Tuesday 3 November 2020

चाहे ट्रम्प जीतें या बिडेन भारत की उपेक्षा नहीं कर पाएंगे



अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव यूँ तो पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन जाता है लेकिन भारत के लिए इसका विशेष महत्व है। हालाँकि आजादी के कई दशक बाद तक भारत और अमेरिका के सम्बन्धों में खटास बनी रही। प्रजातांत्रिक देश होने के बाद भी अमेरिका से रिश्तों में तनाव का कारण नेहरू युग में भारत का सोवियत संघ के प्रति झुकाव था। यद्यपि भारत गुट निरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक रहा किन्तु नेहरु जी निजी तौर पर सोवियत संघ से बहुत प्रभावित थे। उनके सलाहकारों में भी वामपंथी रुझान वाले काफी लोग हुआ करते थे। इंदिरा गांधी के दौर में तो भारत और सोवियत संघ बहुत ही करीब आ गये थे। कश्मीर समस्या पर संरासंघ में अमेरिका और ब्रिटेन के पाकिस्तान समर्थक रुख पर सोवियत संघ ने सदैव भारत के पक्ष में वीटो का उपयोग किया। लेकिन विगत तीन दशक में हालात काफी बदल गये। पीवी नरसिम्हा राव के शासनकाल में जब डा. मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार लागू किये तब अमेरिका के साथ रिश्तों में सुधार होने लगा। बाद में अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा परमाणु परीक्षण किये जाने पर एक बार फिर सम्बन्ध बिगड़े लेकिन बेहतर कूटनीति के परिणामस्वरूप दोबारा उनमें मधुरता आ गई, जो लगातार बढ़ती गयी। वाजपेयी सरकार ने अप्रवासी भारतीयों को कूटनीतिक माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करते हुए अमेरिका के नजरिये को काफी प्रभावित किया। डा. मनमोहन सिंह तो वैसे भी अमेरिका समर्थक माने जाते थे। लेकिन पिछले छह साल में नरेंद्र मोदी ने इस विश्वशक्ति के साथ जिस तरह की आत्मीयता स्थापित की उसने दक्षिण एशिया के कूटनीतिक संतुलन को नया रूप दे दिया। पहले बराक ओबामा और फिर डोनाल्ड ट्रम्प के साथ श्री मोदी ने जिस तरह की अनौपचारिक निकटता बनाई वह काफी कारगर साबित हुई। डेमोक्रेटिक और रिपब्लिक पार्टी दोनों के शासनकाल में अमेरिका का भारत के पक्ष में झुकाव निश्चित तौर पर बड़ी कामयाबी है। लेकिन इसमें अमेरिका में बसे अप्रवासी भारतवंशियों के योगदान को भुलाना उनके प्रति कृतघ्नता होगी। पहले स्व. अटल जी और अब श्री मोदी ने इस माध्यम का जिस चतुराई से उपयोग किया वह जरूर उनके कूटनीतिक कौशल का परिचायक रहा। अप्रवासी भारतीयों की बड़ी संख्या अब अमेरिका की नागरिक है। अनेक परिवारों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी तो अमेरिका में ही जन्मी जिससे उन्हें वहां चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त हो गया। बॉबी जिंदल वहां सांसद के साथ लुइसियाना राज्य के गवर्नर भी रहे। संसद के दोंनों सदनों में भारतीय मूल के सदस्यों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि अमेरिकी प्रशासन में भारतीयों की उपस्थिति भी पहले की अपेक्षा ज्यादा नजर आने लगी है। ओबामा के बाद ट्रम्प ने भी अपने निजी स्टाफ  में काफी भारतीयों को शामिल किया। वैसे भी ट्रम्प अपने व्यवसाय के सिलसिले में भारत के साथ पहले से जुड़े हुए थे। इसीलिये 2016 में उन्हें जिताने में भारतीय मूल के मतदाताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही जिसका प्रतिफल बीते चार सालों में दोनों देशों के आपसी संबंधों में आये अभूतपूर्व सुधार के रूप में देखने भी मिला। विशेष रूप से पाकिस्तान और आतंकवाद के मामले में अमेरिका का रुख काफी बदला जिससे भारत की कूटनीतिक वजनदारी बढ़ी तथा जापान और आस्ट्रेलिया जैसे देश भी भारत के निकट आये जिसकी वजह से चीन पर भी दबाव बढ़ा। यही देखकर ट्रम्प के प्रतिद्वंदी डेमोक्रेट प्रत्याशी जोसफ बिडेन ने अपने उपराष्ट्रपति प्रत्याशी के तौर पर कमला देवी हैरिस को चुना जो भारतीय माँ और अमेरिकन पिता की संतान हैं तथा 2017 से सीनेटर हैं। उनकी वजह से बिडेन का पलड़ा भारी होने का अनुमान चुनाव विश्लेषक लगा रहे हैं। उधर श्री मोदी से अच्छे सम्बन्धों के कारण भारतीय मूल के मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ट्रम्प के तरफ भी झुका बताया जा रहा है। इनके अलावा अमेरिका में भारतीय मूल के व्यवसायियों की भी बड़ी संख्या है जो व्हाईट हॉउस तक अपनी पहुंच रखते हैं। राष्ट्रपति चुनाव में बड़ा चन्दा देने वालों में भी इन व्यवसायियों की गिनती होती है। इस प्रकार अमेरिका के राष्ट्रीय चुनाव में भारत और भारतीयों का हित चर्चित मुद्दा है। ये कहना गलत न होगा कि भारतीय समुदाय अब एक प्रभावशाली दबाव समूह के तौर पर स्थापित हो चुका है। और इसीलिये भारत विरोधी माने जाने वाले बिडेन ने न सिर्फ कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति प्रत्याशी बनाया, अपितु भारत समर्थक बयान भी देने लगे। निश्चित रूप से ये बदलाव बहुत ही आशाजनक है क्योंकि वैश्विक राजनीति में भारत की बढ़ती भूमिका और कोरोना के बाद के शक्ति संतुलन में अमेरिका के साथ भारत की जुगलबन्दी चीन की नाक में नकेल डालने का जरिया बनेगी , ये विश्वास किया जा सकता है। ट्रम्प और बिडेन में से जो भी जीते वह भारत की उपेक्षा नहीं कर सकेगा ये तय है। विशेष रूप से एशिया में चीन की चौधराहट पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका को भारत की जरूरत पड़ेगी। हालाँकि कुछ प्रेक्षक शुरू में ये मानकर चल रहे थे कि बिडेन वामपंथी रुझान के कारण चीन के पक्षधर होंगे लेकिन जिस तरह के संकेत आ रहे हैं उनसे तो लगता है कि उनकी समझ में भी ये बात आ चुकी है कि बतौर राष्ट्रपति वैसा करना शायद उनके लिए आसान नहीं होगा। और इसीलिए जब ट्रम्प ने भारत को गंदा देश बताया तब बिडेन ने उसका विरोध करते हुए कहा था कि मित्र देश के बारे में ऐसी टिप्पणी अवांछनीय है। अमेरिका की राष्ट्रीय राजनीति में भारतवंशियों की महत्वपूर्ण भूमिका निश्चित रूप से उत्साहवर्धक है क्योंकि इससे भारत के विश्वशक्ति बनने के आसार प्रबल प्रतीत होने लगे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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