Wednesday 28 February 2018

समाचार माध्यम : आत्मावलोकन का समय

अभिनेत्री श्रीदेवी का पार्थिव शरीर कल रात्रि मुंबई आ गया। उनकी मौत को लेकर चल रही अटकलों का सिलसिला भी फिलहाल थम गया क्योंकि दुबई पुलिस ने बाथ टब में गिरने की वजह से मृत्यु की पुष्टि करते हुए प्रकरण की फाइल बंद करते हुए उनके पति बोनी कपूर पर व्यक्त किये संदेह को दूर कर दिया।  हालांकि अभी रहस्य की कई परतें खुलना शेष हैं क्योंकि सांसद डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने श्रीदेवी की हत्या और उसमें दाऊद इब्राहीम जैसी किसी भूमिका की सुरसुरी छोड़कर ये संकेत कर दिया कि इस दुखांत के बाद भी पटकथा के कुछ हिस्से सामने आएंगे। बहरहाल इस दुखद घटना को लेकर इलेक्ट्रॉनिक समाचार माध्यमों की अति सक्रियता और अतिरंजित प्रसारण को लेकर एक बार फिर बहस चल पड़ी  है। सोशल मीडिया पर यूँ तो पक्ष-विपक्ष दोनों ही आपस में भिड़े किन्तु अधिकाँश लोगों ने टीवी चैनलों में चल रहे टीआरपी के खेल की आलोचना ही की। आम और खास दोनों तरह के लोगों ने टीवी चैनलों द्वारा समाचार को व्यापार बनाए जाने पर ऐतराज जताया तो कुछ ऐसे भी रहे जो ये कहने से बाज नहीं आए कि क्या दिखाया जाए, क्या नहीं ये तो चैनलों का अधिकार है और यह भी की जिस सामग्री की लोग आलोचना करते हैं उसे ही देखते भी हैं। ये पहला अवसर नहीं है जब टीवी चैनलों द्वारा किसी प्रसंग को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देने पर उंगलियां उठी हों। किसी भी सनसनीखेज खबर को चैनल वाले तब तक घसीटते हैं जब तक कोई दूसरा वैसा ही मुद्दा हाथ न आ जाए। रही बात किसी समाचार को अतिरंजित महत्व देने या अनावश्यक खींचने की तो इसके लिए समाज के मानसिक स्तर को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये। फिल्मों में  खुलेपन के चलते मर्यादाओं का उल्लंघन करने के आरोप पर स्व.राज कपूर ने एक बार कहा था कि उसकी आलोचना करने वाले भी ब्लैक में टिकिट खरीदकर सिनेमा देखते हैं। टीवी चैनल वालों का भी यही तर्क है कि यदि पसंद नहीं तो देखते क्यों हो? कई बरस पहले तत्कालीन उपराष्ट्रपति कृष्णकांत के निधन पर एक टीवी चैनल का संवाददाता उनके निवास से रिपोर्टिंग कर रहा था। स्टूडियो में बैठे एंकर ने अचानक उससे पूछ लिया, वहां का माहौल कैसा है? बाद में जनसत्ता के प्रधान संपादक स्व. प्रभाष जोशी ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि जिस घर में किसी का शव रखा हो वहाँ के माहौल के बारे में पूछना मूर्खता नहीं तो और क्या था? प्रभाष जी अपनी बेबाक और तीखी टिप्पणियों के लिए विख्यात थे। वह दौर समाचार पत्र और पत्रिकाओं का था जिसे अब प्रिंट मीडिया कहा जाता है। टीवी समाचार पर भी दूरदर्शन का एकाधिकार था। लेकिन केबल टीवी के आगमन ने इस क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया और देखते-देखते अंग्रेजी और हिंदी के अलावा प्रादेशिक भाषाओं के समाचार चैनल भी शुरू हो गए। इसकी वजह से समाचारों का प्रवाह , सम्प्रेषण की गति और निरंतरता तो बढ़ी लेकिन गुणवत्ता का ह्रास हुआ। क्योंकि समाचार पत्र और पत्रिकाओं का प्रकाशन तो एक निश्चित समय पर ही होता है जबकि टीवी चैनलों ने 24&7 का जो लबादा ओढ़ लिया वह उनके