Saturday 24 March 2018

अन्ना का सम्मान तो है सुनवाई नहीं

अन्ना हजारे फिर अनशन पर बैठ गए। सरकार को चुनौती भी दे डाली। किसी राजनेता को मंच पर न चढऩे देने की जि़द भी दिखा दी। मुद्दे कुछ नए और कुछ बरसों पुराने हैं। हां, सहयोगी जरूर बदले - बदले से हैं। किसान भी उनका साथ देने आ गए हैं। संसद के सत्र के कारण दिल्ली में वैसे भी गहमागहमी है। विपक्षी एकता की नई - नई मुहिम चल पड़ी हैं। मोदी सरकार 2019 के चुनाव की तैयारी में जुटी है वहीं काँग्रेस अपने पुनरुद्धार के लिए हाथ पांव मार रही है। ममता बैनर्जी और कुछ अन्य नेता तीसरे मोर्चे के पुनर्जन्म के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे में अन्ना के गांधीवादी अनशन पर कौन ध्यान देगा और क्यों देगा ये बड़ा सवाल है। दिल्ली में रामलीला मैदान के उनके पिछले बड़े आयोजन में लाखों की भीड़ उमड़ी थी। मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना के नारे सर्वत्र सुनाई देने लगे। 1974 के लोक नायक जयप्रकाश की याद इस गांधीवादी वृद्ध ने ताजा कर दी। इसके आगे वही हुआ जो गांधी, विनोबा और जयप्रकाश के साथ हो चुका था। अन्ना के कंधों पर चढ़कर कुछ लोग सत्ता की कुर्सी पर जा बैठे। लोकपाल ठंडे बस्ते में चला गया और भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩे वाले सूरमा खुद भ्रष्टाचार के गंदे नाले में डुबकी लगाने में व्यस्त हो चले। लाखों की जनसभा से निकलकर बेचारे अन्ना पूरी तरह अपने गांव में सिमटकर रह गए। उनके प्रति कोई दीवानगी नहीं बची। भले ही सब उनका सम्मान करते हों किन्तु उनके उपदेश उबाऊ लगने लगे। सवाल ये है कि अन्ना का ताजा आंदोलन क्या पहले जैसा प्रभाव छोड़ सकेगा और क्या केजरीवाल एंड कम्पनी के सहयोग के बगैर वे वैसा दबाव बना पाएंगी। जिन टीवी चैनलों ने अन्ना का लाइव कवरेज करते हुए अपनी टीआरपी बढा ली थी वे इस बार भी क्या उन्हें वैसा ही महत्व देंगे? सवाल और भी हैं किंतु अन्ना खुद उत्तर देने की स्थिति में नहीं रहे क्योंकि लाख ईमानदारी के बावजूद वे जिस तटस्थता का नाटक करते हैं वह उन्हें छोडऩा होगी। जयप्रकाश जी ने 1974 में सामने आकर नेतृत्व किया तो देश में बड़े परिवर्तन की बुनियाद पड़ गई। अन्ना उस अवसर को चूक गए। यदि वे आम आदमी पार्टी को ही आशीर्वाद देते रहते तब वह इस तरह पथभ्रष्ट न हुई होती और केजरीवाल भी तानाशाह न बन पाते। यही सब देखते हुए अन्ना के इस प्रयास की सार्थकता समझ में  नहीं आती। उन्हें ये स्वीकार कर लेना चाहिये कि हाथ आया एक बेहतरीन अवसर उन्होंने गंवा दिया और बीते कुछ बरसों में देश जितनी तेजी से बदल रहा  है उसमें उन जैसे लोगों के लिए जगह नहीं बची है। न वे तेज गति से दौड़ पाएंगे और न ही आगे बढ़ गए लोग रुककर उनके साथ आने की प्रतीक्षा करेंगे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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