Saturday 10 February 2018

मप्र:बीमारू न सही बीमार तो है

चूंकि ये किसी विपक्षी नेता या पार्टी द्वारा कही गई बात नहीं है अतः इस पर गम्भीरता से ध्यान दिए जाने की अवश्यकता है। नीति आयोग ने राज्यों के स्वास्थ्य सूचकांको की जो जानकारी प्रसारित की उसके मुताबिक केरल जहां सबसे अव्वल और उप्र सबसे नीचे है वहीं अपना मप्र 17 वीं पायदान पर है । बीते दो सालों से मप्र इसी स्थान पर बना हुआ है यद्यपि मूल्यांकन में उसके 1 प्रतिशत अंक जरूर बढ़े हैं । स्वास्थ्य सूचकांक के अंतर्गत अनेक मापदण्ड तय किये गए थे जिनमें प्रदेश की स्थिति कहीं ऊपर कहीं नीचे दर्शाई गई किन्तु समग्र आकलन में वह देश भर में 17 वें स्थान पर बना हुआ है । हालांकि संतोषी प्रवृति के लोग इस सर्वेक्षण पर खुश हो सकते हैं क्योंकि मप्र ने अपना 17 वाँ स्थान बरकरार रखा किन्तु स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में इतने नीचे बने रहना न सिर्फ  चिंता अपितु शर्म का भी विषय है । 2003 में जब भाजपा सत्ता में आई उसके पहले तक मप्र बीमारू राज्यों की ज़मात का सदस्य कहलाता था । बीते करीब 15 वर्ष में वह कलंक तो धुल गया लेकिन बीमारू न सही लेकिन बीमार राज्य के रूप में मप्र का बना रहना नजरें नीची झुकाने को बाध्य करता है । प्रारंभिक दो वर्ष छोड़कर शिवराज सिंह चौहान ही लगातार सत्ता में बने हुए हैं इसलिए वे या उनकी सरकार का कोई नुमाइंदा पर्याप्त अवसर न मिलने जैसी सफाई देकर बच नहीं सकता । शिवराज सरकार ने कृषि , उद्योग और पर्यटन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये। जन कल्याण के अनेक कार्यों के लिए तो मुख्यमंत्री की देश भर में सराहना भी हुई तथा उनमें से कुछ को दूसरे राज्यों ने अपनाया भी किन्तु जन स्वास्थ्य को लेकर बीते डेढ़ दशक में राज्य सरकार ऐसा कुछ भी नहीं कर सकी जिससे लगता कि उसने इस दिशा में समुचित प्रयास किये हों। जननी सुरक्षा योजना  और दीनदयाल कार्ड के  जरिये साधनहीन लोगों की चिकित्सा के जो प्रबन्ध राज्य सरकार की ओर से हुए वे निश्चित रूप से प्रशंसनीय किन्तु अपर्याप्त हैं क्योंकि जिला सरकारी अस्पताल और मेडीकल कालेजों के चिकित्सालयों की तो छोड़िए प्राथमिक चिकित्सा केंद्र तक बदहाली के शिकार हैं ।अस्पताल है तो चिकित्सक नहीं और वह है तो नर्स एवं अन्य स्टाफ गायब। दवाएं व एक्सरे जैसी छोटी-छोटी चीजों तक का अभाव साधारण बात है। कहाँ तो मुख्यमंत्री कैंसर और ह्रदय रोग की निःशुल्क चिकित्सा का वायदा करते हैं वहीं दूसरी तरफ कुत्ते के काटने पर लगने वाला एंटी रैबीज इंजेक्शन तक सरकारी अस्पतालों में नसीब नहीं होता । कहने का आशय ये है कि शिवराज जी ने मप्र में भूटान से आनन्द सूचकांक की अवधारणा ग्रहण करते हुए प्रदेश में आनंदम विभाग तक बनवा दिया लेकिन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो बुरी स्थिति है वह आनन्द की किसी भी अनुभूति की भ्रूण हत्या कर देती है । जब जिला और सम्भाग स्तर पर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने जैसे हालात हों तब ग्रामीण और आदिवासी अंचलों की कल्पना करना कठिन नहीं होगा । नीति आयोग की रिपोर्ट में दर्शाए सूचकांक को विपक्षी दल यदि आगामी विधानसभा चुनाव में मुद्दा बनाते हुए इसे शिवराज सरकार की विफलता बताएं तो उसमें गलत कुछ भी नहीं होगा । अब चूंकि चुनाव सिर पर आ गए हैं तब प्रदेश से किसी चमत्कार की उम्मीद करना तो बेमानी होगा लेकिन  मुख्यमंत्री को ऐसा कुछ तो करना ही चाहिए जिससे जनता को लगे कि सरकार केवल नेताओं और बड़े अफसरों के स्वास्थ्य के लिए ही फिक्रमंद नहीं अपितु उसे जनता की सेहत का भी ख्याल है। किसी विधायक , सांसद, मंत्री या वीआईपी कहाने वालों की तबियत नासाज होते ही एयर एंबुलेंस आ जाती है तथा उन्हें मेदांता सरीखे सेवन स्टार अस्पताल का इलाज उपलब्ध करवाया जाता है लेकिन मुल्क की मालिक कहलाने वाली जनता को धरती वाली एम्बुलेंस भी नसीब नहीं हो पाती । नीति आयोग का स्वास्थ्य सूचकांक शिवराज सरकार के लिए चांटा भी है और चुनौती भी । देखें मानवीयता और संवेदनशीलता के प्रतीक मुख्यमन्त्री इस पर क्या कहते और उससे भी बढ़कर कहें तो क्या करते हैं ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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