लिए बोझ जैसा साबित हुआ। यही वजह है कि उनके पास उसी समाचार को मसाला लपेटकर दिखाने और फिल्म निर्माता की तरह उसे बॉक्स ऑफिस पर हिट करने की मजबूरी आ गई। यहीं से शुरु हुआ टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) का खेल। टीवी चैनलों को मिलने वाले विज्ञापनों का आधार भी टीआरपी ही होती है। इसलिए समाचार का व्यापारीकरण करने का चलन धीरे-धीरे समाचार की मूल आत्मा पर हावी हो गया। श्रीदेवी की मृत्यु ही नहीं किसी अन्य सनसनीखेज घटना पर भी टीवी समाचार चैनलों का यही  रवैया रहता है। पत्रकारिता के भविष्य और पवित्रता के लिए ये कितना अच्छा या बुरा है इस पर बहस और विवाद दोनों चलते रहते हैं। टीवी एंकरों की सितारा छवि अन्य समाचार माध्यमों के लिए ईष्र्या का कारण भी बन गई है। राष्ट्रीय स्तर के प्रिंट मीडिया में कार्यरत पत्रकार को भी वह प्रसिद्धि और पहिचान नहीं मिल पा रही जितनी किसी टीवी पत्रकार को कम समय में मिल जाती है। समाचार जगत ने जितनी तेजी से उद्योग का दर्जा  लिया वह भी चिंता और चिंतन दोनों का विषय है क्योंकि स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत है। टीवी चैनलों की देखादेखी अब समाचार पत्र-पत्रिकाएं भी अपनी स्वाभाविकता छोड़कर कृत्रिमता की ओर भाग रहे हैं जिससे समाचार अब शो केस में विक्रय हेतु सजाकर रखी वस्तु की तरह हो गए हैं। जहां तक पाठक और दर्शकों का प्रश्न है तो वे भी उपभोक्तावाद के इस बवंडर में उडऩे मजबूर हैं। जिस तरह राजनीतिक नेताओं के लिए सब.... हैं जैसी टिप्पणियां सुनाई  देती हैं ठीक वैसे ही अब समाचार माध्यमों के बारे में सुनाई देने लगा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ग्लैमर ने पत्रकारिता में गुणात्मक और वैचारिक बदलाव को जन्म दिया है जिसका परिणाम अंतत: टीआरपी के रूप में सामने आ रहा है। किसी समाचार की सहज और ईमानदार प्रस्तुति करने वाले चैनल की दशा दूरदर्शन जैसी हो जाती है। ये स्थिति समाचार माध्यमों के भविष्य के लिए कितनी अच्छी या बुरी है इसका मंथन करने के साथ ही सोचने वाली बात ये है कि पत्रकारिता अब विशुद्ध पत्रकारों के हाथ से निकलकर पूरी तरह से बाज़ारवादी औद्योगिक संस्कृति की गिरफ्त में आती जा रही है जिसके कारण उसकी विश्वसनीयता पर खतरा बढ़ते-बढ़ते इस हद तक आ पहुंचा कि 'बिकाऊ मीडियाÓ जैसी गाली उसके लिए धड़ल्ले से प्रयुक्त होने लगी। जिसका प्रतिवाद न कर पाना ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि समाचार माध्यमों से जुड़े लोग अपराधबोध से दबे हुए हैं। उदारीकरण ने समाज की सोच को हर तरह से प्रभावित किया है और समाचार माध्यम भी उससे अछूते नहीं रह सकते किन्तु इस पेशे से जुड़े लोगों को ये सोचना चाहिए कि अब जनमत को प्रभावित करने की उनकी ताकत कम होने लगी है क्योंकि समाज ने अपना खुद का माध्यम अपना लिया है जिसे सोशल मीडिया कहा जा रहा है। दूसरों की छीछालेदर करने के स्वयंभू अधिकार से सम्पन्न समाचार माध्यमों को ये जान लेना चाहिए कि उनकी टांग खींचने वाले भी हर घर और तबके में मौजूद हैं। सूचना क्रांति का ये विस्फोट परमाणु शक्ति की खोज जैसा है जो सृजन और विध्वंस दोनों का कारण बन सकता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment