Saturday 28 November 2020

वरना हम भारत के लोग बुलडोजर और खाकी वर्दी के सामने असहाय बने रहेंगे



टीवी एंकर अर्नब गोस्वामी की चीखने - चिल्लाने की शैली , अभिनेत्री कंगना रनौत द्वारा बेवजह चुनौतियां उछालना और पत्रकारिता कम राजनीति ज्यादा करने वाले संजय राउत की बदजुबानी अति सर्वत्र वर्जयेत की श्रेणी में रखे जाने योग्य हैं | इनके समर्थक भी दबी जुबान ही सही किन्तु ये मानेंगे कि इनकी अभिव्यक्ति में अनावश्यक रूप से तैश नजर आता है | हो सकता है ऐसा करने के पीछे उद्देश्य सुर्ख़ियों में बने रहना हो लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि बड़बोलापन अंततः नुकसानदेह होता है और ऐसा करने वाला व्यर्थ के विवादों में उलझकर अपना समय , ऊर्जा और रचनात्मकता सस्ते में खर्च कर देता है | मुम्बई में बीते कुछ महीनों में  ऐसा घटनाचक्र चला जिसके कारण उक्त तीनों महानुभाव विवाद और चर्चा में आये | अभिनेता  सुशांत सिंह की आत्महत्या के बाद फ़िल्मी दुनिया में जो माहौल बना उसमें वे  तीनों अपनी - अपनी भूमिका में सामने आये | आरोप - प्रत्यारोप का लम्बा और आक्रामक दौर चला | इसके चलते सुशांत की मौत तो पृष्ठभूमि में चली गई और अर्नब , कंगना और संजय का त्रिकोण विवादों का केंद्र बन गया | सबने अपने - अपने ढंग से बढ़ - चढ़कर बातें कीं | लेकिन बात मुख्य मुद्दे से भटकते हुए कंगना के कार्यालय में महानगरपालिका द्वारा की गई  तोड़फोड़ और उसके बाद एक पुराने मामले में अर्नब की गिरफ्तारी तक जा पहुँची | सुशांत की आत्महत्या में उसकी  प्रेमिका रिया की कथित भूमिका और फिल्मी दुनिया में नशीली दवाओं के बढ़ते चलन जैसी बातों पर कंगना और अर्नब के विरुद्ध हुई कार्र्वाई हावी हो गई | इन  दोनों ने सीधे  मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर निशाना साधा जिसके जवाब में बुलडोजर और गिरफ्तारी जैसा कदम महाराष्ट्र सरकार के इशारे पर मुम्बई पुलिस ने उठाया जिसका समूचा वृतान्त जगजाहिर है | कंगना के कार्यालय को अवैध निर्माण मानकर आनन - फानन में धराशायी करने के मुम्बई महानगरपालिका के काम पर  उच्च न्यायालय ने तत्काल स्थगन दे दिया था और उसके बाद गत दिवस उसे पूरी तरह अवैध बताते हुए  दोबारा निर्माण की अनुमति के साथ ही सर्वेयर नियुक्त करते हुए क्षतिपूर्ति का आदेश भी दिया | लेकिन इससे आगे बढकर न्यायालय ने तोड़फोड़ की कार्रवाई को दुर्भावना से प्रेरित बताकर एक नए मुद्दे को जन्म दे दिया | इसके बाद ये सवाल उठ  खड़े हुए हैं कि बिना राज्य सरकार के संरक्षण के क्या  महानगरपलिका के अधिकारी इस तरह की दबंगी दिखा सकते थे और अब क्षतिपूर्ति की जो राशि तय होगी उसके भुगतान का दायित्व किसका होगा ? दूसरा मामला अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का था | कुछ साल पहले हुई एक आत्महत्या के सिलसिले में उनकी गिरफ्तारी कर उन्हें जेल भेज दिया गया | उस प्रकरण का पहले ही खात्मा किया जा चुका था | ऐसे में अर्नब की गिरफ्तारी पर निचली अदालत ने प्रथम दृष्ट्या ही आपत्ति जताई और पुलिस रिमांड की मंजूरी नहीं दी | अर्नब ने जमानत  के लिए उच्च न्यायालय में अर्जी दी लेकिन उसने भी टरकाऊ रवैया दिखाया जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें पहले अंतरिम और अब स्थायी जमानत प्रदान कर दी जो एक साधारण प्रक्रिया है | लेकिन यहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की उपेक्षा करने के लिए मुम्बई उच्च न्यायालय के विरुद्ध जिस तरह की आलोचनात्मक टिप्पणियाँ कीं वे न सिर्फ कानून अपितु शासन और प्रशासन के स्तर पर भी विचारणीय हैं |  कंगना और अर्नब दोनों के प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति न रखते हुए भी  ये कहना गलत न होगा कि  दोनों प्रकरण नागरिक अधिकारों के साथ ही शासन और प्रशासन की स्वेच्छाचारिता  के सामने आम नागरिक की लाचारी के नए प्रमाण बन गये हैं |  उच्च और सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हीं विषयों पर अपने फैसले को केन्द्रित रखा है | कंगना और अर्नब दोनों विशिष्ट हैसियत रखते हैं | साधन संपन्न होने के साथ ही उन्हें परदे के पीछे से ही सही किन्तु एक  खेमे का राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त था | कंगना के कार्यालय को अवैध निर्माण बताकर  धराशायी करते समय उच्च न्यायालय ने मुम्बई महानगरपालिका से ये  सवाल पूछा भी था कि मुम्बई में हजारों अवैध  निर्माणों की जानकारी होने के बावजूद केवल कंगना के कार्यालय पर बुलडोजर चलाना क्या प्रशासनिक गुंडागर्दी नहीं थी ? इसी तरह जब अर्नब को सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम जमानत दी तब भी  ये सवाल देश  भर में उठा कि जमानत के हजारों विचाराधीन प्रकरणों के लम्बित रहते हुए उन्हें फटाफट जमानत कैसे दी दी गई ? अपने फैसले में इस मुद्दे पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए निचली अदालतों के रवैये पर ऐतराज जताया   लेकिन उसने मुख्य रूप से इस बात की आलोचना की है कि उच्च न्यायालय और निचली  अदालतें ऐसे मामलों में कानूनी पहलुओं की उपेक्षा करते हुए अपनी जिम्मेदारी के निर्वहन से बचती हैं | सर्वोच्च न्यायालय ने अर्नब की  गिरफ्तारी के अपर्याप्त आधार को नजरंदाज किये जाने पर जो नाराजगी व्यक्त की वह निश्चित रूप से आम आदमी को न्याय मिलने में होने वाले विलम्ब और कदम - कदम पर आने वाली अड़चनों की ओर ध्यानाकर्षण है | इसीलिये कंगना और अर्नब दोनों के मामलों  में उच्च और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए ताजा फैसले पूरे देश की कानूनी प्रक्रिया के लिए एक सुझाव और सन्देश हैं | भारत में प्रजातन्त्र जिस तरह से प्रशासनिक निरंकुशता और न्यायपालिका की मंथर गति के शिकंजे में फंसकर रह गया है उससे आम जनता के मन में गुस्से के साथ निराशा भी है जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने शब्द तो दिए हैं लेकिन जब तक पूरी व्यवस्था अपने दायित्वबोध के प्रति जागरूक और ईमानदार नहीं होगी तब तक बुलडोजर और खाकी वर्दी की मनमर्जी के आगे हम भारत के लोग असहाय बने  रहेंगे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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