गुजरात में ऐतिहासिक जीत के बाद भाजपा के राष्ट्रीय संगठन ने निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए रणनीति तैयार करने का काम शुरू कर दिया है | उसी सिलसिले में ये खबर बड़ी तेजी से उभर रही है कि म.प्र में भी गुजरात फार्मूले को दोहराते हुए सरकार और संगठन में बड़े पैमाने पर परिवर्तन किया जायेगा जिससे मौजूदा चेहरों के प्रति जनता और कार्यकर्ताओं की नाराजगी चुनाव में सामने न आये | गुजरात में मुख्यमंत्री सहित सभी मंत्रियों को बदलने का दांव जिस तरह कारगर हुआ उससे केन्द्रीय नेतृत्व काफी प्रसन्न है | वैसे तो आगामी वर्ष राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी चुनाव होना हैं जहां विपक्ष में होने से भाजपा को सरकार विरोधी भावना का भय नहीं है | लेकिन म.प्र उसकी चिंता का विषय बना हुआ है | नगर निगम चुनाव में ग्वालियर , जबलपुर , रीवा जैसे बड़े शहरों के साथ मुरैना और कटनी में महापौर प्रत्याशी हारने को पार्टी आलाकमान खतरे का संकेत मान रही है | हालाँकि पार्टी के पार्षद ज्यादा जीते जिससे ये संकेत मिला कि प्रत्याशी चयन में ज़रा सी भी लापरवाही या मनमानी जनता और पार्टी के परम्परागत समर्थकों को भी बर्दाश्त नहीं होती | शहरी मतदाताओं ने 2018 में भी पार्टी को झटका दिया था | भोपाल , जबलपुर , इंदौर , ग्वालियर आदि में कांग्रेस ने सेंध लगाते हुए भाजपा से प्रदेश की सत्ता छीन ली | भले ही कांग्रेस के दो दर्जन विधायकों के दलबदल से शिवराज सिंह चौहान का राजयोग लौट आया लेकिन उन विधायकों को पार्टी संगठन सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पा रहा | पिछला चुनाव हारे अनेक भाजपा प्रत्याशियों को कांग्रेस से आये विधायकों की वजह से अपना भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है | ग्वालियर में सिधिया समर्थक को महापौर की टिकिट न देने का प्रतिकूल परिणाम निकलने के बाद उच्च नेतृत्व इस बात से चिंतित है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से आये नेताओं के साथ पार्टी के कार्यकर्ताओं का सामंजस्य नहीं बैठा तो 2018 वाली गफलत दोहराई जा सकती है | यही वजह है कि गुजरात जैसे प्रयोग की बात उठने पर सिंधिया समर्थकों के रुख का आकलन करना जरूरी होगा क्योंकि उनमें से अनेक भाजपाई संस्कृति में ढल नहीं पा रहे | ये सब देखते हुए म.प्र में गुजरात जैसा बदलाव आसान नहीं होगा | इसका कारण ये है कि यहाँ नरेंद्र मोदी और अमित शाह का वैसा दबाव नहीं है जैसा गुजरात में था | हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा ने बड़े पैमाने पर विधायकों की टिकिट काटने का प्रयोग किया था | लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का गृह प्रदेश होने के बावजूद भी खुलकर बगावत हुई जिसका खामियाजा सरकार हाथ से निकलने के रूप में सामने है | और फिर ये भी कि गुजरात में विधानसभा चुनाव से काफी पहले सरकार का चेहरा बदलने का दांव चला गया था जिससे मुख्यमंत्री और मंत्रियों को पैर ज़माने का पर्याप्त समय मिल गया | उस दृष्टि से म.