Monday 7 December 2020

लड़ाई में पीछे हटने के रास्ते बंद कर देना हानिकारक होता है



केंद्र सरकार और आन्दोलनकारी किसान संगठनों के बीच कई दौर की बातचीत के बावजूद समाधान नहीं निकला | अगली बातचीत 9 दिसम्बर को होने वाली है | लेकिन उसके पहले 8 तारीख को भारत बंद का आह्वान कर दिया गया जिसे तकरीबन 20 विपक्षी दलों ने अपना समर्थन भी दे दिया | पिछली बैठक में सरकार ने नए कानूनों में संशोधन की मंशा जताई किन्तु किसानों के नेताओं ने उससे असहमत होते हुए कानून वापिस लेने की जिद ठान  ली और उसके बाद कृषि मंत्री भी  अगली बैठक की तरीख तय करते हुए चले गये | गत दिवस कृषि राज्यमंत्री कैलाश चौधरी द्वारा दिये गए संकेतों के अनुसार सरकार कानूनों को वापिस लेने की मांग को शायद ही स्वीकार करे किन्तु वह संशोधन के लिए तैयार है | ऐसा लगता है सरकार किसानों के साथ बातचीत की प्रक्रिया को उस हद तक लाना चाहती है जहाँ उस पर ये आरोप न लग सके कि उसने विवाद हल करने के लिए कुछ नहीं किया | कल के बंद के बाद अब किसानों के पास बातचीत करने के लिए क्या बच रहेगा ये बड़ा सवाल है | सरकार के अब तक के रवैये से नहीं लगता कि वह तीनों कानून वापिस लेकर झुकने जैसा एहसास करवायेगी | यदि वह शुरू में ही ऐसा कर लेती तब शायद पराजयबोध से बच जाती लेकिन अब वैसा करना घुटने टेकना होगा , जिसकी उम्मीद बहुत कम है | दूसरी तरफ किसान भी  कानून वापिसी की जिद पकड़कर पीछे लौटने की स्थिति में नहीं रहे | ऐसे में वे संशोधनों पर राजी होकर आन्दोलन वापिस ले लेंगे ये भी संभव नहीं दिखाई देता |  जहाँ तक बंद का सवाल है तो अब इस हथियार में पहले जैसी धार नहीं रही और वह केवल एक दिन की सुर्खी बनकर रह जाता है | जाहिर है गैर भाजपा  शासित राज्यों में सरकार का संरक्षण मिलने से बंद अपेक्षाकृत सफल दिखेगा जबकि भाजपा के कब्जे वाले राज्यों में मिला जुला | यूँ भी आम जनता को इससे लेना देना नहीं है | और रही बात व्यापारी वर्ग की तो शादी सीजन में व्यापार बंद रखना उसे रास नहीं आएगा | लेकिन तोड़फोड़ के डर से वह दुकान बंद कर घर बैठ जाता है | यूँ भी दोपहर के बाद फिर बाजार खुलने लगते हैं | लेकिन परसों किसान संगठनों और सरकार के बीच बातचीत किस मुद्दे पर होगी ये समझ से परे है | यदि कानून वापिस लेने की घोषणा सरकार तब तक नहीं करती तो किसान बैठक में क्या करने जायेंगे ? और बिना क़ानून वापिस हुए आन्दोलन खत्म नहीं करने की जिद दोहराई जाती रही तब  सरकार के पास भी  किसान नेताओं के साथ बैठने की औपचरिकता का औचित्य नहीं रहेगा | ये देखते हुए हो सकता  है कि सरकार ने किसान संगठनों की आपत्तियों के मद्देनजर  नये कानूनों में जिन  संशोधनों पर रजामंदी दिखाई  है उनकी वह इकतरफा घोषणा कर दे | ऐसा करने से किसानों का एक तबका आन्दोलन को सफल मानकर शांत हो सकता है | सरकार ने भी इतने दिनों के भीतर ये तो पता किया ही होगा कि  बजाय कानूनों को वापिस लेने के वह केवल संशोधन का रास्ता  चुनती है तब उसके बाद आन्दोलन पर उसका क्या असर पड़ेगा ? किसान संगठन कहें कुछ भी लेकिन आन्दोलन के नाम पर राजनीतिक रोटी सेंकने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है | और यही उनके लिए नुकसानदेह हो सकता है |  अभी तक किसान आन्दोलन की हवा से देश का बड़ा हिस्सा अछूता है | ऐसे में सरकार ने एमएसपी , मंडी और कांट्रेक्ट फार्मिंग संबंधी संशोधन कर दिए तब पंजाब - हरियाणा  के अलावा बाकी राज्यों के बहुसंख्यक किसान संतुष्ट हो सकते हैं | वैसे भी उन्हें नए  कानूनों से कुछ लेने देना है नहीं | ये सब देखते हुए अब सबकी निगाहें कल के बंद और उसके बाद 9 दिसम्बर की वार्ता पर लगी रहेंगी | चूंकि किसान संगठनों की तरफ से बीच का रास्ता निकालने की सम्भावनाएं पूरी तरह खत्म कर दी गईं हैं इसलिए बड़ी बात नहीं परसों के  बाद संवादहीनता के हालात बन जाएँ और ऐसे में आन्दोलन अनियंत्रित  होने का खतरा बढ़ जाएगा | सरकार ने अब तक जिस तरह का रवैया अपनाया हुआ है उससे लगता है वह   किसान संगठनों की हठधर्मिता को जिम्मेदार ठहराकर ये सन्देश देना  चाह रही है कि वह तो समझौता चाहती थी किन्तु किसान नेताओं ने उसमें अड़ंगेबाजी की | वैसे भी  किसी  लड़ाई  में हमेशा आक्रामक नहीं रहा जा सकता | कभी - कभी पीछे हटकर भी लड़ाई जीती जा सकती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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