Thursday 12 November 2020

कमलनाथ का पद प्रेम दूसरी बगावत का कारण बन सकता है



मप्र की राजनीति में बीते मार्च महीने में जो तूफान आया था वह दो दिन पूर्व ठंडा पड़ गया । 22 कांग्रेसी विधायकों के सामूहिक स्तीफ़े के कारण कमलनाथ सरकार गिर गई और शिवराज सिंह चौहान फिर सत्ता में लौट आये। कुछ और विधायकों के स्तीफ़े तथा मृत्यु के परिणामस्वरूप 28 विधानसभा सीटों पर गत 3 नवम्बर को उपचुनाव हुए । कोरोना के कारण  उत्पन्न हालातों में चुनाव निर्धारित अवधि के आगे बढ़ाना पड़े । इस दौरान दलबदल करने वाले कांग्रेस के विधायकों को शिवराज सरकार में मंत्री भी बना दिया गया। बीते लगभग 7 महीने से प्रदेश अनिश्चितता के भंवर में फँसा था। हालांकि भाजपा का संख्याबल देखते हुए ये पक्का था कि वह उपचुनाव में इतनी सीटें तो जीत ही जाएगी जिससे सरकार बची रहे। कुछ निर्दलीय के अलावा सपा - बसपा के विधायकों ने भी भाजपा सरकार को समर्थन देने का निर्णय कर कमलनाथ की उम्मीदों पर नाउम्मीदी की परत चढ़ा दी थी । बावजूद इसके कांग्रेस ने गद्दारों को हराने और जनादेश का  अपमान होने के नाम पर बिकाऊ की जगह टिकाऊ का नारा उछाला और ये दावा किया कि वह सभी 28 स्थान जीतकर सत्ता में वापिसी करेगी । कांग्रेस में बगावत का नेतृत्व करने वाले ग्वालियर राजघराने के ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा पहले ही राज्यसभा में भेजकर उपकृत कर चुकी थी । उनके लिए भी ये उपचुनाव अपना प्रभाव साबित करने का अवसर था। कांग्रेस ने  ग्वालियर क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए बहुत जोर लगाया जिससे श्री सिंधिया को नीचा दिखाया जा सके । लेकिन इस प्रयास में सबसे बड़ी बाधा बन गए कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ । पूरे उपचुनाव उन्हीं को केंद्र में रखकर लड़े गए। कांग्रेस के  प्रदेश अध्यक्ष होने के साथ ही वही नेता प्रतिपक्ष भी बने हुए हैं । 2018 का विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में होने से वे मुख़्यमंत्री तो बन गये किन्तु प्रदेश अध्यक्ष का पद छोड़ने की उदारता नहीं दिखाई और यहीं से श्री सिंधिया के साथ उनके और दिग्विजय सिंह के बीच कलह बढ़ी जिसका अंजाम अंततः सरकार गिरने के तौर पर सामने आया । लेकिन मुख़्यमंत्री पद चला जाने के बाद भी उन्होंने अध्यक्ष के साथ ही नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी भी कब्जा ली । उनकी ये पदलिप्सा पार्टी के बाकी नेताओं को भी रास नहीं आई । वैसे तो दिग्विजय सिंह को कमलनाथ का समर्थक माना  जाता है लेकिन पर्दे के पीछे वे भी श्री नाथ के एकाधिकार से रूष्ट थे। ऐसे में जब उपचुनाव रूपी जंग शुरू हुई तो कमलनाथ की तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस बिखरी - बिखरी रही जिसका परिणाम चुनावी हार के रूप में देखने मिला। उस लिहाज से यदि 2018 के चुनाव में जीत का सेहरा उन्होंने अपने सिर पर रख लिया तो इन उपचुनावों में मिली जबरदस्त हार की जिम्मेदारी भी उनको अपने नाम लिखकर उसका प्रायश्चियत करना चाहिए । लेकिन उनकी तरफ से इस आशय का कोई बयान नहीं आना ये साबित करता है कि उनको जितनी बड़ी सोच का नेता प्रचारित किया जाता रहा , वे वैसे हैं नहीं । और इसीलिए शिवराज को बधाई देने गए तो अपने सांसद बेटे को साथ ले गए । लेकिन इस हार के बाद कमलनाथ अब चुनौतीविहीन नहीं रह गए। दीपावली के बाद कांग्रेस में आंतरिक खींचतान मचेगी। यद्यपि फिलहाल ऐसा कोई कद्दावर नेता नहीं है जो श्री सिंधिया की तरह साहस कर सके किन्तु कमलनाथ के नाम की चमक और काम की धमक अब कमजोर पड़ती जाएगी। कांग्रेसजनों को ये भरोसा था कि उनका चुनाव प्रबंधन पार्टी को सत्ता में वापिस ले आएगा लेकिन वे बुरी तरह फुस्स साबित हुए । बेहतर हो वे दोनों पद छोड़कर नये नेतृत्व को अवसर दें। भाजपा ने विष्णुदत्त शर्मा के रूप में युवा चेहरा पेश कर मिसाल पेश कर दी किन्तु कांग्रेस में स्थापित मठाधीश हिलने का नाम तक नहीं लेते। यदि अब भी कमलनाथ ने पद का लालच नहीं छोड़ा तो बड़ी बात नहीं  कांग्रेस में दूसरी बगावत देखने मिले । सिंधिया जी के भविष्य को लेकर संशय प्रगट करने वाले अनेक कांग्रेसी उनके संपर्क में बताए जा रहे हैं । वहीं दिग्विजय सिंह की चिंता केवल बेटे जयवर्धन को लेकर है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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