प्र में सरकार का ढांचा बदलने पर नए लोगों को ज्यादा समय नहीं मिल सकेगा | सबसे बड़ी बात ये है कि मुख्यमंत्री पद के लिए श्री चौहान की टक्कर का ऐसा कोई सर्वसम्मत नेता नजर नहीं आ रहा जो पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ ही रास्वसंघ को भी स्वीकार्य हो और आम जनता में जिसकी छवि साफ सुथरी हो | और फिर सिंधिया गुट से तालमेल बिठाने की समझ भी उसमें होना जरूरी है क्योंकि ग्वालियर के पूर्व महाराज कम से कम अपनी रियासत के अंतर्गत आने वाली सीटों पर तो वर्चस्व चाहेंगे | इन सबके परिप्रेक्ष्य में भाजपा आलाकमान के समक्ष म.प्र को लेकर तरह – तरह की दुविधाएं हैं | मुख्यमंत्री ने बहुत ही चतुराई के साथ प्रदेश में ओबीसी आबादी का बहुमत प्रचारित कर राष्ट्रीय नेतृत्व को अपनी उपयोगिता जता दी है | हालाँकि आदिवासी सीटों पर भाजपा और संघ दोनों का काफी ध्यान है किन्तु चुनाव जिताने के लिए जो सक्रियता और दांव पेच आवश्यक माने जाते हैं उनमें श्री चौहान का अनुभव सर्वाधिक है | यद्यपि लंबे समय से सत्ता में रहने के कारण जनमानस में सहज रूप से उत्पन्न होने वाला विरोध भी शीर्ष नेतृत्व को आशंकित किये हुए है | 2018 में तमाम अनुकूलताओं के बाद भी जीत जिस तरह आते - आते चली गई उसके कारण दूध का जला छाछ भी फूंक फूंककर पीता है वाली मनःस्थिति पार्टी में है | उल्लेखनीय है म.प्र भाजपा का सबसे पुराना गढ़ रहा है | यहाँ तक कि जब पूरे देश में जनसंघ पैर ज़माने की कोशिश में था तब भी प्रदेश के मध्यभारत और मालवा अंचल में उसके सांसद जीतते थे | अटल जी और आडवाणी जी ही नहीं अपितु जगन्नाथ राव जोशी , डा.वसंत कुमार पंडित , भैरोसिंह शेखावत, सुषमा स्वराज , ओ. राज गोपाल और प्रकाश जावडेकर जैसे नेता म.प्र से लोकसभा और राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे हैं | तमिलनाडु के भी एक नेता यहाँ से राज्यसभा भेजे गये थे जिनका नाम भाजपाई तक न जानते होंगे | उस दृष्टि से ये कहना गलत न होगा कि ये राज्य पार्टी के लिए हिन्दुत्व की सबसे पुरानी प्रयोगशाला रहा है | इसीलिये जब वह पिछले चुनाव में विजय की देहलीज पर आकर रुक गयी तब उसे बड़ा झटका माना गया | ऐसे में पार्टी के सामने म.प्र पर कब्जा बनाये रखना रणनीतिक और वैचारिक तौर पर आवश्यक है | फिलहाल चल रही चर्चाओं के अनुसार जिन विधायकों और मंत्रियों की रिपोर्ट ठीक नहीं है उनका टिकिट काटे जाने पर संभावित नुकसान के बारे में पार्टी नेतृत्व विमर्श कर रहा है | चर्चा तो संगठन में भी बड़े बदलाव की है | लेकिन ऐसा करने के लिए अब ज्यादा समय नहीं बचा है | आखिरी वक्त पर किया बदलाव किस तरह घातक होता है ये भाजपा दिल्ली में देख चुकी है जहां मदनलाल खुराना और साहेब सिंह वर्मा की लड़ाई के बीच 1998 में सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया गया था | लेकिन वह दांव इस कदर उल्टा पड़ा कि बीते लगभग 25 साल से भाजपा दिल्ली विधानसभा में बहुमत हासिल करने के लिए तरस रही है | उस दृष्टि से म.प्र की सत्ता में गुजरात जैसा बड़ा बदलाव करना आसान नहीं लगता | विधायकों के टिकिट काटना जरूर संभव है क्योंकि अनेक विधायक और मंत्री ऐसे हैं जिनकी छवि बेहद खराब है | जहाँ तक बात संगठन की है तो उससे विशेष फर्क नहीं पड़ता क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष कोई भी रहे , चलती मुख्यमंत्री की ही है |
:रवीन्द्र वाजपेयी
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