Saturday 31 March 2018

सेवानिवृत्ति : बेरोजगारों को भाजपा से ज्यादा अपनी चिंता

सेवानिवृत्ति की आयु सीमा अचानक 60 से बढाकर 62 वर्ष करने का ऐलान कर मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन हजारों सरकारी कर्मचारियों को खुशियों का खजाना सौंप दिया जो 60 वर्ष की आयु तक पहुंचकर रिटायर होने के कगार पर आ गए हैं। ये घोषणा आज से निर्णय का रूप ले लेगी अथवा इस पर अमल होने में कुछ समय लगेगा वह स्पष्ट होना शेष है किंतु ये तो तय है कि बड़ी संख्या में राज्य सरकार के वे कर्मचारी इससे फायदे में रहेंगे जिनकी सेवानिवृत्ति का समय नज़दीक है। मोटे अनुमान के अनुसार तकरीबन 33 हज़ार लोगों को इसका लाभ मिल जाएगा। लेकिन जो विस्तृत जानकारी आई उसके अनुसार तो इस दरियादिली के पीछे अनेक कारण हैं। पदोन्नति में आरक्षण को लेकर मप्र उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध राज्य सरकार की अपील सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है। मुख्यमंत्री की घोषणा के पीछे ये भी बड़ी वजह है वरना सैकड़ों कर्मचारी पदोन्नति के बिना सेवानिवृत्त हो जाते। कहा जा रहा है इससे 33 हजार कर्मचारी लाभान्वित होंगे वहीं उनके परिवारों को भी इसका अप्रत्यक्ष लाभ मिलेगा। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार को सेवानिवृत्ति पर देने वाले 6600 करोड़ की राशि का भुगतान करने हेतु मोहलत मिल गई जिससे वह अन्य आर्थिक बोझ वहन कर सकेगी। इस फैसले से प्रदेश के पूरे सरकारी अमले में खुशी की लहर फैल गई होगी किन्तु दूसरा पहलू ये है कि उन बेरोजगारों की उम्मीदों पर पानी भी पड़ गया होगा जो सरकारी नौकरी के सपने देखते आ रहे हैं। यद्यपि जिस संख्या में कर्मचारी सेवानिवृत्त होते रहे हैं उतनी भर्तियां नहीं की गईं। कंप्यूटरीकरण, आउटसोर्सिंग और संविदा पर नियुक्तियों के चलते कर्मचारियों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है। अनेक कामों के लिए निजी क्षेत्र की सेवाएं प्राप्त करने के चलन से भी सरकारी अमला घटा है जिसकी  वजह से नौकरियां पहले जैसी नहीं मिल पातीं लेकिन उसके बाद भी बेरोजगार युवाओं का बड़ा वर्ग ऐसा है जिसकी पहली पसंद सरकारी नौकरी होती है। प्रदेश का लोकसेवा आयोग जो परीक्षाएं लेता है उनके परिणाम सालों बाद आने से भी बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि होती गई। यही वजह है कि शिवराज सिंह की ताजा घोषणा से राज्य सरकार का मौजूदा अमला जहां गद्गद् है वहीं सरकारी नौकरियों की चाहत में प्रौढ़ होते हज़ारों युवाओं की उम्मीदों पर तुषारापात हो गया है। हालांकि शासकीय सेवाओं के विभिन्न वर्गों में सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 62 से 65 वर्ष तक है किंतु अधिकतर कर्मचारी-अधिकारी 60 पर ही निवृत्त होते रहे हैं। मुख्यमंत्री की इस घोषणा का विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक विश्लेषण भी किया जा रहा है। ये कहना गलत नहीं होगा कि आर्थिक एवं वैधानिक कारणों के अलावा इस घोषणा के पीछे मुख्यमंत्री का उद्देश्य सरकारी अमले का तुष्टीकरण है जिससे वह सत्तारूढ़ दल की छवि खराब न करे। चुनाव प्रक्रिया में शासकीय मशीनरी की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। लेकिन शिवराज सिंह की सन्दर्भित घोषणा से भले ही सेवानिवृत्त होने जा रहे कर्मचारियों और उनके परिजनों में हर्ष की लहर हो किन्तु लाखों बेरोजगारों के मन में व्याप्त निराशा यदि गुस्से में बदली तब भाजपा को उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। एक समय था जब सरकारी नौकरी बेरोजगारों का सबसे बड़ा सहारा हुआ करती थी किन्तु उदारीकरण के बाद से सरकार की सोच पर भी निजी क्षेत्र की तरह मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति हावी होने लगी। दरअसल स्थापना व्यय के बेतहाशा बोझ ने सरकारी खजाने को खाली करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। हाल ही में मप्र के वित्तमंत्री जयंत मलैया ने कहा भी था कि सरकारी राजस्व का 80 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा वेतन, भत्ते और पेंशन पर खर्च हो जाता है। औसत आयु बढ़ जाने से सेवानिवृत्त कर्मचारियों और अधिकारियों को मिलने वाली पेंशन एवं अन्य आर्थिक सुविधाएं असहनीय होती जा रही हैं। इसीलिए अब नई सेवा शर्तों में पेंशन का स्वरूप बदल दिया गया है। बावजूद इसके स्थापना व्यय ने सरकारों को को सिर से पांव तक कजऱ् में डुबो दिया। मप्र सरकार पर भी बेतहाशा ऋण चढ़ा हुआ है। कटु सत्य ये है कि विकास के तमाम कामों के लिए सरकारें अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से ऋण लेती जा रहीं हैं जिसकी अदायगी कालांतर में जनता के सिर पर बड़े बोझ का रूप लिए बिना नहीं रहेगी। शिवराज सिंह ने हालांकि बड़ी ही सोची-समझी चाल चली है जिसका चुनावी फायदा उन्हें मिल सकता है किंतु लगे हाथ उन्हें बेरोजगार युवाओं के भविष्य को सुरक्षित करने के प्रति भी कोई कदम उठाना चाहिए था। वैसे अब देश भर में आवाज उठने लगी है कि सरकारी सेवानिवृत्ति की आयु सीमा फिर से 58 वर्ष कर दी जाए जिससे नई पीढ़ी को समय रहते रोजगार मिल सके। विकास के तमाम दावे और उपलब्धियों को बयां करने वाले सरकारी आंकड़े  उस समय अर्थहीन लगने लगते हैं जब पढ़े-लिखे लाखों नौजवान हर साल सरकारी नौकरी के इंतज़ार में आयु सीमा पार कर जाते हैं। किसी भी देश की युवा पीढी यदि बिना काम के घूमने मजबूर हो तब उसकी प्रगति को खोखला ही कहा जाएगा। दुर्भाग्य से हमारे देश में भी यही हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया भर में घूम-घूमकर भारत को युवाओं का देश बताते फिरते हैं किंतु इनमें से अधिकतर के पास काम नहीं होने से देश उस रफ्तार से आगे नहीं बढ़ पा रहा जिसकी उम्मीद भी है और ज़रूरत भी। उस लिहाज से श्री चौहान की ताजा घोषणा कहीं खुशी, कहीं गम का माहौल पैदा करने वाली है। अच्छा होता वे बेरोजगार नई पीढ़ी को भी कुछ सौगात दे देते। मुख्यमंत्री को ये नहीं भूलना चाहिए कि 2018 और 2019 में पहली मर्तबा वे युवा भी मतदान करेंगे जिनका जन्म क्रमश: 20 वीं सदी के अंतिम एवं 21 वीं सदी के पहले साल में हुआ था और ये भी कि इस उम्र के मतदाता को भाजपा से ज्यादा अपने भविष्य की चिंता रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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