Saturday 17 February 2018

तो अधिकतर बैंक अधिकारी वीआरएस ले लेंगे!!

पीएनबी के अधिकारी अंधाधुन्ध लैटर ऑफ अंडरटेकिंग जारी करते रहे। यदि नीरव मोदी पैसा लौटाता रहता तो खेल आगे भी जारी रहता । दूसरे बैंक अपने पैसे के लिए अगर पीएनबी की जान न खाते तब भी मामला दबा रहता । इस घोटाले ने पूरी बैंकिंग प्रणाली को संदिग्ध बना दिया है ।
उदारवाद के बाद उधारवाद की संस्कृति जन्मी जिसने उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया । परिणामस्वरूप कर्ज को बुरा मानने वाले भारतीय समाज ने चार्वाक के कर्ज़ लेकर घी पीने के सुझाव को जीवन दर्शन बना लिया ।
इसके चलते कारोबार में वृद्धि का ढोल पीटकर झूठी चकाचौंध का बोलबाला कर दिया गया। भ्रष्टाचार को शिष्टाचार की मान्यता तो पहले ही मिल गई थी किन्तु मुक्त अर्थव्यवस्था ने उन्मुक्त जीवन शैली को भारत के परम्परागत समाज पर लाद दिया ।
घपले-घोटाले होते तो पूर्व में भी थे लेकिन करने वाले इतने बेखौफ़ नहीं थे ।
बैंकिंग प्रणाली इतनी त्रुटिरहित होती है कि नियमानुसार काम करने पर एक पैसा भी इधर उधर नहीं हो सकता।
लगभग डेढ़ दशक की बैंक सेवा में मेरा जो अनुभव रहा उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि किसी घोटाले का इतने लम्बे समय तक जारी रहना सम्भव ही नहीं हो सकता जब तक उच्च स्तर से उसे संरक्षण न मिले।
राष्ट्रीयकरण के उपरांत  बैंको की कार्यप्रणाली में राजनीतिक हस्तक्षेप के बढ़ने से ऋण बांटने में गड़बड़ी शुरू हुई। सच्चाई  ये है कि यदि आज स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति (वीआरएस) शुरू कर दी जाए तो जितने भी वरिष्ठ ईमानदार अधिकारी हैं उनमें से इक्का दुक्का अपवाद छोड़ बाकी सब घर बैठना पसंद करेंगे ।
टारगेट पूरे करने की हवस ने बैंकिंग प्रणाली को पटरी से उतार दिया है।
बड़े बड़े घोटाले तो खबर बन जाते हैं लेकिन शायद ही कोई बैंक की शाखा होगी जिसके अधिकारी चैन की नींद सो पाते हों ।
एनपीए नामक बीमारी लाइलाज बन चुकी है जिसका इलाज जिन्हें करना है वे ही इसको फैलाने के लिए उत्तरदायी हैं।
व्यवसायिक संस्थान होने की वजह से घाटा- मुनाफा बैंकिंग का हिस्सा हैं लेकिन व्यापार में नुकसान तो समझ में आता है किंतु जो जुए में हारने के बाद भी खेलने पर आमादा हो तब उसके प्रति सहानुभूति नहीं रह जाती।
पीएनबी  भी हारने के बाद बाजी लगाता गया । यदि शुरू में ही सम्भल गया होता तो ये नौबत नहीं आती ।
देश की राजनीतिक बिरादरी इस मामले को भी मैत्री मुकाबला बनाकर खेल रही है जिसमें असल मुद्दा दबने का खतरा बढ़ रहा है ।
घोटाला किस सरकार के समय शुरु हुआ और किसके रहते परवान चढ़ा इस पर विवाद है लेकिन घोटाला हुआ और होता रहा ये निर्विवाद है ।
यदि राजनीतिक नेता वाकई चाहते हैं कि बैंकों में ईमानदारी और महाजनी का पुराना दौर लौटे तो बैंकिंग व्यवस्था में सियासी दखलंदाजी पर लगाम लगनी चाहिए वरना ये लूटमार कभी नहीं रुकेगी ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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