Tuesday 20 December 2022

भृत्य के लिए न्यूनतम शिक्षा जरूरी है तो जनप्रतिनिधियों के लिए क्यों नहीं



म.प्र विधानसभा के प्रमुख सचिव अवधेश प्रताप सिंह द्वारा लिखी गयी पुस्तक विधानमंडल पद्धति एवं प्रक्रिया के विमोचन के अवसर पर विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम ने कहा कि यह पुस्तक वर्तमान विधायकों के साथ ही भविष्य में चुनकर आने वाले सदस्यों को संसदीय प्रक्रिया की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए बेहद उपयोगी साबित होगी | लेकिन इसके बाद अध्यक्ष महोदय ने कहा कि ये देखने में अक्सर आता है कि आजकल सदस्यों ने पढ़ना बंद कर दिया जबकि पहले के विधायक गण सदन में अध्ययन करके आते थे और फिर अपनी बात रखते थे परन्तु अब इसका अभाव महसूस होता है | चूंकि उक्त पुस्तक विधानसभा के प्रमुख सचिव द्वरा रचित है इसलिए उसकी प्रामाणिकता और तथ्यात्मकता पर विश्वास किया जा सकता है | हालाँकि म.प्र की विधानसभा देश के अनेक राज्यों की अपेक्षा शालीन और शांत मानी जाती है किन्तु समय के साथ या यूं कहें कि राजनीतिक वातावरण में आ रहे वैचारिक प्रदूषण के कारण सदन के भीतर का  माहौल अब पुराने ज़माने के सर्वथा विपरीत है | भले ही सत्ता और विपक्ष के बीच हाथापाई , माइक तोड़ने या आसंदी पर जाकर अभद्रता के नज़ारे न दिखाई देते हों लेकिन ये सच है कि अब सत्ता और विपक्ष के बीच सार्थक  बहस और सदस्यों द्वारा विद्वतापूर्ण भाषणों का दौर समाप्त हो चला है | इसका सबसे बड़ा कारण वही है जो श्री गौतम ने बताया कि विधायकों ने पढ़ना बंद कर दिया है | हालाँकि कुछ सदस्य ऐसे हैं जिनका बौद्धिक स्तर और संसदीय ज्ञान निश्चित रूप से काफ़ी अच्छा है और वे पूरी तैयारी के साथ सदन में आते हैं | लेकिन विधानसभा की बैठकों का ज्यादातर समय हंगामे में व्यतीत होने से ऐसे सदस्यों की प्रतिभा का समुचित प्रदर्शन नहीं हो पाता | सदन में बोलने के प्रति विधायकों की अरुचि का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि बीते  अनेक सालों से ये देखने में आ रहा है कि विधानसभा के  सत्र का समय से पहले ही अवसान हो  जाता है क्योंकि जो भी विधायी कार्य उस दौरान तय किये जाते हैं वे फटाफट पूरे हो जाते हैं | या तो होहल्ले के बीच उन्हें पारित कर दिया जाता है या फिर विपक्ष के बहिर्गमन के कारण सत्ता पक्ष को मैदान खाली  मिल जाता है | सही बात ये है कि सदन की कार्यवाही को स्तरीय और आकर्षक बनाने का काम सत्ता और विपक्ष के कुछ ऐसे सदस्यों का होता है जो संसदीय प्रक्रिया के साथ सदन के समक्ष विचाराधीन विषय पर समुचित अध्ययन करने के बाद पूरी तैयारी के साथ आते हैं | लेकिन सदन के भीतर होने वाले शोर शराबे के कारण उन्हें अवसर नहीं मिलता | ये कहना भी गलत नहीं होगा कि अयोग्य या अपेक्षाकृत कम योग्य सदस्य हीन भावना  के वशीभूत सदन के व्यवस्थित सञ्चालन में बाधक बन जाते हैं | इस बारे में श्री गौतम ने समाचार माध्यमों पर भी कटाक्ष किया कि वे होहल्ला करने वाले सदस्यों को  ज्यादा  स्थान देते हैं और अध्ययन करके आने वालों को कम | अब चूंकि विधानसभा अध्यक्ष ने ही कह दिया कि पहले के विधायक पढ़कर आने के बाद आते थे और  अब सदस्यों ने पढ़ना बंद कर दिया है इसलिए जनमानस में विधायकों की छवि लगातार खराब हो रही है तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होनी चाहिए | ये एक तरह से किसी अभिभावक द्वारा सार्वजानिक तौर पर ये स्वीकार करने जैसा है कि उसके बच्चे ठीक से पढ़ाई नहीं करते | हालाँकि श्री गौतम की टिप्पणी को केवल म.प्र के संदर्भ में देखना उसके दायरे को सीमित करना होगा क्योंकि जनप्रतिनिधियों में  विधायी कार्यों के प्रति लापरवाही पूरे देश में देखी जा सकती है | संसद भी अब इससे अछूती नहीं रही | इसलिये इस बात को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किया जाना चाहिए | 21 वीं सदी की जरूरतों के मद्देनजर  लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले विधानमंडल और संसद के सदनों में सार्थक बहस और विमर्श तब तक नहीं हो सकता जब तक चुने हुए जनप्रतिनिधियों की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय नहीं की जाती | जिस पुस्तक का श्री गौतम ने विमोचन किया उसे कितने विधायक पढ़कर समझ सकेंगे ये बड़ा सवाल है | सांसदों और विधायकों को विभिन्न मंत्रालयों से सम्बंधित जो रिपोर्टें मिलती हैं वे अधिकतर के निवास पर धूल खाया करती हैं | सदस्यों को तो छोड़ दें कितने मंत्री श्री गौतम की अपेक्षानुसार अध्ययन करते होंगे ये किसी से छिपा नहीं है | जब तक जनप्रतिनिधि शिक्षित नहीं होंगे उनसे पढने की अपेक्षा करना व्यर्थ है | सदन में बहस का स्तर  गिरते जाने के लिए किसे दोषी ठहराया जावे ये विवाद का विषय हो सकता है लेकिन जब संसद और विधानसभा में कार्यरत भृत्य तक के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का पैमाना है तब सांसद और विधायक के लिए वह योग्यता जरूरी क्यों नहीं है इसका जवाब भी मिलना चाहिए | संसद और विधानसभा की कैंटीन में सदस्यों की कितनी मौजूदगी रहती है और पुस्तकालय में कितनी , इसका अवलोकन करने से ही श्री गौतम की पीड़ा का कारण समझ में आ जाता है | पढ़ोगे तभी तो आगे बढ़ोगे वाले नारे को बनाने वाले जनप्रतिनिधि उसे खुद पर लागू क्यों नहीं करते , ये बहुत बड़ा सवाल है |

रवीन्द्र वाजपेयी 


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