Friday 18 December 2020

देश को चाहिए मजबूत विपक्ष और कांग्रेस को चाहिए नया ऊर्जावान नेतृत्व



कांग्रेस की कार्यकारी  अध्यक्ष सोनिया गांधी  पार्टी के भीतर उपजे असंतोष को दूर करने का अभियान शुरू करने जा रही हैं। कल से उन नेताओं को छोटे-छोटे समूहों में बुलाकर  बात की जावेगी जिन्होंने कुछ महीने पहले उन्हें पत्र लिखकर पार्टी में शीर्ष पद हेतु चुनाव करवाने के साथ ही उसकी बिगड़ती हालत पर चिंता जताई थी। उन नेताओं में गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नाम भी थे जिन्हें गांधी परिवार के बेहद निकट समझा जाता था। उस पत्र को सार्वजनिक किये जाने को लेकर भी काफी बवाल मचा। राहुल गांधी तथा प्रियंका वाड्रा तक ने हस्ताक्षर करने वाले नेताओं पर तंज कसे। गांधी परिवार के वफादारों ने भी जवाबी मोर्चा संभाला। बिहार चुनाव में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के बाद एक बार फिर श्री सिब्बल सहित कुछ और पार्टी  नेताओं ने संगठन में छाई मुर्दानगी की तरफ ध्यान आकर्षित किया। मप्र में हुए 28 विधानसभा उपचुनावों में भी कांग्रेस आशानुरूप प्रदर्शन नहीं कर सकी जिससे कमलनाथ सरकार की वापिसी की उम्मीदें धरी रह गईं। उप्र  में तो अधिकतर सीटों पर पार्टी जमानत तक न बचा सकी। वहीं गुजरात में वह शून्य से आगे नहीं बढ़ पाई। हैदराबाद महानगरपलिका के परिणाम भी कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी लेकर आये। इन सबसे पूरे देश के कांग्रेसजन चिंतित हैं। उनके मन में ये सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि जब पार्टी का चेहरा राहुल गांधी ही हैं तब उन्हें अध्यक्ष पद पर दोबारा क्यों नहीं लाया जा रहा और यदि वे  अनिच्छुक हैं तब किसी अन्य सक्षम नेता को कमान सौंपी जाए। कांग्रेस  के वे तमाम नेता जो अब तक गांधी परिवार की मेहरबानी के कारण कांग्रेस कार्यसमिति में मनोनीत होते आये हैं वे भी चुनाव द्वारा संगठनात्मक ढांचे के पुनर्गठन की मांग करते हुए जिस तरह से मुखर हुए वह एक नया अनुभव है। दरअसल कांग्रेस में ऊपर बैठे नेताओं को छोड़ दें तो भी लगातार मिल रही पराजयों से निचले स्तर के कार्यकर्ताओं और युवा नेताओं का मनोबल गिरता जा रहा है। 2018 का अंत मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी के लिए जो खुशी लेकर आया था वह कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में काफूर हो गई। महाराष्ट्र में सत्ता की भागीदारी मिली तो कर्नाटक और  मप्र की सत्ता हाथ से चली गई। राजस्थान में  बगावत की चिंगारी को भले ही शांत कर लिया गया जो दोबारा कब भड़क उठे कहना मुश्किल है। इस सबके बीच पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व जिस तदर्थवाद को ओढ़े हुए है वह  पार्टी से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं को विचलित कर  रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद राहुल ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से स्तीफा दे दिया था। जिसे स्वीकार करने में ही महीनों  लगा दिए गए और बजाय किसी नए उर्जावान चेहरे को कमान सौंपने के श्रीमती गांधी के कन्धों पर ही दोबारा भार रख दिया जबकि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। इलाज हेतु उन्हें अक्सर अस्पताल में भर्ती होना पड़ जाता है और जाँच हेतु विदेश ले जाने की नौबत भी आ जाती है। इस कारण पार्टी के प्रचार के साथ ही संगठनात्मक गतिविधियों में उनका योगदान निरंतर घटता जा रहा है। हालांकि  राहुल कुछ न होते हुए भी सोशल मीडिया के जरिये अपनी सक्रियता का दिखावा तो  करते रहते  हैं किन्तु संगठन की मजबूती के साथ ही कार्यकर्ताओं और नेताओं से सम्पर्क और संवाद के प्रति वे बेहद उदासीन या यूँ कहें कि लापरवाह हैं। बिहार