Friday 6 November 2020

नीतीश की घोषणा राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बने



बिहार विधानसभा चुनाव के आखिऱी चरण के चुनाव प्रचार के अंतिम दिवस मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ये घोषणा कि ये उनका अंतिम चुनाव है , चर्चा का विषय बन गई। यदि वे चुनाव की शुरुवात में ऐसा कहते तब शायद वह एक स्वाभाविक बयान होता लेकिन दो चरणों के मतदान के बाद अचानक ऐसा बयान देने से उनके विरोधियों को उन पर हमला करने का अच्छा अवसर मिल गया। राजद के तेजस्वी यादव ने बिना देर लगाए कहा कि वे तो शुरू से ये बात बोलते आये हैं कि नीतीश थक गये हैं और बिहार उनसे सम्भल नहीं रहा। उधर एनडीए में रहते हुए भी नीतीश के विरोध में खड़े हुए चिराग पासवान भी मुख्यमंत्री पर तंज कसने से नहीं चूके जबकि कांग्रेस ने तो इसे नीतीश के रिटायरमेंट से जोड़ दिया। हालांकि जनता दल (यू) ने स्पष्टीकरण दिया कि जब तक जनता चाहेगी तब तक वे सेवा करते रहेंगे। लेकिन साधारण बुद्धि वाला भी ये मान रहा है कि नीतीश जैसे अनुभवी राजनेता द्वारा अंतिम दौर के मतदान के दो दिन पहले अपना अंतिम चुनाव जैसी बात करते हुए मतदाताओं की सहानुभूति हासिल करने का दांव चला गया है। उन्होंने तदाशय की घोषणा पहले दो चरणों के प्रचार के दौरान क्यों नहीं की इसका जवाब साधारण तौर पर तो यही है कि तमाम चुनाव पूर्व सर्वेक्षण चूँकि उनकी इकतरफा जीत का संकेत दे चुके थे जिससे वे पूरी तरह निश्चिन्त थे। लेकिन चुनाव ज्यों-ज्यों आगे बढ़े त्यों-त्यों ये धारणा बहुत तेजी से विकसित होती गई कि बिहार में सत्ता विरोधी लहर बहुत तेज है और उसका केंद्र एनडीए या नरेंद्र मोदी न होकर नीतीश हैं। नीतीश की छवि एक ईमानदार, स्वच्छ और विकासवादी नेता की रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि जनता की नजरों से अचानक वे उतर कैसे गए? और इसका कारण उनके पिछले पांच वर्ष के कार्यकाल में राज्य के खाते में कोई विशेष उपलब्धि नहीं जुड़ना है। चमकी बुखार , कोरोना, बाढ़ और फिर प्रवासी मजदूरों की वापिसी जैसे मुद्दे नीतीश की छवि पर भारी पड़ गए। इसीलिये जैसे ही तेजस्वी ने 10 लाख सरकारी नौकरियों का वायदा किया त्योंही उनकी सभाओं में भीड़ नजर आने लगी। पहले दो चरणों के मतदान में हालाँकि मतदान प्रतिशत उस लिहाज से नहीं बढ़ा जो आम तौर पर सत्ता परिवर्तन के लिए होता आया है लेकिन ये कहना गलत न होगा कि राजद, कांग्रेस और वामपंथियों का महागठबंधन नीतीश कुमार पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में कामयाब दिख रहा है। बिहार चुनाव का परिणाम क्या होगा ये तो आगामी 10 तारीख को पता चलेगा लेकिन नीतीश ने अंतिम चुनाव की बात कहकर समूची राजनीतिक बिरादरी के लिए एक विचारणीय मुद्दा तो रख ही दिया। इस बारे में उल्लेखनीय है कि संभवत: भाजपा पहली ऐसी पार्टी है जिसने चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम आयु सीमा 75 वर्ष तय कर रखी है। नीतीश फिलहाल 69 वर्ष के हैं। लगभग इतनी ही आयु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है। भाजपा के बाहर भी अभी से ये चर्चा होने लगी है कि 2024 में भी यदि श्री मोदी ही सत्ता में लौटते हैं तब क्या वे 75 के होते ही कुर्सी त्याग देंगे और उस सूरत में उनका उत्तराधिकारी कौन होगा? भारतीय संविधान में चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु तो तय है लेकिन अधिकतम न होने से उम्रदराज राजनेता भी बाकायदा मैदान में उतरते हैं। इस वजह से नया नेतृत्व नहीं पनप पाता। भाजपा ने अपने अनेक ऐसे नेताओं को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जिनका स्वास्थ्य ठीक था लेकिन वे 75 वर्ष के हो चुके थे। और किसी भी दल या नेता ने इस तरह की पेशकश नहीं की। संयोगवश इन्हीं दिनों अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव भी हुआ जिसका परिणाम आजकल में आ जाएगा। यद्यपि वहां चुनाव लड़ने की कोई अधिकतम आयु सीमा नहीं है लेकिन कोई भी व्यक्ति लगातार दो बार से ज्यादा राष्ट्रपति नहीं रह सकता। इस प्रावधान की वजह से बिल क्लिंटन और बराक ओबामा 60 साल से भी कम की उम्र में दो बार राष्ट्रपति रहने के बाद चुनावी राजनीति से बाहर हो गए। हमारे देश में तो 50 साल के नेताजी भी खुद को युवा कहते हैं। उस दृष्टि से नीतीश की घोषणा भले ही चुनावी चाल हो लेकिन उसे सकारात्मक तौर पर लिया जाए तो भारतीय राजनीति में एक बड़ा सुधार हो सकता है। बंगाल में 90 साल के ज्योति बसु को ढोते रहने का खामियाजा वामपंथी दलों को इस हद तक भोगना पड़ा कि वे अपनी दम पर चुनाव लड़ने तक की स्थिति में नहीं बचे। बिहार में चुनाव तो 10 तारीख को संपन्न हो जायेंगे किन्तु नीतीश की घोषणा राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनना चाहिए क्योंकि युवा पीढ़ी अब उन नेताओं को देखते-देखते ऊबने लगी है जिनके पास उसे देने के लिए नया कुछ भी नहीं है। नीतीश कुमार को भले ये बात देर से समझ में आई हो लेकिन देश का मतदाता अब राजनीति की प्रचलित संस्कृति से ऊबकर ऐसी नीतियों और नेतृत्व की जरूरत महसूस करने लगा है जो यथास्थितिवाद से निकलकर उन सपनों को साकार कर दिखाए जो उसे हर चुनाव के पहले दिखाए जाते रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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