Saturday 10 March 2018

इच्छा मृत्यु जबर्दस्ती का शिकार न हो जाए

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गत दिवस इच्छा मृत्यु के सम्बंध में जो बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाया गया वह भारतीय सन्दर्भों में नया हो सकता है किंतु दुनिया के तमाम देशों में तत्सम्बन्धी व्यवस्था पहले से ही है। जीवन की तरह ही मरने को भी अधिकार मानने की अर्जियों पर चली लंबी कानूनी जिरह के उपरांत आखिर सर्वोच्च न्यायालय ने जीने के अधिकार को और विस्तृत करते हुए गरिमापूर्ण मृत्यु से जोड़ते हुए कहा कि स्वस्थ रहते हुए व्यक्ति इच्छा मृत्यु की वसीयत भी कर सकता है। इस मसले का आधार वे लोग हैं जिनके लिए जिंदा रहना केवल सांस चलना जाता है। अस्पताल में वेंटीलेटर या अन्य जीवन सहायक प्रणाली पर पड़े-पड़े व्यक्ति का जीवन एक तरह से उद्देश्यहीन रह जाता है। अब प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति के अनुसार वानप्रस्थ की व्यवस्था भी नहीं रही। औसत आयु बढऩे और एकाकी परिवारों की वजह से भी वृद्धावस्था सुख की बजाय एक समस्या बनती जा रही है। संयुक्त परिवार भारतीय समाज की रीढ़ हुआ करते थे किंतु अब उनका अस्तित्व खतरे में पड़ता नजर आ रहा है। हम दो - हमारे दो से हटकर हम दो -हमारा एक की मानसिक़ता जोर पकड़ रही है। जन्म देने के बाद पाल-पोसकर सुयोग्य बना देने वाले माता-पिता को बोझ मानने वालों की बढ़ती संख्या ने वृद्धाश्रम को एक अनिवार्य आवश्यकता बना दिया है। इसकी वजह से ऐसे बुजुर्गों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है जिन्हें अकेलेपन और बीमारी के कारण जि़न्दगी बोझ लगने लगी है और इस कारण से बरबस उनके मुंह से निकलता है , भगवान उन्हें उठा क्यों नहीं लेता। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का सन्दर्भित फैसला किसी को आत्महत्या की अनुमति नहीं देता। इच्छा मृत्यु की व्यवस्था उसी सूरत में  वैध होगी जब इंसान का जि़ंदा रहना असहनीय या निरर्थक रह जाए। मसलन पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी लम्बे समय तक कोमा में पड़े रहे। चूंकि उनके इलाज पर करोड़ों रुपये भारत सरकार खर्च कर रही थी इसलिए वे कोमा जैसी स्थिति में भी जीवनरक्षक प्रणाली की मदद से कई वर्षों तक जीवित रखे गए। वर्तमान में पूर्व केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज़ और जसवंत सिंह भी उसी स्थिति में हैं जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में जि़ंदा लाश कहा जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले का आशय मृत्यु को व्यक्ति की मनमर्जी पर छोड़ देने का कदापि नहीं है। इसका उद्देश्य उन लोगों को इच्छा मृत्यु का अधिकार देना मात्र है जिनके लिए जि़न्दगी एक बोझ बन जाए या उसका कोई अर्थ ही न रहे। देश में अनगिनत लोग ऐसे होंगे जिनकी सांस तो चल रही है लेकिन आस खत्म हो चुकी है। अक्सर सुनाई देता है कि फलां व्यक्ति की जि़ंदगी नर्क बनकर रह गई है। यद्यपि इसका आशय अलग-अलग होता है फिर भी निरुद्देश्य और निरर्थक जीवन चूंकि मृत्यु से भी बदतर होता है इसलिए जैसा सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सम्मानजनक मृत्यु भी एक तरह का मौलिक अधिकार होना चाहिए। इस हेतु स्वस्थ अवस्था में ही वसीयत कर देने की सहूलियत देकर सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्यवस्था की वह काफी हद तक उचित है किंतु देखने वाली बात ये होगी कि कोमा की स्थिति में आ चुके किसी व्यक्ति का इलाज कराने में असमर्थ परिजन इस प्रावधान का दुरूपयोग न कर सकें। हमारे देश में पारिवारिक धन-संपत्ति हासिल करने के लिए भाई-भाई में विवाद तो होता ही है लेकिन माता-पिता से भी रंजिश हो जाती है। कई बुजर्गों की तो इस कारण हत्या तक कर दी गई। वृद्धावस्था में बेसहारा होने के भय से अनेक बुजुर्ग दंपत्ति बेटे-बहू के अत्याचार सहने बाध्य होते हैं। सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की मंशानुसार इच्छा मृत्यु सम्बन्धी कानून बनाने से पहले उन सभी परिस्थितियों का अनुमान लगा लेना चाहिए उसकी वसीयत को लेकर उत्पन्न हो सकती हैं क्योंकि हमारे यहां की सामाजिक और पारिवारिक स्थितियां पश्चिमी देशों और संस्कृति से सर्वथा भिन्न हैं। बढ़ती भौतिकतावादी सोच, शहरीकरण और संयुक्त परिवारों के विघटन जैसे कारणों ने कई बुजुर्गों का जीवन समस्याग्रस्त बना दिया है। कई दम्पत्ति ऐसे हैं जिनकी अधिक आयु उनके लिए असहनीय हो जाती है लेकिन इसके बाद भी देश का कानून आत्महत्या को उचित नहीं मानता। ठीक उसी तरह बीमारी या शारीरिक  अशक्तता की वजह से किसी वृद्ध को जबरन मौत के मुंह में धकेलने का अधिकार न परिजनों को होता है और न ही चिकित्सक को। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की भावना मुख्यरूप से इच्छा मृत्यु को उन परस्थितियों में वैधानिक स्वरूप देने की है जब साँसों का सफर बोझ से भी बढ़कर असहनीय अथवा निरर्थक होकर रह जाए। महाभारत काल में भीष्म पितामह को  इच्छा मृत्यु का वरदान होने से उन्होंने सूर्य के उत्तरायण तक आने की प्रतीक्षा की और फिर प्राण त्यागे। अनेक जैन मुनि भी मृत्यु की कामना से अन्न जल त्याग देते हैं। कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय ने इच्छा मृत्यु के साथ सम्मानजनक शब्द जोड़कर काफी कुछ स्पष्ट तो कर दिया है किन्तु सरकार के लिए इस बारे में कानून बनाना आसान नहीं है क्योंकि इच्छा मृत्यु की वसीयत या असामान्य परिस्थितियों में उसके निर्णय का अनुचित उपयोग न हो ये चिंता करना ही होगी क्योंकि आज द्वापर का युग नहीं रह गया कि शरशय्या पर पड़े भीष्म पितामह से रोज शाम उपदेश सुनने परिवार के सदस्य उपस्थित हों। आज के अर्थप्रधान युग में जब रिश्तों की अहमियत और पवित्रता पर स्वार्थ, लोभ-लालच का मुलम्मा चढ़ गया हो तब इच्छा मृत्यु की वसीयत जबरन मृत्यु का औजार न बन जाए ये चिंता का विषय है। परिवार के बुज़ुर्गों की सेवा को कर्तव्य की बजाय बोझ मानने वाली पीढ़ी इस फैसले का अपने स्वार्थ हेतु दुरुपयोग न करे इसकी फिक्र भी कानून बनाते समय ही करनी होगी, वरना कहीं ऐसा न हो कि इच्छा मृत्यु की आड़ में जबरन मृत्यु गले में डाल दी जाए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment