Monday 14 December 2020

चंद नेताओं के अड़ियलपन से आन्दोलन में बिखराव की आशंका



किसान संगठनों के बीच अब मतैक्य का अभाव दिखने लगा है। दिल्ली जाने के सभी रास्ते अवरुद्ध किये जाने से असहमत  एक गुट ये कहने लगा है कि कम से कम एक रास्ता तो  खुला रहना चाहिए जिससे आम जनता को तकलीफ न हो।आन्दोलनकारियों को भी ये लगने लगा है कि लम्बे समय तक दिल्ली की आपूर्ति ठप्प करने से जनमानस की सहानुभूति वे खो बैठेंगे। हालाँकि इसे लेकर भी मतभेद हैं। भारतीय किसान यूनियन के कुछ नेताओं द्वारा दिल्ली  जाने का रास्ता खोले जाने के विरोध में इस्तीफा दे दिया गया। इसी के साथ एक खबर ये भी किसान नेताओं को परेशान कर रही है कि पंजाब और हरियाणा से दिल्ली को दूध और हरी सब्जी की आपूर्ति करने वाले किसान जबर्दस्त घाटे में आ गये हैं। गोभी पैदा करने वाले अनेक किसानों ने अपने खेतों में ट्रैक्टर चलाकर पूरी फसल को रौंद दिया क्योंकि स्थानीय बाजार में उन्हें मिट्टी के मोल भाव मिल रहा है। यही स्थिति दूध की भी है। हालाँकि ऊपरी तौर पर तो किसान नेता सभी कानून वापिस लिए बिना समझौते का विरोध कर रहे हैं लेकिन कुछ इस बात पर जोर देने लगे हैं कि जब सरकार मुख्य मांगों को लेकर लचीलापन दिखाते हुए समाधान के लिए राजी है तब अड़ियल रुख दिखाने से खाली हाथ  लौटने का खतरा है। दूसरी बात जो किसान नेताओं में मतभिन्न्त्ता का कारण बन रही है वह है छद्म रूप में वामपंथियों की आन्दोलन में घुसपैठ। खलिस्तान समर्थक नारे बाजी के अलावा कैनेडा आदि से मिल रहे समर्थन और सहायता को लेकर जो बदनामी आन्दोलन के माथे पर चिपक रही थे उससे बचने की कोशिशें सफल हो पातीं उसके पहले ही सीएए के विरोध में हुए दिल्ली दंगों के आरोपियों के साथ ही कुछ और शहरी नक्सली नेताओं की रिहाई की मांगों से युक्त बैनर पोस्टरों के प्रदर्शन की वजह से आन्दोलन के अपहरण की आशंका प्रबल होने लगी। ताजा खबर ये है कि जामिया मिलिया के छात्र भी ढोल-ढपली लेकर धरना स्थल पर पहुंचे जिन्हें वापिस लौटा दिया गया। पंजाब के अलावा हरियाणा, उप्र, उत्तराखंड के साथ ही राजस्थान के कुछ किसान संगठनों को केंद्र सरकार के मंत्री ये समझाने में सफल होते बताये जा रहे हैं कि आन्दोलन जारी रहने से देश को अस्थिर करने वाली ताकतों का मंसूबा सफल हो जाएगा। आन्दोलन से जुड़े अनेक लोगों का कहना है कि योगेन्द्र यादव जैसे लोगों की वजह से किसान संगठनों और सरकार के बीच समझौते में अड़ंगे लग रहे हैं। स्मरणीय है श्री यादव किसान नेता के रूप में सरकार के साथ वार्ता में बैठना चाहते थे लेकिन उन्हें घास नहीं डाली गयी जिससे वे भन्नाए हुए हैं और ये साबित करने पर तुले हैं कि उनके बिना विवाद शांत नहीं होगा। लेकिन अब  लगता है सरकार ने भी दो मोर्चे एक साथ खोल दिए हैं। एक तरफ तो वह लगातार किसान नेताओं से निजी तौर पर बात करते हुए बीच का रास्ता निकालने की कोशिश में जुटी है वहीं दूसरी तरफ उसने उन्हें एहसास करवाना भी शुरू कर दिया है कि एक सीमा के बाद वह नहीं झुकेगी। शुरुवाती चुप्पी के बाद जिस तरह से कुछ केंद्रीय मंत्री कृषि कानूनों के पक्ष में माहौल बनाते हुए आन्दोलन में शरारती तत्वों के घुस आने के प्रति किसानों को सावधान कर रहे हैं उससे लगता है कि सरकार प्रारम्भिक दबाव से मुक्त होने लगी है। भाजपा ने भी किसानों को नए कानूनों के पक्ष में खड़ा किये जाने का अभियान छेड़ दिया है जिसके परिणामस्वरूप गत दिवस उत्तराखंड और हरियाणा के कुछ किसान संगठनों ने सरकार के साथ खड़े होने का फैसला कर लिया। सरकार इस बात के लिए भी किसान संगठनों को राजी करने में सफल होती लग रही है कि बातचीत के लिए उनकी तरफ से बैठने वाले प्रतिनिधिमंडल के जम्बो आकार को छोटा किया जाए और सुना है किसान नेता इसके लिए तैयार भी हो गये हैं । लेकिन जिन नेताओं को वार्ता से बाहर रखा जायेगा वे नाराज हो सकते हैं। सरकार द्वारा आन्दोलनकारियों के बीच ये बात प्रचारित करने का सुनियोजित अभियान छेड़ दिया गया है कि नये कानूनों से देश भर के किसानों का लाभ है लेकिन पंजाब की  सरकारी मंडियों के आढ़तिया उसमें अपना नुकसान देख रहे हैं इसलिए उन्होंने किसानों को  बहला फुसलाकर आन्दोलन के  रास्ते पर धकेल तो दिया किन्तु अब उसको समेटना मुश्किल हो रहा है। और इसी वजह से अन्य राज्यों में आन्दोलन की हवा नहीं  बन पाई। अम्बानी और अडानी समूह के प्रतिष्ठानों का विरोध और उनके  बहिष्कार तक तो बात ठीक थी लेकिन भाजपा नेताओं का घेराव जैसी घोषणा के बाद आन्दोलन से जुड़ा एक तबका नाराज हो गया। यहाँ तक कि भारतीय  किसान यूनियन के राकेश टिकैत भी आन्दोलन के भाजपा विरोधी होने से खुश नहीं हैं। इसका कारण पश्चिमी उप्र के जाट बाहुल्य वाले  इलाके में भाजपा का जबरदस्त प्रभाव है। ऐसे में अब आन्दोलन के समक्ष दुविधा की स्थिति  दिखाई देने लगी है। सरकार जिस शांति के साथ समझौते के प्रयास जारी रखे हुए है उससे किसान संगठनों में अंतर्विरोध पैदा होने लगे हैं। सिवाय पंजाब और थोड़ा बहुत हरियाणा को छोड़कर बाकी राज्यों के किसानों की तरफ से  आन्दोलन के साथ जुड़ने का अब तक कोई पुख्ता संकेत नहीं मिलना ही काफी कुछ कह जाता है। ये देखने के बाद ही अनेक किसान नेता ये कहने लगे हैं कि अंतहीन टकराव के बजाय सहमति के बिन्दुओं पर पहुंचकर आन्दोलन को सम्मानजनक तरीके से समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ा जाए जिससे उपद्रवी तत्व आन्दोलन को पटरी से न उतार सकें। आने वाले एक-दो दिन इस बारे में काफ़ी महत्वपूर्ण होंगे क्योंकि सरकार भी पूरी तरह से सक्रिय है। उसे ये समझ में आ चुका है कि किसानों की सभी मांगें मान लेने के बाद देश भर में नये दबाव समूह पैदा हो जायेंगे और तब उसके लिए सभी को संतुष्ट करना बड़ी समस्या बन जाएगा। यद्यपि यही बात किसान नेताओं के लिए भी मुश्किल पैदा  कर रही है क्योंकि सरकार ने उनकी मांगों को न मानते हुए भी हर समय सुलह-समझौते की पेशकश की जबकि किसान नेताओं ने कानून वापिसी के बिना आन्दोलन खत्म न करने की जो जिद पकड़ ली वह उनके गले में हड्डी की तरह अटक गई है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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