Friday 11 December 2020

सरकार प्रायोजित हिंसा के विरुद्ध लड़कर ही तो ममता सत्ता में आईं थीं




बंगाल  की राजनीति में सत्ताधारी दल की  हिंसा नई बात नहीं है | वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने वाम मोर्चे की सरकार द्वारा प्रायोजित हिंसा के विरुद्ध बरसों तक मोर्चा सम्भाला | वामपंथी गुंडों के हमलों में वे अनेक बार घायल भी हुईं | वामपंथियों के प्रति  शीर्ष नेतृत्व के  नरम रवैये से ममता बेहद नाराज थीं   और अंततः कांग्रेस को साम्यवादियों की बी टीम बताते हुए उन्होंने तृणमूल कांग्रेस नामक अपनी  पार्टी बना ली | ज्योति बसु के सत्ता छोड़ने के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में जरूर वे  कुछ खास नहीं कर सकीं लेकिन बंगाल के जनमानस पर  ये छाप छोड़ने में पूरी तरह सफल हो गईं कि वामपंथी अराजकता से मुक्ति दिलाने में वही सक्षम हैं और इसी का नतीजा आगामी   चुनाव में देखने मिला जब उन्होंने लगभग अजेय मान लिए गये मार्क्सवादियों के लाल किले को धराशायी करते हुए सत्ता पर कब्जा कर लिया | इसके पहले वे कभी एनडीए तो कभी यूपीए और  तीसरे मोर्चे के साथ गठबंधन में रहीं किन्तु अपने विशिष्ट स्वभाव के कारण ज्यादा दिन उनकी किसी से नहीं बनी | उनकी सादगी और आम जनता जैसी जीवन शैली के कारण बंगाल के मतदाताओं का उनमें विश्वास जागा | बंगाल से वामपंथियों को उखाड़ फेंकने का कारनामा न इंदिरा गांधी कर सकीं और न ही अटल बिहारी वाजपेयी |  ये कहना गलत नहीं कि बंगाल की शेरनी का खिताब ममता को यदि मिला तो ये उनकी  स्वअर्जित उपलब्धि थी | लेकिन ऐसा लगता है सत्ता में आने के बाद वे या तो असावधान हो गईं या फिर उसके मद में डूब गईं | उनकी ईमानदार छवि को भ्रष्टाचार के अनेक मामलों ने धूमिल कर दिया | लेकिन इससे भी बड़ी गलती उनसे हुई वामपंथी सरकार के दौर के गुंडा तत्वों को तृणमूल कांगेस में भर्ती करने की | निश्चित रूप से इसके कारण ममता पूरे बंगाल में जबरदस्त राजनीतिक  ताकत बन गईं |  शहरी मध्यम वर्ग के साथ ही  ग्रामीण क्षेत्रों में भी तृणमूल का जनाधार बढ़ाने के पीछे सुश्री बैनर्जी की जुझारू और साफ़ सुथरी छवि के साथ ही वाममोर्चे के साथ जुड़े रहे वे असामाजिक  तत्व भी रहे जिनके आतंक की वजह से सत्ता का विरोध करने की हिम्मत किसी की नहीं होती | बंगाल में वामपंथी  और कांग्रेस मिलकर भी उनके प्रवाह  को रोकने में नाकामयाब  साबित हो रहे थे | लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के उदय के बाद से भाजपा ने  उसी तरह से बंगाल में ममता बैनर्जी के आधिपत्य को चुनौती देने का साहस दिखाया जैसा  कभी वे खुद किया करती थीं | 2014 के लोकसभा और उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ज्यादा कुछ तो नहीं कर सकी किन्तु उसने ये साबित कर दिया कि ममता का विकल्प बनने की क्षमता  उसी में है | बंगाल के स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव  के अलावा हुए उपचुनावों में भी भाजपा  तृणमूल की निकटतम प्रतिद्वंदी बनकर उभरी | हालाँकि जीत का अंतर काफी रहा | लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव आते तक वह ममता को टक्कर देने की स्थिति में आ गयी और 16 सीटें जीतकर अपना दमखम दिखा दिया | उसके बाद से ममता