Tuesday 27 February 2018

अभिभाषण : रसविहीन फल होकर रह गए


मप्र विधानसभा का बजट सत्र गत दिवस राज्यपाल महोदय के अभिभाषण से प्रारम्भ हुआ। संसदीय परम्परा में प्रति वर्ष एक बार महामहिम सदन को संबोधित करने पधारते हैं और सरकार द्वारा लिखकर दिए भाषण को अक्षरश: बांच देते हैं। बाद में सदन उस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित करता है। चूंकि अभिभाषण का एक- एक शब्द सरकार रचित होता है इसलिए सत्ता पक्ष उसका गुणगान करता है तो विपक्ष उसे तथ्यहीन और झूठ का पुलिंदा बताकऱ उसकी धज्जियां उड़ाने से बाज नहीं आता। ये सिलसिला आज़ादी के बाद से अनवरत चलता आ रहा है। संसद में राष्ट्रपति दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हैं जिसके बाद दोनों सदन अलग-अलग धन्यवाद प्रस्ताव पारित करते हैं। ये प्रस्ताव  सरकार के बहुमत का प्रमाणीकरण होने से  सत्ता पक्ष की नाक का सवाल होता है जिसमें संशोधन लाने का अधिकार तो विपक्ष के पास होता है बशर्ते सदन उसे पारित करे। बजट सत्र के पहले दिन होने वाली इस औपचारिकता का निर्वहन बेहद उबाऊ होता है। अभिभाषण की ये परम्परा ब्रिटेन से ली गई है जहां संसदीय प्रजातन्त्र और राजतन्त्र एक साथ कायम होने से राजप्रमुख के तौर पर महारानी बजट सत्र के प्रथम दिवस संसद को सम्बोधित करती हैं। बाद में दोनों सदन उनका आभार व्यक्त करते हैं। भारत में भी उसी परम्परा को अपनाते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल के अभिभाषण और उसके प्रति धन्यवाद प्रस्ताव की परिपाटी चली आ रही है किन्तु इस परंपरा के प्रति सत्ता और विपक्ष दोनों का रवैया पूरी तरह रस्म अदायगी जैसा होकर रह गया है। विपक्ष अभिभाषण को पूरी तरह से जहां ख़ारिज करने में नहीं सकुचाता वहीं सत्ता पक्ष अपने ही लिए लिखे अभिनंदन पत्र की शान में कसीदे पढऩे के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देता  है। दो चार दिन की बहस के बाद धन्यवाद प्रस्ताव पारित तो कर दिया जाता है लेकिन उसके बाद फिर उसकी याद किसी को नहीं रहती। सच कहें तो ये लकीर के फकीर बने रहने का उदाहरण है। संसदीय प्रणाली समृद्ध परंपराओं पर आधारित है। पं. नेहरु सहित संविधान सभा में मौजूद कई दिग्गज नेता चूंकि इंग्लैंड में शिक्षित हुए थे  इसलिए वहां के संविधान और संसदीय प्रणाली से प्रभावित होने से बहुत सारी ब्रिटिश परम्पराएं हमारे संसदीय व्यवस्था में भी जस की तस लागू कर गए जिनमें एक राष्ट्रपति और राज्यपाल के अभिभाषण भी हैं  लेकिन 70 साल के अनुभव बताते हैं कि ये परंपरा अर्थ और महत्व दोनों खो बैठी है तथा सत्ता और विपक्ष दोनों इसे मज़बूरी मानकर ही ढो रहे हैं। यही वजह है कि इसके प्रति आम जनता में कोई रुचि नहीं बची है। यद्यपि किसी ने अब तक इस परिपाटी को खत्म करने की बात नहीं कही किन्तु या  तो इस अभिभाषण के प्रति सदन के भीतर दोनों पक्षों के साथ  ही जनता के मन में भी सम्मान और रुचि उत्पन्न की जावे या फिर इस परम्परा को ससम्मान विदा करना ही उचित होगा। ये विडंबना ही है कि सरकार द्वारा लिखित भाषण उन राष्ट्रपति और राज्यपालों को भी पढऩा पड़ता है जो सत्ता पक्ष की नीतियों और विचारधारा से असहमत होते हैं। वहीं विपक्ष भी अपनी विचारधारा वाले राष्ट्रपति या राज्यपाल के अभिभाषण की इसलिए बखिया उधेड़ता है क्योंकि वह सत्ता पक्ष द्वारा तैयार किया गया है। किसी परम्परा का शुभारंभ तात्कालिक परिस्थितियों और जरूरतों के मदद्देनजऱ किया जाता है किन्तु समय - समय  पर यदि उनकी समीक्षा न हो तब वे अपनी उपयोगिता और सार्थकता दोनों खो बैठती हैं। यही वजह है कि अभिभाषण के दौरान विपक्ष की टोकाटाकी और हंगामे की खबरें तो प्रमुखता से प्रसारित  होती हैं जबकि अभिभाषण अखबार के भीतरी पन्ने पर कहीं गुम होकर रह जाता है। बेहतर हो इस बारे में गम्भीर चिंतन किया जावे। ये काम एक दिन में होना सम्भव नहीं होगा किन्तु सात दशक से अपनी सत्ता अपने हिसाब से चलाने के बाद कम से कम हमें ये तो देखना ही चाहिये कि क्या जरूरी और क्या नहीं है? संविधान में भी दर्जनों संशोधन हो चुके हैं। मोदी सरकार ने सैकड़ों अनुपयोगी कानूनों का अंतिम संस्कार कर दिया। उसी तरह अब अभिभाषण सरीखी परम्पराओं को जबरन लादे रहने पर भी समीक्षात्मक विचार होना जरूरी लगता है। राष्ट्रपति और राज्यपाल का बतौर संवैधानिक प्रमुख संसद या विधानसभा को सम्बोधित करना गलत नहीं है किंतु अभिभाषण के प्रति सत्ता और विपक्ष दोनों का गैर जिम्मेदाराना रवैया उनके सम्मान के साथ खिलवाड़ करता है। इस परंपरा का कोई न कोई सार्थक विकल्प ढूंढना समय की मांग है। भले ही परम्पराओं को वेदवाक्य मानने वाले कुछ लोगों को ये सुझाव निरर्थक लग सकता है किन्तु समय के साथ यदि आवश्यक बदलाव न हों तो फिर व्यवस्था भी जड़वत होकर रह जाती है। उसी तरह ये अभिभाषण नामक परम्परा भी रसहीन फल की तरह हो चुकी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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