Thursday 26 November 2020

किसानों का आन्दोलन केवल पंजाब तक ही सिमटकर रह गया



पंजाब से दिल्ली आ रहे किसानों को हरियाणा सरकार ने रोका तो उन्होंने दिल्ली-चंडीगढ़ राजमार्ग को जाम कर दिया। हरियाणा सरकार ने एहतियातन पंजाब जाने वाली बसें रद्द कर दीं। कुछ रेलगाड़ियाँ भी रद्द किये जाने की खबर है। उल्लेखनीय है कृषि संशोधन कानून के विरुद्ध किसानों ने जो आंदोलन शुरू किया वह कहने को पूरे देश में होने  का दावा किया जा रहा था किन्तु धीरे-धीरे वह मुख्यत: पंजाब में ही सिमटकर रह गया। हालाँकि पश्चिमी उप्र के अलावा राजस्थान में भी कुछ हलचल सुनाई देती है लेकिन पंजाब के किसान कुछ ज्यादा ही नाराज बताये जाते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि कांग्रेस शासित पंजाब और छत्तीसगढ़  ने संदर्भित  केन्द्रीय कानूनों को निष्प्रभावी करने के उद्देश्य से अपने कानून बनाकर किसानों के तुष्टीकरण का प्रयास किया लेकिन वे उससे भी खुश नहीं हैं। शुरू -शुरू में तो राहुल गांधी भी किसानों की मिजाजपुर्सी करने पंजाब गये लेकिन बिहार चुनाव में मुंह की खाने के बाद कांग्रेस भी अब किसानों के समर्थन का दिखावा ज्यादा  कर रही है। उसे ये बात समझ में आ गई है कि जैसा वह सोचती थी वैसा नहीं हो सका इसलिए इस पचड़े में पड़ने से कोई लाभ नहीं होगा। यद्यपि केंद्र द्वारा पारित कानूनों के विरोध में काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है और कृषि क्षेत्र के अनेक विशेषज्ञ भी इनकी  विसंगतियों की तरफ ध्यान आकृष्ट कर चुके हैं किन्तु दूसरी  तरफ  ये भी सही है कि आन्दोलन कर  रही राजनीतिक पार्टियां और किसानों के हमदर्द बनकर घूमने वाले अन्य लोग केन्द्रीय कानूनों के विरोध में छोटे और मझोले स्तर के किसानों को आंदोलित कर पाने में विफल रहे हैं। इसका कारण ये समझ में आ रहा है कि इन क़ानूनों से प्रभावित होने वाला तबका बड़े किसानों के साथ ही उन दलालों और आढ़तियों  का है जिन्हें कृषि उपज मंडी नामक वर्तमान व्यवस्था से लाभ है। पंजाब में मंडियों पर कुछ राजनीतिक घरानों का नियन्त्रण होने से वे किसानों को मोहरा बना रहे हैं। कांग्रेस को ये चिंता है कि अकाली दल चूँकि इन क़ानूनों के विरोध में मोदी सरकार और एनडीए दोनों से नाता तोड़ चुका  है इसलिए वह अकेला किसानों की सहानुभूति और समर्थन न बटोर ले जाए। यही वजह है कि अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा बनाये जवाबी कानूनों से किसानों  के  संतुष्ट न होने के बावजूद कांग्रेस  आन्दोलन को हवा दे रही है जिससे उनकी नाराजगी का ठीकरा केंद्र  सरकार और भाजपा के सिर पर ही फूटे। बहरहाल एक बात साफ़ हो गई है कि केन्द्रीय कानूनों के विरोध में देशव्यापी किसान आन्दोलन खड़ा करने में कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। वैसे इस बारे में किसानों के  सबसे पुराने हमदर्द वामपंथियों की गैर मौजूदगी भी विचारणीय है। किसानों के नाम पर राजनीतिक दलों के अपने संगठन तो हैं ही लेकिन उनके अलावा जो अन्य संगठन हैं उनके पास भी सक्षम नेतृत्व का चूँकि अभाव है इसलिये आन्दोलन को व्यापक रूप अब तक नहीं मिल सका। इस बारे में ये भी उल्लेखनीय है कि किसानों के बीच फैलाया जा रहा ये डर भी बेअसर साबित हो रहा है कि अनाज की सरकारी खरीद बंद की जा रही है। खरीफ फसल आने के बाद विभिन्न राज्यों में सरकारी खरीद का काम शुरू हो चुका है। ऐसा लगता है किसानों के बीच नेतृत्वशून्यता की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। इसीलिए वे अपने आन्दोलन को पंजाब से बाहर नहीं ले जा पा रहे। हरियाणा की तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री ने भी ऐलान कर दिया है कि पंजाब के  किसान यदि दिल्ली में घुसेंगे तो उनके विरूद्ध कोरोना रोकने के तहत दंडात्मक कार्र्वाई  की जाएगी। अरविन्द केजरीवाल का ये आदेश वैसे भी समयोचित है जिसे किसानों को आंदोलित करने वाले नेताओं और दलों को समझना चाहिए। दिल्ली सहित उत्तर भारत के अनेक इलाकों में कोरोना की दूसरी लहर आने से संक्रमितों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। एक तरफ  जहां अधिकतम 50 लोगों की उपास्थिति में विवाह करने की अनुमति दी जा रही हो तब हजारों की भीड़ को जमा करना किसानों की जान  खतरे में डालने जैसा है। केंन्द्र सरकार ने किसानों के  साथ बातचीत की पेशकश की थी लेकिन ऐसा लगता है विघ्नसंतोषी ये नहीं चाहते कि कोई समाधान निकले। वैसे भी इस प्रकार के आंदोलनों को लंबा खींचना संभव नहीं होता। किसानों के बीच भी नये कानूनों के विरोध में एक राय नजर नहीं आती। खरीफ फसल के बाद लघु और मध्यम किसान अगली फसल की तैयारी में जुट चुके हैं। जहां  तक विपक्ष का सवाल है तो फिलहाल कोई चुनाव भी सामने नहीं है  इसलिए वह भी व्यर्थ में पसीना बहाने से बच रहा है। यूं भी राजनीतिक दलों के पास कहने को तो ग्रामीण परिवेश से आये सैकड़ों विधायक और सांसद हैं लेकिन सच्चाई ये है कि उनकी प्रतिबद्धता किसान और कृषि की बजाय विकास के उन कामों में ज्यादा होती है जिनसे उनका हित सधता रहे। ये सब देखते हुए पंजाब के किसानों को अपने आंदोलन के तौर-तरीके पर विचार करते हुए संयम से काम लेना चाहिए। ऐसा न हो राजनीतिक दलों के फेर में फंसकर वे न इधर के रहें न उधर के। वैसे भी ये धारणा  सर्वत्र बढ़ती जा रही है कि केन्द्रीय कानूनों का विरोध केवल पंजाब तक ही सीमित रह गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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