Friday 13 November 2020

बिहार की सफलता से बंगाल में भाजपा की उम्मीदें बढ़ीं



एक जमाने में ये उक्ति बहुत प्रचलित थी  कि जो बंगाल आज सोचता है वो हिन्दुस्तान कल सोचेगा | कोलकाता के भद्रलोक से निकला वैचारिक प्रवाह समूचे देश को आकर्षित भी करता था और रोमांचित भी | आजादी के पहले ही इस राज्य में क्रांतिकारी विचारधारा का बीजारोपण हो चुका था जिसका चरमोत्कर्ष नेताजी सुभाषचंद्र बोस के रूप में  देखने मिला | लेकिन ज्ञान - विज्ञान ,कला - साहित्य के साथ ही व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में भी बंगाल एक अग्रणी राज्य होता था | आजादी के बाद से ही साम्यवादी विचारधारा यहाँ की आबोहवा में घुलने लगी | 1962 के  चीनी हमले के बाद जब साम्यवादी पार्टी विभाजित हुई तब बंगाल में चीन समर्थक सीपीएम का वर्चस्व हो गया | आपातकाल के बाद साम्यवादी सरकार बनी जिसका  एक दशक पहले ही  पतन हुआ | ज्योति बसु ने लगभग चार दशक तक मुख्यमंत्री बने रहने का जो कीर्तिमान बनाया वह आज तक अपराजेय बना हुआ है | कांग्रेस इंदिरा  गांधी के ज़माने में वामपंथियों के बेहद करीब आई थी और ज्योति बाबू उनके सलाहकार तक बने | हालाँकि बंगाल में वह मुख्य विपक्ष की  भूमिका में रही | लेकिन कालान्तर में ये धारणा प्रबल होने लगी कि वह सीपीएम की बी टीम है  और इसी मुद्दे पर ममता बैनर्जी ने न सिर्फ कांग्रेस तोड़कर तृणमूल कांग्रेस बनाई बल्कि सीपीएम के अभेद्य किले को ध्वस्त कर दिया | भारतीय राजनीति में वामपंथ के लिए वह एक बड़ा धक्का था | ममता चूँकि वामपंथी आतंक से संघर्ष का प्रतीक थीं इसलिए वे   विकल्प के तौर पर उभरीं और लगातार अपनी  स्थिति मजबूत करती चली गईं | लेकिन उनसे एक गलती ये हुई कि वामपंथियों के संरक्षण में पनपे गुंडातत्व धीरे - धीरे तृणमूल में घुस बैठे और वामपंथी दौर का हिंसक  नजारा फिर बंगाल में लौट आया | ममता के अस्थिर स्वभाव के कारण पहले वे एनडीए के साथ रहीं लेकिन बाद में कभी यूपीए तो कभी तीसरे मोर्चे की सूत्रधार बनने की कोशिश करती दिखीं | इसमें दो मत नहीं हो सकते कि बंगाल के मजबूत साम्यवादी  किले को धराशायी करने का जो कारनामा ममता ने कर दिखाया वह वामपंथियों की  असली  वैचारिक विरोधी भाजपा भी नहीं कर सकी | लेकिन कोलकाता की राइटर्स बिल्डिंग पर साम्यवादी कब्जा हटते ही भाजपा  की उम्मीदें परवान चढ़ने लगीं |  और उसके साथ ही  संघ परिवार ने भी  पूर्वोत्तर राज्यों पर ध्यान केन्द्रित किया | 2014  में नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद अमित शाह ने जो रणनीति बनाई उसके कारण असम , अरुणाचल , मणिपुर और त्रिपुरा जैसे राज्यों में भाजपा की सत्ता कायम हो सकी | लेकिन सबसे उल्लेखनीय  रहा त्रिपुरा में वामपंथ के एक और मजबूत दुर्ग का ढहना | उस सफलता से उत्साहित भाजपा को बंगाल में भी भगवा लहर की सम्भावना नजर आने लगी जो 2019 के लोकसभा चुनाव में वास्तविकता में बदल गयी जब भाजपा ने  लगभग डेढ़ दर्जन सीटें जीतकर ममता बैनर्जी  को चिंता में डाल दिया | यद्यपि 2016 के विधानसभा  चुनाव में पार्टी को मात्र तीन सीटें ही मिलीं लेकिन बीते एक दशक में भाजपा की जड़ें जिस तरह बंगाल के गाँव - गाँव तक फैलीं उसकी वजह कांग्रेस का वामपंथियों से गठबंधन करना रहा | इससे बंगाली जनता को ये डर लगा कि जिस साम्यवादी सत्ता को उसने उखाड़ फेंका वह कहीं कांग्रेस के कन्धों पर सवार होकर वापिस न लौट आये | उल्लखनीय है अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और