Saturday 28 October 2023

सपा , बसपा और आम आदमी पार्टी म.प्र में विश्वसनीयता गंवाती जा रहीं




म.प्र विधानसभा चुनाव में विपक्ष का राष्ट्रीय गठबंधन कारगर नहीं हो सका। कांग्रेस द्वारा हठधर्मिता दिखाए जाने के कारण सपा, बसपा और आम आदमी पार्टी ने अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। आखिर - आखिर में जनता दल (यू) ने भी अपनी सूची जारी कर दी। इसका चुनाव परिणाम पर  क्या असर होगा ये तो मतगणना में ही स्पष्ट होगा किंतु जिन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच हार - जीत का अंतर कम होगा उनमें इन पार्टियों द्वारा बटोरे गए मत नतीजे की दिशा तय कर सकते हैं। हालांकि सपा और बसपा अतीत में कुछ सीटें जीतते आए हैं किंतु धीरे - धीरे  उनकी ताकत घटती गई। इसका कारण उनके विधायकों का पाला बदलना रहा। इस बार आम आदमी पार्टी सिंगरौली सहित एक दो स्थानों पर उम्मीद लगाए हुए है। इक्का - दुक्का निर्दलीय भी जीत सकते हैं किंतु बाद में उन सबका भाजपा या कांग्रेस की गोद में बैठ जाना तय है। यही कारण है कि इन पार्टियों की विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है। कमोबेश यही हालत गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और जयस जैसे दलों की है। प्रदेश की राजनीति में कभी सपा और बसपा का वैचारिक आधार था। कुछ नेता उनके ऐसे थे जो पार्टी की पहिचान हुआ करते थे। वे विधायक रहें या नहीं किंतु सैद्धांतिक दृढ़ता के कारण उनका सम्मान  विरोधी भी करते थे।  इसीलिए उनके समर्थक मतदाता भी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने में नहीं झिझकते थे । लेकिन बीते दो दशकों में इन पार्टियों का चेहरा विकृत होता चला गया। हर हाल में साथ रहने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं की बजाय  ये पार्टियां प्रवासी और मतलबपरस्त  नेताओं की सराय बनकर रह गई। जिनको भाजपा - कांग्रेस ने टिकिट नहीं दिया उनके लिए दरवाजे खोलकर ऐसे दलों ने अपनी जड़ों को खुद ही खोद डाला। एक जमाना था जब प्रदेश में समाजवादी विचारधारा वाले राष्ट्रीय स्तर के नेता हुआ करते थे। इसी तरह बसपा के भी प्रादेशिक नेता दलित समुदाय में  अपनी पकड़ रखते थे। इस पार्टी के उदय से प्रदेश में दलित राजनीति का भविष्य काफी उज्जवल नजर आने लगा था । लेकिन निहित स्वार्थों के लिए सौदेबाजी करने वाले विधायकों और नेताओं ने बसपा के प्रति विश्वास पूरी तरह घटा दिया। यही स्थिति सपा की भी रही जिसके विधायक बिकाऊ निकले । दरअसल पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए इन दोनों ने दूसरी पार्टी में टिकिट से वंचित नेताओं को बुलाकर उम्मीदवारी दी । जो मतलब निकलते ही  छोड़कर चलते बने। इस चुनाव में भी यही देखने मिल रहा है। चौंकाने वाली बात ये है कि साफ - सुथरी राजनीति करने वाली आम आदमी पार्टी भी इसी धारा में बहने लगी और भाजपा - कांग्रेस के असंतुष्टों को अपनी नाव में बिठाने को तैयार हो उठी। किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनाव अपना प्रभाव बढ़ाने का माध्यम है। इस दौरान वैचारिक आधार पर सहमति और असहमति के कारण लोग एक पार्टी छोड़कर दूसरी में जाते हैं। लेकिन जो नेता महज इसलिए आते हैं कि उनकी पार्टी ने उन्हें चुनाव की टिकिट नहीं दी तो उनकी निष्ठा पर भरोसा करना निरी मूर्खता है। इस बुराई से भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां भी अछूती नहीं हैं और इसके नुकसान भी उनको उठाने पड़ रहे हैं लेकिन छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों का ढांचा अपेक्षाकृत छोटा होने से अचानक आए बाहरी नेता उस पर भारी पड़ जाते हैं। उनका आगमन क्षणिक लाभ तो दे जाता है किंतु जाना दूरगामी नुकसान का कारण बनता है। आज से 15 - 20 साल पहले तक प्रदेश में सपा और बसपा के कुछ नेता ऐसे थे  जिनकी प्रदेश भर में पहिचान और प्रभाव  था। लेकिन आज ऐसा एक भी शख्स नहीं है। ये देखते हुए भाजपा और कांग्रेस द्वारा ठुकराए गए नेताओं को थाली में रखकर टिकिट देने से कुछ हासिल तो होगा नहीं । उल्टे बची - खुची साख भी मिट्टी में मिल जायेगी । नई भर्ती वाले उम्मीदवारों में से दो - चार जीत भी गए तो वे टिकाऊ नहीं होंगे और बेहतर अवसर दिखते ही दाएं - बाएं होने में देर नहीं लगाएंगे। आम आदमी पार्टी तो अभी प्रदेश में अपने पांव जमाने की स्थिति में है। ऐसे में वह यदि मतलबपरस्त नेताओं को शरण देने की भूल करेगी तब ये अपने लिए गड्ढा खोदने जैसा होगा। चूंकि ये पार्टियां और निर्दलीय मिलकर ज्यादातर भाजपा विरोधी मतों में ही  सेंध लगाएंगे । इसलिए कांग्रेस के साथ उनके रिश्ते और बिगड़ने की आशंका बनी रहेगी जिसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव में बनने जा रहे  गठबंधन पर पड़ना तय है। बेहतर होता ये पार्टियां अपने प्रभावक्षेत्र में सीमित सीटों पर वैचारिक तौर प्रतिबद्ध प्रत्याशी उतारतीं तब मतदाता उन्हें गंभीरता से लेते। लेकिन आज की स्थिति में इनको वोट कटवा ही माना जा रहा है। हो सकता है दल बदलू उम्मीदवारों के कारण कुछ सीटें इनकी झोली में आ जाएं किंतु जीते हुए विधायक ज्यादा देर साथ नहीं रहेंगे क्योंकि उनका उद्देश्य केवल अपना स्वार्थ साधना है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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