Thursday 17 December 2020

समझौते से ही समाधान निकल सकता है टकराव से नहीं



 दक्षिण भारत विशेष रूप से  तमिलनाडु में जनांदोलन या किसी नेता के अवसान पर आत्महत्या किये जाने की घटनाएँ बेहद आम मानी जाती हैं किन्तु गत दिवस दिल्ली के मुहाने पर चल रहे किसान आन्दोलन में शामिल एक किसान द्वारा खुद को गोली मारकर जान देने  के बाद इस बात का अंदेशा है कि भावावेश में  कुछ और आन्दोलनकारी भी ऐसा ही कदम न उठा लें।  किसानों की आत्महत्या वैसे हमारे देश में नई बात नहीं है। प्रतिवर्ष सैकड़ों किसान कर्ज के कारण अपनी जान दे देते हैं। लेकिन गत दिवस  जिन बुजुर्ग किसान ने गोली  मारकर आत्महत्या की वे गुरूद्वारे में ग्रंथी भी थे । लगता है आन्दोलन के अब तक निष्फल रहने से हताश होकर 65 वर्षीय उस किसान ने वह कदम उठाया। वैसे कड़ाके की सर्दी की वजह से स्वास्थ्य खराब होने से भी दर्जन भर से ज्यादा किसान जान गँवा बैठे। लेकिन आत्महत्या का ये पहला मामला है जो खतरनाक संकेत है। धरने पर बैठे किसानों में अनेक लोग अशिक्षित या अल्पशिक्षित हैं। इस वर्ग में इस तरह की घटनाओं का मनोवैज्ञानिक असर  ज्यादा होता है। ये देखते हुए आंदोलन के कर्णधारों को  जिम्मेदारी से सोचना चाहिए।  दिल्ली में सर्दी का प्रकोप बढता ही जा रहा है और ऐसे में आंदोलन की निरंतरता के साथ ही ये भी जरूरी है कि खुले आसमान  के नीचे बैठे किसानों की जि़न्दगी को सस्ता  न समझा जाये। आन्दोलन तो कुछ समय बाद खत्म हो ही जायेगा लेकिन जिस किसान की जान चली गई उसकी भरपाई होना असंभव  होगा। अब तक हुई मौतें सर्दी और बीमारी की वजह से थीं  किन्तु गत दिवस  की गई आत्महत्या कहीं अनुकरणीय न बन जाये ये किसान नेताओं  को देखना चाहिए। कल ही सर्वोच्च न्यायालय ने  धरने के कारण राजमार्ग बंद होने के विरुद्ध दायर याचिका की सुनवाई करते हुए सुझाव दिया कि चूँकि सरकार और आन्दोलनकारियों के बीच हुई वार्ताओं से समाधान नहीं निकला लिहाजा अब एक समिति बनाई  जाए जिसमें सरकार के साथ ही किसानों के प्रतिनिधि  और कुछ कृषि विशेषज्ञ रखे जाएँ। न्यायालय  ने ये टिप्पणी भी की कि लम्बा खींचने से इस विवाद के राष्ट्रीय स्तर पर फैलने का खतरा है , इसलिए मिल बैठकर इसका निपटारा हो । उसने किसान संगठनों को नोटिस भेजकर उनका पक्ष जानने की मंशा भी  जताई तथा उनके धरने की तुलना शाहीन बाग़ से किये जाने पर ऐतराज जताया। आज होने वाली सुनवाई के बाद न्यायालय क्या फैसला देता है इस पर सबकी निगाहें लगी हैं। लेकिन विचारणीय मुद्दा ये है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने खुद होकर समिति बनाने के निर्देश  दे दिए तब क्या किसान संगठन उसे मानेंगे क्योंकि सरकार ने जब पहले चरण की वार्ता में तत्संबंधी प्रस्ताव दिया तब सभी किसान नेताओं ने उसे सिरे से अस्वीकार कर दिया। उसके बाद कई दौर की बातचीत के बाद अंतत: गतिरोध की स्थिति बन गई। बावजूद इसके रोचक बात ये है कि सरकार और किसान दोनों बातचीत की इच्छा तो व्यक्त करते हैं किन्तु  किसानों की जिद है कि तीनों कानून वापिस लिए जाएँ जबकि सरकार इस बात पार अड़ी हुई है कि वह संशोधन से आगे नहीं बढ़ेगी। 