भाजपा के विरुद्ध बेहद आक्रामक हो गईं | मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों का कांग्रेस और वामपंथी तो विरोध नहीं कर सके लेकिन भाजपा चूँकि इस मुद्दे पर खुलकर सामने आई इसलिए बंगाल  की जनता में उसके प्रति रुझान बढ़ता दिखाई देने लगा | अमित शाह भले पार्टी अध्यक्ष न रहे हों लेकिन वे बंगाल की चुनौती के प्रति गम्भीर हैं | यही वजह है कि बीते कुछ महीनों में राज्य में राजनीतिक हिंसा चरम पर पहुंच गई है | हालाँकि उसका शिकार कांग्रेस और वामपंथी भी हुए हैं  लेकिन सबसे ज्यादा हमले भाजपा और रास्वसंघ के कार्यकर्ताओं पर होने से ये साफ़ हो गया है कि सुश्री बैनर्जी भी ये मान बैठी हैं कि पिछले लोकसभा  चुनाव में भाजपा की सफलता तुक्का नहीं थी और पूरे राज्य में उसकी  जड़ें फैल चुकी  हैं | गत दिवस भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा और प्रभारी महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय पर हुए पथराव से ये साबित हो गया कि तृणमूल कांग्रेस पूरी तरह अपनी पूर्ववर्ती वामपन्थी सरकार के नक़्शे कदम पर चलते हुए राजनीतिक विरोधियों के दमन पर उतारू है | हालाँकि कांग्रेस और वामपंथियों ने विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन कर रखा है लेकिन ममता को ये एहसास हो चला है कि उनका मुख्य मुकाबला भाजपा से ही है | गत दिवस की हिंसात्मक घटना के बाद सुश्री बैनर्जी ने जिस लहजे में  प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा  का मजाक उड़ाया उससे ये पता चल जाता है कि मुख्यमंत्री रहते भी वे कितनी गैरजिम्मेदार हैं | उनकी  खीझ इस बात  पर भी है कि तृणमूल के तमाम बड़े नेता और उनकी सरकार के मंत्री लगातार पार्टी छोडकर  भाजपा में शामिल हो रहे हैं | राजनीति में वैचारिक विरोधी को शत्रु मानकर रास्ते से हटा देने की नीति साम्यवादियों से तो अपेक्षित रहती है | आजकल केरल में इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है किन्तु सत्ता  में आने से पूर्व तक  ममता का समूचा राजनीतिक सफर तो इसी तानशाही के विरुद्ध रहा | ऐसे में वे भी उसी तरह का व्यवहार करने लगें तो ये देखकर हैरानी होती है | बंगाल के अलावा असम , त्रिपुरा , मणिपुर , अरुणाचल आदि में भाजपा की सरकार बनने से पूर्वोत्तर में उसका जो दबदबा कायम हुआ उसके कारण बंगाल में भी उसकी संभावनाएं प्रबल होती लग रही हैं | बिहार विधानसभा चुनाव के हालिया नतीजों के बाद हैदराबाद महानगरपालिका के चुनाव में  मिली सफलता से भाजपा का  उत्साह भी ऊंचाई पर है | गत दिवस हुई घटना के बाद भाजपा और आक्रामक होकर मैदान में उतरेगी ये तय है |  लेकिन राजनीति से अलग हटकर देखें तो चुनाव पूर्व हो रही ये  घटनाएँ  चिंता का विषय है | ममता द्वारा अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को बजाय हिंसा से दूर रहने की समझाइश देने के उलटे भाजपा नेताओं के विरुद्ध आंय - बांय बकने से  एक बात तो तय है  कि ममता का आत्मविश्वास डगमगा रहा है | उनके साथी जिस तेजी  से उनका साथ छोड़ रहे हैं  उससे डूबते जहाज से चूहों के कूदने की कहावत चरितार्थ होती दिख रही है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी 


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