Monday 2 October 2023

आर्थिक स्थिति को पिछड़ेपन का आधार बनाना ही सही उपाय


बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े घोषित कर दिए गए। इसमें पिछड़ी , अति पिछड़ी , दलित , आदिवासी और सवर्ण जातियों की संख्या बताई गई है। राजनीतिक विश्लेषक इसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बड़ा दांव मान रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी काफी दिनों से जातिगत जनगणना की मांग उठाते हुए भाजपा को चुनौती देने में जुटे हैं। उनको लग रहा है कि अब पिछड़ों की तरफदारी ही उनका बेड़ा पार लगाएगी। कुछ लोग नीतीश के इस कदम को मंडल - 2 भी कह रहे हैं। ये आशंका भी जाहिर की जा रही है कि इसके बाद मंडल और कमंडल के बीच वैसी ही संघर्ष पूर्ण राजनीति शुरू हो जाएगी जैसी 1990 में देखने मिली थी। केंद्र सरकार का इस बारे में कहना है कि वह अलग से जातिगत जनगणना नहीं करवाएगी अपितु अगली जनगणना के साथ ही इसके आंकड़े एकत्र कर लिए जावेंगें। लोकसभा और विधानसभा में सीटों के नए सिरे से आरक्षण के लिए 2026 में परिसीमन की प्रक्रिया शुरू होगी । महिला आरक्षण भी उसके बाद लागू होगा। सवाल ये है कि बिहार में करवाई गई जातिगत जनगणना से होगा क्या ? सर्वेक्षण और आंकड़ों के आधार पर लोक कल्याणकारी योजनाओं का समुचित लाभ वंचित वर्ग तक पहुंचाने में बेशक मदद मिलती है किंतु बीते 75 वर्षों में जातिगत पिछड़ेपन की  स्थिति काफी बदली है। मसलन कुछ जातियां ऐसी हैं जो कहने को तो पिछड़ी हैं लेकिन सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से वे अगड़ी जातियों के समकक्ष आकर खड़ी हो चुकी हैं। और तो और राजनीतिक सत्ता की बदौलत उन्होंने  सामंतवादी हैसियत भी अर्जित कर ली है। उनके नेताओं ने अपनी पार्टी बनाकर पारिवारिक सत्ता कायम करने में भी सफलता हासिल कर ली है। स्व. चौधरी चरण सिंह ,स्व.मुलायम सिंह यादव  और लालू प्रसाद यादव इसके उदाहरण हैं। बिहार में अनेक नेताओं की जातिगत पार्टियां उनके परिजनों तक सीमित हैं और उनका प्रभावक्षेत्र भी छोटा है। ये नेता अपनी जाति के उत्थान से ज्यादा परिवार को महत्व देते हैं और राजनीतिक ब्लैकमेल ही इनकी कार्यशैली है। ऐसे में जातिगत जनगणना से नीतीश सरकार  कौन सी नई बात सामने लाई ये बड़ा सवाल है।  बिहार ही नहीं बाकी राज्यों का जो सामाजिक ढांचा है उसकी जानकारी किसी से छिपी नहीं  है। ऊंच - नीच की भावना भी अब पहले जैसी नहीं रही। आरक्षण की वजह से शैक्षणिक , सामाजिक और आर्थिक तौर पर भी दलित और पिछड़ों में से काफी लोग संपन्न हुए हैं। इन्हें देखकर ही क्रीमी लेयर जैसी बात उठती रही है। अनेक राजनीतिक नेताओं और नौकरशाहों के परिवार हर दृष्टि से सक्षम और समृद्ध हैं। दरअसल इसी वर्ग के कारण उनके सजातीय बाकी लोग  उन्नति की दौड़ में पिछड़ गए। जातिगत जनगणना के बाद अब जाति की संख्या के आधार पर राजनीतिक हिस्सेदारी मांगी जाएगी ।  