Monday 23 November 2020

ओवैसी की सफलता छद्म धर्मनिरपेक्षता की विफलता का परिणाम



बिहार विधानसभा के हालिया चुनाव के बाद राजनीतिक विश्लेषक मुख्य रूप से नीतीश कुमार सरकार की स्थिरता, पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के भविष्य और तेजस्वी यादव की बतौर विपक्ष भूमिका पर काफी चर्चा कर रहे हैं। लेकिन सही मायनों में देखें तो विश्लेषण का मुख्य विषय ये होना चाहिए कि बिहार के सीमांचल में हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने अपनी पार्टी ए.आई.एम.आई.एम को मैदान में उतारकर न सिर्फ  पांच सीटें जीत लीं वरन कांग्रेस और राजद को अनेक सीटों पर हरवा भी दिया। वैसे तो ओवैसी ने 2015 में भी बिहार और 2017 के उप्र विधानसभा चुनव में अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतारे थे किन्तु इक्का - दुक्का छोड़कर बाकी सबकी जमानतें जप्त हो गईं। लेकिन वे निराश नहीं हुए और इस बार फिर जोर आजमाइश करते हुए पांच विधायक जितवा लाये। आन्ध्र और तेलंगाना के बाहर केवल महाराष्ट्र में ही ओवैसी की पार्टी के विधायक थे लेकिन अब बिहार भी उस सूची में जुड़ गया है। इस सफलता से उत्साहित ओवैसी बंगाल और उप्र विधानसभा के आगामी चुनाव में भी हाथ आजमाने का ऐलान कर चुके हैं। शुरुवात में उन्हें वोट कटवा की श्रेणी में रखा जाता रहा। अनेक विश्लेषक उन्हें भाजपा की बी टीम कहकर संदेह की निगाह से देखते हैं। लेकिन बिहार के नतीजों के बाद ये माना जाने लगा है कि ओवैसी मुस्लिम समुदाय की आवाज बनकर उभर रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि वे उच्च शिक्षित होने के अलावा बेहद समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि से ताल्लुकात रखते हैं। जिस लोकसभा सीट से वे लगातार जीतते आ रहे हैं उसी से उनके पिता भी लम्बे समय तक चुने जाते रहे। ये बात भी माननी पड़ेगी कि हालिया सालों में लोकसभा में ओवैसी ही मुस्लिम समुदाय के सबसे मुखर प्रवक्ता बनकर उभरे हैं। दूसरी तरफ  ये भी सच्चाई है कि बीते कुछ वर्षों से मुसलमान खुद को नेतृत्व विहीन महसूस करने लगे हैं। जिन पार्टियों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़कर भाजपा और रास्वसंघ का हौआ खड़ा करते हुए मुसलमानों को डराकर उनके वोट हासिल किये जाते रहे वे न तो मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर मजबूत कर सकीं और न ही उनका शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान ही उनके शासन में हो सका। नब्बे के दशक से जिन मुद्दों को लेकर भाजपा राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में कामयाब हुई वह लगातार उन्हें लागू करवाने में सफल होती गई। केवल समान नागरिक संहिता ही बच रही है जिसके लिए मोदी सरकार के प्रयास ज़ारी हैं। मुसलमानों के मन में इसी बात को लेकर इन पार्टियों के प्रति गुस्सा और निराशा है कि वे भाजपा के तेज प्रवाह को रोकने की बजाय खुद को हिन्दूवादी साबित करने में जुटी हैं। कांग्रेस से शुरू होकर सपा, राजद और एनसीपी जैसी पार्टियां तक अंध मुस्लिम भक्ति छोड़कर ये दावा करने लगी हैं कि वे भी कम हिंदुत्व समर्थक नहीं हैं। बिहार के सीमांचल में मुस्लिम मतदाताओं को पहली बार ये कहते सुना गया कि पहले कांग्रेस और फिर लालू प्रसाद