Wednesday 7 February 2018

अन्ना के प्रति पहले जैसा उत्साह नहीं रहा


अन्ना हज़ारे फिर मैदान में हैं गत दिवस वे जबलपुर होते हुए आसपास के शहरों के भ्रमण पर निकल गए। इस दौरान उन्होंने केंद्र सरकार पर वायदे पूरे न करने के आरोप मढ़ते हुए आरपार की लड़ाई लडऩे का ऐलान किया। भाजपा पर गरीबों और किसानों की उपेक्षा करने की तोहमत लगाते हुए अन्ना ने किसानों को पेंशन दिए जाने जैसी मांग भी दोहराई। भ्रष्टाचार के विरुद्ध चले लोकपाल आंदोलन के प्रतीक पुरुष रहे अन्ना ने दिल्ली के रामलीला मैदान में 12 दिन अनशन कर पूरे देश को आंदोलित कर दिया था। जनमानस में उनकी छवि दूसरे जयप्रकाश नारायण की बन गई थी। उस आंदोलन के दौरान ही अरविंद केजरीवाल और उनके कतिपय साथी नई राजनीति के ध्वजावाहक बनकर उभरे और देखते ही देखते सामाजिक आंदोलन को राजनीतिक पार्टी में तब्दील कर दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गए। कहना गलत नहीं होगा कि 2014 में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय के विभिन्न कारणों में एक अन्ना का वह अनशन भी था। लेकिन केजरीवाल एंड कम्पनी ने ही अपने प्रेरणास्रोत से किनारा करते हुए उन्हें रामलीला मैदान के विराट आकार से धकेलकर वापिस रालेगण सिद्धि के छोटे से दायरे में समेट दिया। आम आदमी पार्टी के लिए अन्ना महज एक सीढ़ी थे वहीं भाजपा को भी एक सीमा के बाद वे अवांछनीय प्रतीत होने लगे। कांग्रेस और बाकी पार्टियां तो इस बुजुर्ग को पहले भी नापसन्द किया करती थीं क्योंकि वह  भ्रष्टाचार के विरुद्ध खुलकर बोलता ही नहीं मैदान में लड़ता भी था। लेकिन एक बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन और फिर लोकपाल आंदोलन की कोख से जन्मी आम आदमी पार्टी को दिल्ली में मिली सफलता के बाद अन्ना जिस तरह अप्रासंगिक होते गए वह भारतीय राजनीति के लिए नई बात नहीं थी क्योंकि सत्ता के सान्निध्य में ध्येयवादी व्यक्ति और उनके आंदोलन पहले भी या तो दम तोड़ते रहे हैं या फिर वे राजनेताओं की अतृप्त महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बनकर बेकार हो गए। जिस तरह गांधी,लोहिया और दीनदयाल केवल जयन्तियों तक सीमित कर दिए गए, कमोबेश वही हाल उन सामाजिक आंदोलनों के पुरोधाओं का हुआ जो राजनेताओं के मायाजाल को समझने में नाकामयाब रहे और इस्तेमाल होने के बाद दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंके गए। इस सम्बंध में विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण का उदाहरण सर्वविदित है। अन्ना हजारे को उसी धारावाहिक की नवीनतम कड़ी के तौर पर लिया जा सकता है। जो चाहे-अनचाहे उस क्षेत्र में घसीट लिए गए जिससे उन्हें वैराग्य था। अन्ना हजारे ने दोबारा सक्रिय होने के साथ ही ये ऐलान भी किया कि वे अपने साथ जुडऩे वालों मेें से किसी को भी राजनीतिक नेता नहीं बनने देंगे किन्तु क्या ये उनके बस में होगा ? ये सवाल इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि वे तो आम आदमी पार्टी के गठन के भी घोर खिलाफ  रहे लेकिन उनके मानसपुत्रों ने उनके साथ वही व्यवहार किया जो राजनीति का चिर परिचित चरित्र रहा है। उस लिहाज से