9 दिसम्बर के बाद से दोनों पक्षों के बीच संवादहीनता है। किसान सरकार पर धोखेबाजी का आरोप लगा रहे हैं वहीं सरकार ने अपने मंत्रियों को कानूनों के पक्ष में प्रचार करने के लिए मोर्चे पर लगा दिया है। भाजपा ने बीते दो दिनों में देश भर में। 700 किसान सम्मेलन आयोजित कर ये आभास करवाने की पुरजोर कोशिश की कि दिल्ली में चल रहा धरना पूरे देश के किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं  करता। उधर आन्दोलनरत किसान संगठन  8 दिसम्बर के भारत बंद के बाद किसी बड़े कदम को लेकर ठोस  निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे। हालाँकि रोजाना उनकी तरफ से कोई न कोई राजमार्ग अवरुद्ध करने की बात सामने आती है किन्तु उन्हें भी ये  समझ आने लगा है कि उससे  आम जनता की नाराजगी बढ़ेगी। वैसे भी  चार और छ: महीने की तैयारी से आने का दावा करने वाले अनेक किसान अब घर लौटने लगे  हैं जिनकी जगह दूसरे जत्थे बुलवाए जा रहे हैं। किसान  नेता भी ये समझ गए हैं कि छोटे किसान ज्यादा समय तक अपने खेत से दूर नहीं रह सकेंगे। इसी के साथ दिल्ली के बाहर चल रहे धरने के दो अलग - अलग  स्थलों पर व्यवस्थाओं का  स्तर भिन्न होने से भी किसानों के बीच मनभेद पैदा होने का खतरा बढ़ रहा है। एक जगह बादाम की भरमार और दूसरी जगह केवल दाल - रोटी वाला लंगर चलने की खबरें सुर्खियाँ बन रही हैं। इन परिस्थितियों  में आन्दोलन को लम्बा खींचने से उसमें अंतर्विरोध उत्पन्न होने की  आशंका   है। वैसे भी आन्दोलन पर पंजाब  के बढ़ते वर्चस्व से हरियाणा के किसान असहज महसूस करने लगे हैं। इसी तरह राकेश टिकैत की किसान यूनियन में भी रास्ता रोके जाने के मुद्दे पर खींचातानी के बाद स्तीफों का दौर चल पड़ा। ये सब देखते हुए यदि  सर्वोच्च न्यायालय समिति बनाकर गतिरोध सुलझाने का निर्देश या समझाइश देता है तब किसान संगठनों और सरकार दोनों को  प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये बिना उस पर सहमति देकर आगे बढ़ने की बुद्धिमत्ता दिखानी चाहिए क्योंकि  आन्दोलन किसानों के हाथ से खिसककर उपद्रवी तत्वों के हाथ चले जाने का खतरा दिन ब दिन बढ़ रहा है। गत दिवस एक बार फिर बब्बर खालसा जैसे देश विरोधी संगठन का बैनर धरना स्थल पर दिखाई देना इसकी पुष्टि करता है। और फिर लम्बे समय तक राष्ट्रीय राजधानी को घेरकर रखना न सिर्फ अव्यवहारिक अपितु अनावश्यक और आपत्तिजनक भी है। देर - सवेर सर्वोच्च न्यायालय इसके विरुद्ध आदेश दे सकता है और तब किसान नेताओं  के सामने उगलत निगलत पीर घनेरी वाली स्थिति पैदा हो जायेगी। वैसे भी किसी  प्रजातांत्रिक आन्दोलन का अंत होता तो समझौता ही है जिसमें दोनों पक्षों को कुछ न कुछ तो  झुकना  ही पड़ता है।

- रवीन्द्र  वाजपेयी

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