Monday 5 March 2018

मेघालय: पहला पत्थर वो मारे जिसने .......

पूर्वोत्तर के जिन तीन राज्यों के चुनाव परिणाम परसों आए उनमें से त्रिपुरा और नागालैंड में तो कांग्रेस चूंकि शून्य में अटक गई इसलिये उसके पास न कहने को कुछ बचा और न ही करने के लिए लेकिन मेघालय में 21 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरने से उम्मीद रही कि उसे सरकार बनाने का अवसर मिलेगा किन्तु भाजपा ने हर कीमत पर सरकार बनाने की रणनीति को दोहराते हुए बिना देर किये गैर कांग्रेसी दलों को बटोरकर राज्यपाल के पास बहुमत के  समर्थन का दावा कर दिया। कोशिश तो कांग्रेस ने भी कम नहीं की लेकिन उसके दिन चूंकि बुरे चल रहे हैं इसलिए वह पर्याप्त समर्थन नहीं जुटा सकी और उसकी खीझ भाजपा पर आरोप लगाने के रूप में निकालते हुए ये प्रचारित करने में जुट गई कि 21 विधायक होने पर पर भी 2 विधायकों वाली भाजपा को सरकार बनाने का अवसर दिया जाना जनमत की उपेक्षा है। सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर फौरन बहस चल पड़ी किन्तु सच्चाई कुछ हटकर है। मेघालय में 21 सीटें होने के बावजूद भी यदि कांग्रेस को अवसर नहीं मिला तो उसकी वजह ये रही कि वह बहुमत के लिए जरूरी आंकड़ा जुटाने में विफल रही और सरकार भाजपा की नहीं अपितु एनपीपी के नेतृत्व में उस गठबंधन के बनने की संभावना है जिसमें शामिल छोटे-छोटे दलों ने कांग्रेस को रोकने हाथ मिला लिया। 19 सीटों वाली एनपीपी के मेघालय और केंद्र दोनों जगह एनडीए का हिस्सा होने से इस गठबंधन को अप्राकृतिक या अवसरवादी नहीं कहा जा सकता। इस कवायद में भाजपा की भूमिका निश्चित रूप से महत्वपूर्ण रही किन्तु कांग्रेस को ये स्वीकार करना होगा कि उसका प्रबंधन एक बार फिर विफल हो गया। भले ही वह भाजपा पर खरीद फरोख्त का आरोप लगाए किन्तु बहुमत के लिए 10 विधायकों का जुगाड़ करने के लिये उसे भी वही सब करना पड़ता जो दूसरे पक्ष ने किया।  यदि कांग्रेस को लगता है कि भाजपा ने राज्यपाल पर दबाव डालकर उसे उसके संवैधानिक अधिकार से वंचित कर दिया तब भी उसके सामने विधानसभा में शक्तिपरीक्षण के दौरान सरकार को घुटनाटेक करवाने का अवसर है। राज्यपाल के पास जिन विधायकों के हस्ताक्षरयुक्त समर्थन का पत्र एनडीए ने सौंपा यदि वे उसका खण्डन कर कांग्रेस का समर्थन कर दें तब महामहिम को कांग्रेस के दावे पर विचार करना चाहिए किन्तु अब तक मिली जानकारी को आधार मानें तो वह अपने पक्ष में पर्याप्त संख्याबल नहीं जुटा सकी। रही बात भाजपा के 2 विधायकों के दम पर सरकार बनाने की तो वह महज भ्रम है। उसका मात्र एक मंत्री नई गठबंधन सरकार में शामिल होगा जिसके मुख्यमन्त्री कोनरॉड संगमा होंगे जो पूर्व लोकसभाध्यक्ष स्व. पी.ए. संगमा के पुत्र हैं। स्मरणीय है स्व.संगमा ने शरद पवार के साथ मिलकर सोनिया गांधी के विदेशी मूल के विरोध में कांग्रेस छोड़कर एनसीपी बनाई थी। उनकी बेटी अगाथा बाद में मनमोहन सरकार में मंत्री भी बनी किन्तु बेटे कोनरॉड ने एनपीपी नामक नया क्षेत्रीय दल बनाकर एनडीए से नाता जोड़ लिया और इस वजह से त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में उनका भाजपा के साथ चला जाना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। इन सबसे हटकर देखा जाए तो आज की राजनीति सिद्धांतों की बजाय सुविधा और समन्वय पर आधारित होती जा रही है। कांग्रेस ने पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू को गोद में बिठाने में जरा भी परहेज नहीं किया जो कुछ दिन पहले तक राहुल गांधी का जमकर मजाक उड़ाया करते थे। गुजरात में हार्दिक पटैल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी का सहारा लेने में भी उसे संकोच नहीं हुआ। बिहार में लालू उसके प्रिय बने हुए हैं तो उप्र में राहुल गांधी ने अखिलेश यादव से जो गठबंधन किया उसमें भी कोई सिद्धांत न होकर केवल अवसर को भुनाने का दाँव था। यदि कोनरॉड संगमा कांग्रेस के साथ आते तब वह भी केवल भाजपा को रोकने का प्रयास ही होता। कुल मिलाकर हो ये रहा है कि सियासत करने वालों का एकमात्र उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाना हो गया है। कहे कोई कुछ भी लेकिन सिद्धांत अब केवल निपोरने की चीज रह गए हैं। भाजपा को पूर्वोत्तर राज्यों में अपना अस्तित्व कायम करने के लिए वहां मौजूद क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करना मज़बूरी है और यही कमोबेश कांग्रेस भी करती है। मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी होने पर भी कांग्रेस यदि सरकार नहीं बना रही तो उसे अपनी संगठनात्मक और प्रबंधकीय क्षमता की समीक्षा करनी चाहिए। पूर्वोत्तर के राज्यों में कभी कांग्रेस राष्ट्रीय मुख्यधारा की प्रतिनिधि हुआ करती थी किन्तु बीते कुछ वर्षों में भाजपा उसकी जगह लेती जा रही है तो ये कांग्रेस की कमजोरी ही है जो अपना जनाधार खोती जा रही है। रही बात राज्यपालों के केंद्र के एजेंट के तौर पर काम करने की तो इस बुराई की जन्मदाता भी कांग्रेस ही है। भाजपा को दूध का धुला कहना तो आज की स्थिति में गलत होगा किन्तु कांग्रेस के प्रति यदि सहानुभूति क्रमश: घटती जा रही है तो उसके लिए वही जिम्मेदार है क्योंकि उसने जिस राजनीतिक संस्कृति को मज़बूत किया वह भारतीय राजनीति में बतौर कर्मकाण्ड स्थापित होकर रह गई  है। मेघालय में जो हुआ वह पहली मर्तबा नहीं है और न ही अन्तिम। रही बात आरोप-प्रत्यारोप की तो ईसा मसीह का ये कथन इस संदर्भ में प्रासंगिक है कि पहला पत्थर वो मारे जिसने कभी कोई अपराध न किया हो ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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