चुनाव में वे पार्टी के स्टार प्रचारक थे लेकिन बाद में  राजद के एक  वरिष्ठ नेता ने उन पर बीच चुनाव में अपनी बहिन के साथ पिकनिक मनाने चले जाने का आरोप तक लगाया। संसद के सत्रों के दौरान उनकी विदेश यात्राएँ भी अक्सर विवादों का कारण बनती रही हैं। दरअसल  आम कांग्रेसजन के मन में ये बात गहराई तक बिठाई जाती रही है कि गांधी परिवार ही कांग्रेस को एकजुट रखने का माध्यम है वरना वह बिखराव का शिकार हो जायेगी। लेकिन अब ये धारणा भी कांग्रेस के कथित नेताओं के साथ ही जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के मन में घर करने लगी  है कि गांधी परिवार के वर्चस्व के कारण संगठन में दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेतृत्व को उभरने का अवसर नहीं मिलता। इसी का नतीजा  है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी से  निकल आये जबकि सचिन पायलट जाते-जाते रह गये किन्तु वे भी मौका पाते ही खिसक  लें तो आश्चर्य  नहीं  होगा। मिलिन्द देवड़ा, दीपेंदर हुड्डा और जितिन प्रसाद जैसे राहुल ब्रिगेड के सदस्य भी यदाकदा अपना असंतोष व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते। आज जबकि छोटी बड़ी सभी पार्टियों में युवा नेतृत्व को आगे लाया जा रहा है तब कांग्रेस में शीर्ष और प्रदेश स्तर पर कुंडली मारकर बैठे नेताओं या उनके बेटे-बेटियों को ही आगे बढाने का प्रयास होता रहता है। इसके विपरीत राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस की प्रमुख प्रतिद्वंदी भाजपा ने पूरे देश में दूसरी और तीसरी पंक्ति का नेतृत्व मैदान में उतार दिया है। बंगाल जैसे राज्य में जहाँ दस साल पहले तक उसका नामलेवा नहीं होता था वहां आज वह ममता बैनर्जी का विकल्प बनने की हैसियत में आ गई। बिहार से निपटते ही पार्टी ने बंगाल चुनाव हेतु पूरी ताकत झोंक दी है। केरल में हुए स्थानीय  निकाय चुनाव में राजधानी तिरुवनंतपुरम में भाजपा का नगर निगम में मुख्य विपक्षी दल बनना साधारण बात नहीं है। कांग्रेस बीते छ: वर्ष से केंद्र और लम्बे  समय  से देश के प्रमुख राज्यों में विपक्ष में है।  लेकिन आज के परिदृश्य में छत्तीसगढ़ और पंजाब को छोड़कर बाकी राज्यों में उसका प्रदर्शन निराशाजनक है। राजस्थान में हाल ही में सम्पन्न ग्रामीण निकायों में भी भाजपा ने उसे पीछे छोड़ दिया जो किसान आन्दोलन के चलते चौंकाने वाला है। सोनिया जी नाराज नेताओं की बातें सुनेंगी या उन्हें राहुल की दोबारा ताजपोशी के लिए भावनात्मक तरीके से राजी कर लेंगी ये तो वही जानें लेकिन कांग्रेस को आज सबसे ज्यादा जरूरत ऐसे नेताओं की है जिनकी निष्ठा  पार्टी के प्रति हो। जब तक वह एक ही परिवार के करिश्मे  पर अवलंबित  रहेगी तब तक उसकी दुरावस्था दूर नहीं होगी। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद जो युवा पीढ़ी जनमत को प्रभावित करने लगी है उसकी नेहरु-गांधी परिवार के महिमामंडन में कोई रुचि नहीं है। सोनिया गांधी वाकई पार्टी का पुनरुत्थान चाहती हैं तो उन्हें नए ऊर्जावान नेतृत्व को अवसर देना चाहिए। राहुल को पर्याप्त समय मिल चुका है लेकिन वे खुद को साबित नहीं कर सके। उप्र में प्रियंका को पार्टी की कमान सौंपने का नुक्सान  भी देखने मिल ही रहा है। हालत यहाँ तक हो गई है कि क्षेत्रीय पार्टियां तक कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने से बचने लगी हैं। इसीलिए यूपीए के अध्यक्ष के तौर पर सोनिया जी की जगह शरद पवार को बिठाने की चर्चा को हलके में नहीं लिया जा सकता। कांग्रेस की इस स्थिति को लेकर अब तो जनता तक चिन्तित होकर कहने लगी है कि देश को मजबूत विपक्ष की सख्त जरूरत है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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