Monday 30 November 2020

सरकार समझा नहीं पा रही या आन्दोलनकारी समझना नहीं चाहते



केंद्र सरकार द्वारा बनाए कृषि संशोधन कानूनों के विरोध में पंजाब से आये हजारों किसान दिल्ली को घेरकर बैठ गये है। उनका दावा है कि वे लम्बी लड़ाई की तैयारी से हैं। ट्रैक्टर ट्रॉली में रहने के साथ ही वे अपने साथ भोजन बनाने की सामग्री भी लाए हैं। लंगर के रूप में सामूहिक भोज चल रहा है। किसानों ने इस अपील को ठुकरा दिया है कि वे बुराड़ी नामक जगह पर एकत्र हो जाएँ जहाँ उनकी सुरक्षा और सुविधा का पूरा इंतजाम केंद्र सरकार करने के साथ ही  उनकी मांगों के सम्बन्ध में वार्ता की जावेगी। शुरू में बातचीत हेतु 3 दिसम्बर की तारीख सरकार ने तय कर दी थी किन्तु उसके पहले ही पंजाब के किसान दिल्ली कूच क्यों कर बैठे ये बड़ा सवाल है। केंद्र सरकार ने उनसे उक्त तिथि के पहले ही बातचीत का प्रस्ताव भी दिया किन्तु किसान नेताओं की जिद है कि उन्हें दिल्ली में जंतर मंतर पर धरने की अनुमति दी जाए और वार्ता बिना शर्त के साथ ही उच्चस्तरीय हो। शायद इसके पहले सचिव स्तर पर किया गया संवाद उन्हें रास नहीं आया। इसी के साथ ही वे नए कानूनों को वापिस लेने की मांग पर भी अड़े हैं। उनकी मुख्य चिंता जो बताई जा रही है वह है एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की समाप्ति की आशंका और सरकारी मंडियों की अनिवार्यता खत्म करते हुए खुले बाजार में अपना उत्पाद बेचने की छूट। उनके मन में ये बात बिठा दी गई है सरकार किसानों को पूरी तरह बाजार की ताकतों के रहमो - करम पर छोड़कर एमएसपी पर जो खरीदी करती थी उससे पिंड छुड़ा लेगी जिससे वे व्यापारी की मनमर्जी के शिकार होकर रह जायेंगे। कांट्रेक्ट फार्मिंग के लागू होने पर बड़े पूंजीपति उनकी फसल कम दाम पर खरीदकर मुनाफाखोरी करेंगे और धीरे-धीरे उनके जमीनें हडप लेंगे। दूसरी सरकार तरफ  सरकार का कहना है कि नए क़ानून किसानों के लिए अपनी मेहनत का अधिक से अधिक लाभ हासिल करने का रास्ता खोलने वाले हैं। इसके कारण वे अपनी फसल पूरे देश में जहाँ ज्यादा दाम मिले वहां बेच सकते हैं। सरकारी मंडियों में अपना उत्पाद बेचने की मजबूरी भी नहीं रहेगी और उन्हें खुले बाजार में ज्यादा मूल्य मिलने पर वे बिना मंडी शुल्क चुकाये वहां विक्रय कर सकते हैं। सरकार की मानें तो अब तक प्रचलित व्यवस्था में किसान मंडी माफिया की गुंडागर्दी और उनके साथ मिलकर सरकारी अमले द्वारा किये जाने भ्रष्टाचार का शिकार होता रहा है। बहरहाल आज किसानों द्वारा दिल्ली को जाने वाले सभी रास्ते बंद करने की धमकी दी गई है। इस कारण दिल्ली से पंजाब और हरियाणा जाने वाले लोग परेशान हो रहे हैं। राजमार्ग अवरुद्ध कर दिए जाने से निजी वाहन से आना-जाना भी संभव नहीं हो पा रहा। उल्लेखनीय है हरियाणा सहित एनसीआर कहलाने वाले गाजिय़ाबाद, फरीदाबाद, गुरुग्राम आदि से लाखों लोग नौकरी और कारोबार के सिलसिले में रोजाना दिल्ली में आवागमन करते हैं। इन स्थानों को जाने वाली मेट्रो रेल भी रद्द की जा रही हैं। कुल मिलाकर इस आन्दोलन की वजह से राष्ट्रीय राजधानी में आने जाने वाले भारी परेशानी झेल रहे हैं। शादियों के मौसम के कारण बारातों के जाने-आने में भी बाधा आ रही है। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी ये है कि आन्दोलनकारियों और केंद्र सरकार के बीच संवाद का कोई सक्षम माध्यम नहीं है जिस पर दोनों पक्ष भरोसा कर सकें। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने किसानों को दिल्ली भेजने की रणनीति बनाकर अपने राज्य को तो तनाव से बचा लिया। उनकी सरकार ने केन्द्रीय कानूनों को बेअसर करने के लिए जो कानून बनाये उन्हें भी किसान संगठनों ने अस्वीकार कर दिया। इसके पीछे अकाली दल की राजनीति थी जो ये नहीं चाहता था कि किसान कांग्रेस की राज्य सरकार से खुश हो जाएँ। चूँकि अकाली दल इस मसले पर एनडीए छोड़ चुका है इसलिए वह केंद्र सरकार के संदेशवाहक की भूमिका से अलग है। और पंजाब में भाजपा के पास कोई ऐसा बड़ा चेहरा भी नहीं है जिसके जरिये वह किसानों को ठंडा कर पाती। यही परेशानी किसानों के साथ भी है। उन्होंने भी मुसलमानों की तरह शाहीन बाग जैसा कदम तो उठा लिया लेकिन उनके पास भी केंन्द्र सरकार तक अपनी बात पहुँचाने वाला कोई प्रभावशाली प्रवक्ता नहीं है। दरअसल ये संवादहीनता ही इस विवाद का असली कारण है। भले ही पंजाब के किसानों के समर्थन में दिखावे के लिए पश्चिमी उप्र, हरियाणा, उत्तराखंड और राजस्थान के कुछ जत्थे आ गये हों लेकिन अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला जिससे ये लगता कि नए केन्द्रीय कानूनों का विरोध राष्ट्रव्यापी है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या केंद्र सरकार किसानों को समझा नहीं पा रही या फिर वे जानबूझकर इसे समझना नहीं चाह रहे। भले ही उनकी तरफ से ये कहा जा रहा हो कि उनके मंच पर कोई राजनीतिक हस्ती नहीं आयेगी लेकिन आन्दोलन के पीछे खड़ी राजनीतिक ताकतें अपने को छिपा नहीं पा रहीं। ऐसे में इस बात का डर है कि आन्दोलन दिशाहीन होकर भटक न जाए। वैसे भी इस तरह का कदम किसी आन्दोलन का अन्तिम अस्त्र होता है जिसे बहुत जल्दी उठाकर किसान संगठन और उनके नेता ऐसे मुकाम पर आ खड़े हुए जहाँ इधर कुआ, उधर खाई वाली स्थिति बन चुकी है। गत दिवस प्रधानमन्त्री ने रेडियो पर मन की बात में कृषि संशोधन कानूनों को किसानों के लिए हितकारी बताकर ये संकेत दे दिया कि सरकार आसानी से दबाव में आने वाली नहीं है। गत रात्रि भाजपा अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा के साथ गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की बैठक में क्या रणनीति बनी इसका खुलासा तो नहीं हुआ लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने किसानों को गृह मंत्री की अपील मान लेने की जो सलाह दी उससे लगता है उन्हें भी इस बात का भय है कि उनकी सजाई दूकान पर कहीं अकाली दल और भाजपा अपना बोर्ड न टांग ले जाएं। कुल मिलाकर इन पंक्तियों के लिखे जाने तक केंद्र सरकार और आन्दोलनकारी किसानों के नेता एक दूसरे की ताकत का आकलन करने में जुटे हैं। संवाद सेतु का अभाव जब तक दूर नहीं होगा तब तक गतिरोध बना रहेगा। भाजपा नेतृत्व इस संकट से निपटने वक्त इस सम्भावना का आकलन कर रहा है कि किसानों का आन्दोलन केवल पंजाब तक ही सीमित रहेगा या उसका फैलाव अन्य राज्यों में भी होगा। यदि वह इस बात से आश्वस्त हो गया कि पंजाब के बाहर के किसानों में इस आन्दोलन को लेकर उदासीनता है तब केंद्र सरकार भी कड़ाई से पेश आयेगी। अब तक के संकेतों के अनुसार किसानों के नेता भी ये समझ रहे हैं कि कदम पीछे खींचने से उनकी भद्द पिट जायेगी। ये बात भी सही है कि राजमार्गों को लम्बे समय तक जाम रखे जाने से जन सहानुभूति से किसान वंचित हो जायेंगे। वैसे भी ये धारणा तेजी से फैल रही है कि पूरे खेल के पीछे किसानों से ज्यादा राजनेताओं और उन व्यापारियों की भूमिका है जिनको नए कानूनों से जबरदस्त नुकसान होने जा रहा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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