वामपंथी मिलकर लड़ेंगे | इसमें भाजपा को अपने लिए अनुकूल परिस्थितयां दिखाई दे रही हैं और ममता बैनर्जी भी अब उसे अपना मुख्य  प्रतिद्वंदी मानकर चलने लगी  हैं | बीते कुछ समय से भाजपा कार्यकर्ताओं  की लगातार हो  रही हत्याओं के पीछे तृणमूल कांग्रेस के गुंडों का हाथ होने की आशंका बताई जाती  है | प्रधानमंत्री ने दो दिन पूर्व दिल्ली स्थित भाजपा के मुख्यालय में बिहार की जीत के जश्न में ममता को मौत का खेल बंद करने की जो चेतावनी दी वह इस बात को साबित करती है कि भाजपा आगामी चुनाव में बंगाल की लड़ाई को बहुत ही गम्भीरता से लड़ने जा रही है | अमित शाह द्वारा  200 सीटें जीतने का जो दावा किया जा  रहा है वह उसी का हिस्सा है | स्मरणीय है भाजपा ने मप्र के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय और चुनाव संचालन में सिद्धहस्त अरविन्द मेनन को बंगाल में तैनात कर रखा है | उनके अलावा संघ परिवार भी पूरी गम्भीरता से बंगाल में ममता सरकार के विरुद्ध मोर्चेबंदी में जुटा हुआ है | इसका जमीनी असर भी दिखाई दे रहा है | अनेक तृणमूल नेता भाजपा में आ चुके हैं जिनमें ममता के खासमख़ास भी हैं | गत दिवस मंत्रीमंडल  की बैठक में कुछ मंत्रियों की गैरहाजिरी के बाद ये कयास लगाये जा रहे हैं  कि चुनाव के पहले तृणमूल में  भगदड़ मचेगी | अब सवाल ये है कि क्या जैसा भाजपा दावा कर रही है वैसी सफलता उसे मिलेगी ? बंगाल से जो जानकारी छन - छन कर आ रही है उसके मुताबिक भाजपा वहां ममता को चुनौती देने में सक्षम तो हो गई है | बीते वर्षों  में  जितने भी उपचुनाव या स्थानीय निकायों के निर्वाचन हुए उनमें वही तृणमूल कांग्रेस से मुकाबला करती दिखी जबकि कांग्रेस और वामपंथी घुटनों के बल रेंगते नजर आये | सबसे बड़ी बात जो भाजपा को लाभ पहुंचा रही है वह है बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या पर उसका कड़क रवैया और दूसरा मुस्लिम तुष्टीकरण के विरुद्ध मोर्चेबंदी | इन दोनों मुद्दों पर ममता चूँकि पूर्ववर्ती वामपंथी  शासन के साथ ही कांग्रेस के नक़्शे कदम पर चल रही हैं इसलिए जनमानस में ये भाव व्याप्त होने लगा है कि ममता को सत्ता सौंपने से नीतिगत मामलों में यथास्थिति कायम है | इन सब कारणों से बंगाल में भाजपा के प्रयासों को समर्थन मिलने लगा है | यदि भाजपा और संघ परिवार इसे मतों में बदल सका तो फिर त्रिपुरा जैसा चमत्कारिक नतीजा आ सकता है | वैसे तो अभी से चुनाव परिणाम के बारे में पक्के तौर पर कुछ  भी कह पाना जल्दबाजी होगी लेकिन ये कहना  गलत न होगा कि ममता मनोवैज्ञानिक दबाव में आकर खीजने लगी हैं | उनकी समस्या ये है कि वे विपक्षी एकता की धुरी बन नहीं सकीं | यूँ भी तीसरा मोर्चा नाम की परिकल्पना अपनी मौत मर चुकी है | बंगाल में कांग्रेस और साम्यवादियों के साथ होने से ममता के समर्थन से बाकी विपक्षी दल कन्नी काटेंगे | और इसी का लाभ  भाजपा  को मिलना तय है | ममता की सत्ता रहेगी या बचेगी ये तो चुनाव नतीजे बताएँगे लेकिन इतना तय है कि बंगाल में भाजपा का उभार  जिस तेजी से हो रहा है उसे देखते हुए किसी चमत्कार की उम्मीद करना निरर्थक नहीं होगा | बिहार में जीत के बाद भाजपा और नरेंद्र मोदी का ग्राफ निश्चित रूप से ऊँचा हुआ है और उससे भी बड़ी बात है भाजपा के समर्थकों के मनोबल में वृद्धि होना जो चुनाव को काफी हद तक प्रभावित करेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


No comments:

Post a Comment