Friday 4 December 2020

अमरिंदर की उम्मीदों पर फट पड़े बादल




किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच वार्ता के चार दौर पूरे होने के बाद ये कहा जा रहा है कि 5 दिसम्बर को होने वाली वार्ता में बात बन जायेगी। नए कृषि कानूनों में जरूरी संशोधन किये जाने के सरकारी आश्वासन के बाद किसानों का गुस्सा कुछ  कम होता लगा। यद्यपि ये कहना जल्दबाजी होगी कि अगली वार्ता में विवाद सुलझ ही  जाएगा। इसका कारण ये है कि पंजाब और हरियाणा के अलावा अन्य  राज्यों के किसान संगठनों की मांगें कुछ हटकर हैं। लेकिन जिन दो - तीन मुद्दों पर सहमति बनती दिखाई दे रही है उनमें एमएसपी ( न्यूनतम समर्थन मूल्य ) को कानूनी रूप दिए जाने  के अलावा एपीएमसी  ( कृषि उत्पाद बाजार  समिति ) को मजबूत बनाने के साथ ही  व्यापारी के बीच विवाद में किसान को अदालत जाने का अधिकार शामिल है। इनके अलावा कुछ ऐसी मांगें भी हैं जो मौजूदा संदर्भ में न सिर्फ अव्यवहारिक अपितु अनावश्यक भी हैं  और इनका उपयोग केवल दबाव बनाकर सौदेबाजी करने के लिए किया जा रहा है। मसलन मुफ्त बिजली , आधे दामों पर डीजल और कर्जे पूरी तरह माफ़ किया जाना है। पराली जलाने पर भारी अर्थदंड से  भी किसानों को भारी ऐतराज है।  बहरहाल सरकार की तरफ से  बिना उत्तेजित हुए जो धैर्य और समझदारी दिखाई जा रही है उससे किसान संगठन  वार्ता  के दौरान   उतने आक्रामक नहीं हो सके जितना शुरुवात में थे। इसी दौरान पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिन्दर सिंह दिल्ली आकर गृह मंत्री अमित शाह से मिले। बताया जाता है कि उन्होंने श्री शाह से किसानों की उचित मांगें जल्द मान लेने का आग्रह किया लेकिन बाहर आकर  पंजाब की आर्थिक स्थिति के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर किसानों से भी जल्द से  जल्द समझौता  करने की अपील कर डाली। लेकिन इसी दौरान पंजाब के पूर्व  मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पद्मविभूषण लौटाकर अमरिंदर सिंह को चौंका दिया। ये बात बिलकुल सही है कि किसानों का  यह आन्दोलन पंजाब की धरती से ही शुरू हुआ और अमरिंदर सिंह ने बड़ी ही चतुराई से उसे सहयोग और संरक्षण देकर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने का दांव चल दिया। ऐसा  अकाली दल को खलनायक बनाने के लिए किया गया जो नये कानून संबंधी अध्यादेश जारी होने के बाद भी एनडीए और केंद्र सरकार का हिस्सा बना हुआ था। संसद में विधेयक पारित होने के समय अकाली दल ने एनडीए और सरकार से नाता तोड़ तो लिया लेकिन तब तक कांग्रेस  पंजाब में आन्दोलन का नेतृत्व करने का श्रेय लूट चुकी थी । राहुल गांधी भी आनन - फानन में वहां जा पहुंचे। अकाली दल भी हालांकि आन्दोलन के समर्थन में कूदा लेकिन ये कहना गलत न होगा कि राजनीतिक तौर पर वह पिछड़ गया। बाद में अमरिंदर सरकार  द्वारा केंद्रीय कानूनों को बेअसर करने वाले कानून भी पारित करवाए गए लेकिन  किसानों को  ये समझ में आ गया कि उनसे  कोई लाभ नहीं  मिलने वाला तो वे नाराज होने लगे जिससे बचने के लिये अमरिन्दर सिंह ने आंदोलन का रुख दिल्ली की तरफ मोड़ दिया। उससे उनके राज्य में शांति हो गई और हरियाणा तथा दिल्ली में हलचल मचने लगी। यहाँ तक तो कांग्रेस आक्रामक और मुखर थी लेकिन ज्योंही किसान दिल्ली पहुंचे त्योंही अकाली दल ने गुरुद्वारों के अपने आधार को इस्तेमाल करते हुए किसानों के लिये लंगर  आदि का इंतजाम कर दिया। कमजोर संगठन और नेताओं  की अरुचि के कारण कांग्रेस  पंजाब के बाहर आने के बाद किसानों से वैसा सम्पर्क नहीं  रख सकी। कुछ सिखों द्वारा खालिस्तान समर्थक हरकतें कर दिए जाने के बाद कांग्रेस ने भी आन्दोलन से मैदानी दूरी बनाई जिसका लाभ अकाली दल ने चुपचाप उठाया। गत दिवस अमरिन्दर सिंह का दिल्ली आकर केन्द्रीय  गृह मंत्री से मिलने के बाद नर्म बयान देने के साथ ही बीमारी के कारण लम्बे अरसे से सार्वजनिक तौर पर अनुपस्थित प्रकाश सिंह बादल द्वारा पद्म विभूषण लौटाने की खबर आ गयी। और इस तरह  किसानों के पक्ष में उंगली कटाकर शहीद होने का दांव फेंक दिया गया। श्री बादल के उस कदम के बाद अन्य नेताओं और खिलाड़ियों द्वारा भी  पुरस्कार और सम्मान लौटाए जाने के समाचार आने लगे।  आन्दोलन स्थल पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी द्वारा अपने स्टाल लगाकर भोजन , चाय आदि का जो इंतजाम किया गया उसे तो किसानों ने भाव नहीं दिया लेकिन अकाली दल द्वारा पहले परदे के पीछे रहकर आन्दोलन की व्यवस्था संभाली गई और फिर सही मौके पर श्री  बादल द्वारा  पद्म विभूषण लौटाकर किसानों के सबसे बड़े हमदर्द बनने जैसा ब्रह्मास्त्र चल दिया गया और  किसान आन्दोलन के जरिये  अकाली दल द्वारा पंजाब की राजनीति में अपनी वापिसी कर ली। सही बात ये है कि भाजपा आज भी पंजाब में शहरी क्षेत्रों से आगे नहीं बढ़ पा रही। नवजोत सिंह सिद्धू के पार्टी छोड़ देने के बाद उसके पास कोई दमदार सिख चेहरा भी नहीं है। इसीलिये किसान  आन्दोलन को दिल्ली तक आने से रोकने में वह विफल रही और यहाँ भी किसान संगठनों से गैर सरकारी  स्तर पर संवाद स्थापित करने में उसे सफलता नहीं मिली। ये सब देखते हुए  कहना गलत न होगा कि कोई कहे कुछ भी लेकिन किसान आन्दोलन ने अकाली दल के राजनीतिक वनवास को काफी हद तक दूर कर दिया है जबकि प्रारम्भिक  पहल लेने के बाद भी  कांग्रेस निर्णायक क्षण आते तक आन्दोलन पर अपना नियन्त्रण और प्रभाव नहीं  छोड़ सकी। कल होने वाली वार्ता में क्या होगा ये फि़लहाल कयासों तक ही सीमित है लेकिन कुछ न कुछ तो ऐसा होगा जिससे आंदोलन खत्म न सही लेकिन उतना आक्रामक भी नहीं रह सकेगा। और उसके बाद पंजाब की राजनीति में किसानों के नाम पर अकाली दल और कांग्रेस के बीच नए सिरे से सियासी संग्राम शुरू होना तय है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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