यादव के साथ एकमुश्त खड़े रहने का उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ और आज तक वे विकास से वंचित रहने के साथ ही राजनीतिक तौर पर भी पूरी तरह अनाथ हो चले हैं। इस बारे में सबसे महत्पूवर्ण बात ये है कि आजादी के बाद मुसलमानों की अपनी ऐसी कोई पार्टी नहीं रही जिसे राष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय माना जाता। मुस्लिम लीग केवल केरल में सिमटी रही। हालांकि कुछ मुस्लिम नेता अपने दम पर संसद और विधानसभाओं में जीतकर आते रहे लेकिन मुख्यत: मुसलमान कांग्रेस या ऐसी किसी अन्य क्षेत्रीय पार्टी से जुड़े  जो घोषित रूप से जनसंघ और भाजपा की विरोधी थी। लेकिन बीते कुछ सालों में विशेष रूप से केंद्र में नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद से भाजपा ने मुस्लिम मतों की गोलबंदी को छिन्न-भिन्न करते हुए जिस तरह से अपना विस्तार किया उसके बाद से मुसलमानों को ये महसूस होने लगा कि वे धर्मनिरपेक्षता के मोहपाश में फंसकर जिन नेताओं और पार्टियों के साथ चिपके थे वे केवल रोजा इफ्तार के नाम पर उनका भावनात्मक दोहन करती रहीं। भाजपा ने बीते दो लोकसभा चुनाव में विशेष रूप से उप्र और बिहार में मुस्लिम मतों के महत्व को जिस तरह से निरर्थक साबित कर दिया उसके बाद मुस्लिम समाज में ये भावना तेजी से फैलने लगी कि अब उनको पिछलग्गू की भूमिका त्यागकर अपना नेतृत्व विकसित करना चाहिए और इसी का लाभ लेकर दक्षिण भारत से चलते हुए ओवैसी ने गंगा-यमुना के मैदान में अपनी बिसात बिछा दी। बिहार में पांच विधायक जितवाकर उन्होंने ये साबित कर दिया कि उत्तर भारत में कांग्रेस, सपा, राजद और वामपंथी दलों में जो मुस्लिम चेहरे हैं भी वे प्यादे से ज्यादा हैसियत नहीं रखते। लंबे समय तक राजनीति में रहने के बावजूद उनका अपना आभामंडल नहीं बन सका। उप्र में आजम खान इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। इन्हीं सब कारणों से बिहार के मुसलमानों ने ओवैसी में उम्मीद की किरण देखी और उन्हें अपना संरक्षक मान लिया। ये बात बंगाल और उप्र में कितनी लागू हो सकेगी ये पक्के  तौर पर कह पाना फिलहाल कठिन है लेकिन इतना तो साफ हो ही गया है कि ओवैसी के रूप में एक ऐसा नेता खड़ा हो गया है जो केवल और केवल मुसलमानों की बात करता है और जिसे हिन्दुओं की नाराजगी की परवाह नहीं। कुछ लोग उन्हें मो. अली जिन्ना का आधुनिक संस्करण मानते हैं लेकिन भारत में ध्रुवीकरण की जो दिशा है उसमें जिन्ना जैसी सोच को प्रश्रय और प्रोत्साहन देने वाली केन्द्रीय सत्ता नहीं है। और जो क्षेत्रीय दल बीते कुछ दशकों में मुसलमानों में असुरक्षा का माहौल बनाकर अपनी राजनीतिक स्वार्थ साधना करते रहे वे आज खुद अपनी रक्षा करने में असमर्थ नजर आ रहे हैं। इस प्रकार  के हालातों में मुसलमानों को ओवैसी में अपना भविष्य नजर आने लगा तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। कुछ लोग इसे एक गम्भीर खतरा मान रहे हैं लेकिन नि:संकोच ये कहा जा सकता है कि ओवैसी का उदय देश की उन राजनीतिक पार्टियों की असफलता है जो धर्मनिपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को उल्लू बनाती रहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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