसान नेता ,  केंद्र सरकार को व्यापारियों द्वारा संचालित बताने में जुटे हुए हैं ठीक वैसे ही इस आन्दोलन के साथ भी  ये बात जुड़ चुकी है कि अव्वल तो ये पंजाब - हरियाणा के सम्पन्न  किसानों और उनके साथ जुड़े ढ़तियों द्वारा प्रायोजित  है और दूसरा ये  भाजपा विरोधी शक्ल अख्तियार कर चुका है | वैसे अब तक किसान नेता इतना आगे बढ़ चुके हैं कि पीछे लौटना उनके लिए बेहद कठिन हो गया है | रही बात केंद्र सरकार की तो प्रधानमन्त्री द्वारा स्पष्ट कर  दिए जाने के बाद कृषि कानून वापिस होने की सम्भावना तो बची नहीं है और रही बात न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहिनाने की तो वह सुधारों की पूरी प्रक्रिया को ही पटरी से उतार देगा | ऐसे में बीच का रास्ता ही इस विवाद को ठंडा कर सकेगा लेकिन वह  निकालेगा कौन ये यक्ष प्रश्न है | जानकारों का कहना है कि  यदि बाजार के भाव सरकारी कीमत से ज्यादा चले तब तो  आन्दोलन अपना बचा - खुचा दबाव भी खो बैठेगा | 2 मई को पांच राज्यों के  चुनाव नतीजे  आने के बाद दोनों पक्ष अपनी रणनीति नये सिरे से बनायेंगे  | श्री टिकैत भी अक्टूबर - नवम्बर तक विवाद  सुलझ जाने की बात लगातार दोहरा रहे हैं | गत दिवस मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा बागपत में दिए भाषण की भी काफी चर्चा रही जिससे लगा कि कोई राजनीतिक प्रक्रिया पर्दे  के पीछे चल रही है | आने वाले दिनों में क्या होगा ये अनिश्चित है किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है यह  आन्दोलन किसानों के हाथ से निकलकर राजनेताओं के कब्जे में आता जा रहा है और श्री टिकैत सहित बाकी नेता सियासत के औजार बनकर रह गये हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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