लगभग 4 वर्ष तक एक तरह का निर्वासन झेलने के बाद उनके फिर से मोर्चे पर डटने की कोशिश एक पूर्व सैनिक की भुजाएं फडफ़ड़ाने का संकेत तो देती हैं किंतु खुद सेना में रह चुके अन्ना भी जानते हैं कि नि:स्वार्थ भाव से सेवा और संघर्ष करने वालों का समाज में कितना टोटा हो गया है और यह भी कि चार दिन टोपी पहिनकर जि़न्दाबाद-मुर्दाबाद करने के बाद अधिकतर लोगों को विधायक-सांसद बनने के स्वप्न आने लग जाते हैं। जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से निकले तमाम युवा उनके जीते जी सियासतदां बनकर लोकनायक को ठेंगा दिखा गए। हूबहू वही मैं भी अन्ना तू भी अन्ना का नारा लगाने वालों के साथ हुआ। उम्र के इस पड़ाव में भ्रष्टाचार , केंद्र सरकार की वायदा खिलाफी और किसानों की बदहाली जैसे ज्वलन्त मुद्दों पर अन्ना का क्रोधित और आंदोलित होना स्वागतयोग्य है। उनके उत्साह और मानसिक पीड़ा को देश समझता भी है और सम्मान भी देता है लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि ये बुजुर्गवार भी देश के वर्तमान माहौल में पुरानी थ्री नॉट थ्री रायफल सरीखे होकर रह गए हैं। जिन एनजीओ के दम पर रामलीला मैदान की लड़ाई लड़ी गई वे भी या तो अरविंद केजरीवाल के मोहपाश में फंसकर रह गए या फिर उन्हें ये सब फिजूल महसूस हुआ। और फिर अन्ना के पास न तो कोई संगठनात्मक ढांचा है और न ही ऐसे चेहरे जैसे लोकपाल आंदोलन के दौरान पूरे देश में चर्चित हो गए थे। उन लोगों की एकता भी अब छिन्न-भिन्न होकर रह गई है। ऐसे में एक हारे हुए सेनापति की तरह अपनी बिखरी सेना को फिर एकजुट करने का उनका प्रयास कितना कामयाब होगा, कहना क़ठिन है। सबसे बड़ी बात ये है कि खुद अन्ना भी भ्रमित रहते हैं। आम आदमी पार्टी के जन्म का विरोध करने के पीछे उनका तर्क सामाजिक आंदोलन को राजनीतिक शक्ल देने के ऐतराज पर आधारित था किन्तु बाद में वे तृणमूल के प्रत्याशियों के समर्थन में प्रचार हेतु राजी हो गए। उनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये आएगी कि अधिकतर विपक्षी दल उनके साथ नहीं हैं क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध न तो कोई दल मुंह खोलने तैयार है और न ही मुंह दिखाने लायक। ऐसे में दस-बीस की भीड़ के साथ बैठने या घूमने से वे सिवाय समाचार माध्यमों में सुर्खियां बटोरने के और क्या कर सकेंगे? कहने का आशय ये नहीं है कि अन्ना निराश होकर रालेगण सिद्धि के मन्दिर में भजन पूजन करते हुए बुढ़ापा काटें किन्तु उन्हें भी अपने आप में स्पष्ट होना चहिये। भ्रष्टाचार सहित अन्य समस्याओं के प्रति उनकी चिंता एवं संवेदनशीलता निश्चित रूप से अभिनन्दनीय है किंतु देश के मौजूदा माहौल के मद्देनजर अन्ना के प्रति भी पहले जैसा उत्साह नहीं रहा तो उसकी वजह वे खुद भी हैं। उनके ताजा प्रयास सफल हों ये तो हर किसी की चाहत है किंतु अन्ना का दौर खत्म हो चुका है। बाकी तो छोडि़ए अब तो अरविंद केजरीवाल भी उनके साथ नहीं खड़े होंगे क्योंकि उनकी सरकार के कई मंत्री भ्रष्टाचार के कारण जांच के दायरे में हैं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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