वहीं नौकरी में आरक्षण के लिए भी उसी फार्मूले पर जोर दिया जावेगा। ऐसे में जातियों के भीतर भी वर्ग संघर्ष के हालात उत्पन्न होने का खतरा बढ़ जाएगा। इस बारे में उल्लेखनीय है कि मंडलवादी नेताओं में नीतीश सबसे सुलझे और शांत माने जाते रहे हैं । इसीलिए उन्होंने केंद्र और राज्य दोनों में लंबे समय तक भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की। ये कहना गलत न होगा कि यदि वे भाजपा के साथ न जुड़े होते तो लालू प्रसाद यादव उनकी राजनीति कभी की खत्म कर देते। बिहार के बाकी ओबीसी नेता भी इसीलिए टिके रह सके क्योंकि वे भाजपा के साथ रहे। उ.प्र की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है जहां मुलायम सिंह ने पिछड़ी जातियों के बाकी नेताओं को दोयम दर्जे का बना दिया। यही हाल मायावती ने दलितों के बीच वैकल्पिक नेतृत्व के उभरने की संभावना मिटाकर पैदा किया। जातिगत जनगणना के आंकड़े प्रकाशित होने के बाद क्या नीतीश उन अति पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं को राजसत्ता में हिस्सेदारी देकर ताकतवर बनायेंगे जिन्हें लालू एंड कंपनी ने दबा रखा था। इस बारे में एक बात और भी महत्वपूर्ण है कि यदि पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं का लक्ष्य वंचितों का उत्थान ही होता तो फिर 1990 के बाद से जनता दल के आधा दर्जन टुकड़े न हुए होते। खुद नीतीश कुमार ने समता पार्टी  बनाकर लालू प्रसाद और स्व.शरद यादव से दूरी बनाई। रामविलास पासवान , उपेंद्र कुशवाहा , जीतनराम मांझी, ओमप्रकाश राजभर , सोनेलाल पटेल के दल इसके उदाहरण हैं। बिहार में जनता दल (यू) और राजद  साथ रहते हुए भी अलग हैं। कर्नाटक में देवगौड़ा परिवार की पार्टी जनता दल ( सेकुलर ) है। जातिवादी राजनीति करने वाले तमाम नेता खुद को स्थापित करने के लिए अपनी जाति का लाभ उठाते हैं। नीतीश जरूर अपवाद हैं किंतु पिछड़ी और दलित जातियों के ज्यादातर नेता अपने परिवार को ताकतवर बनाने में ही जुटे रहे। यही वजह है कि अनु. जाति/जनजाति और ओबीसी वर्ग की राजनीति भी वंशवाद में उलझकर रह गई। स्व.डा.राममनोहर लोहिया ने अगड़ी जाति के होने के बाद भी पिछड़ी जातियों के हक के लिए आवाज उठाई किंतु उनके अनुयायी संकुचित दृष्टिकोण में उलझकर रह गए। भारतीय राजनीति की ये सबसे बड़ी विडंबना है कि जाति की राजनीति करने वाले भी परिवार और कुनबे में सिमटकर रह गए। ऐसे में जातिगत जनगणना के आंकड़ों से नए - नए दबाव समूहों के उभरने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। नीतीश कुमार को भी जल्द इसका कटु अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा।  विकास की दौड़ में पीछे रह गए वर्ग के उत्थान के लिए अंततः आर्थिक स्थिति को ही आधार बनाना होगा । इस सच्चाई को नेतागण जितनी जल्दी समझ लें वह अच्छा है वरना जातिवाद की चौड़ी होती खाई में रहा - सहा सामाजिक सद्भाव समा जावेगा। लालू प्रसाद की पार्टी के राज्यसभा सदस्य मनोज झा द्वारा संसद में पढ़ी गई ठाकुर का कुआ नामक कविता पर बिहार में मचा राजनीतिक बवाल इसका ताजा उदाहरण है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment