Friday 23 February 2018

न्यायपालिका में टकराव लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा

दूसरों का विवाद निबटाने वाले जब खुद ही विवादों को जन्म देने लगें तब स्थिति विचारणीय के साथ चिंताजनक भी हो जाती है। सर्वोच्च न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध चार न्यायाधीशों द्वारा खुलकर मैदान में आने के बाद काफी दिनों तक न्यायपालिका के भीतर की अव्यवस्थाओं और विसंगतियों पर देश भर में बौद्धिक चर्चा चली। प्रधान न्यायाधीश की कार्यप्रणाली पर उनके सहयोगी न्यायाधीशों द्वारा जिस तरह उंगलियां उठाई गईं वह अभूतपूर्व घटना थी। चूँकि न्यायाधीशों पर आम सरकारी मुलाजिम की तरह अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की जा सकती इसीलिये अपने से वरिष्ठ प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ  सार्वजनिक रूप से जुबान चलाने वाले न्यायाधीश अपने पद पर बने हुए हैं। अतीत में जब-जब भी न्यायपालिका के उच्च स्तर कोई विवाद या असहमति जैसी बात हुई तो नाराज न्यायाधीश स्तीफा देकर अलग हो गए किन्तु चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने वैसा नहीं किया। मेल-मुलाकात और मध्यस्थता के बाद ऐसा लगा मानो बात आई गई होकर रह गई किन्तु काफी दिनों की शांति के बाद गत दिवस फिर एक वाकया हो गया जिसने न्याय की सर्वोच्च संस्था के भीतर की खींचातानी और तनाव को सतह पर ला दिया। भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिये गए निर्णय को तीन न्यायाधीशों की दूसरी पीठ ने पलटकर बड़ी पीठ को भेजने का आदेश सुना दिया तो पहले वाली पीठ के कुछ न्यायाधीशों को ये नागवार गुजरा और उन्होंने खुद को उस मामले से अलग करने हेतु प्रधान न्यायाधीश को अर्जी भेज दी। जिस पीठ ने पहले वाली पीठ के फैसले पर पानी फेरा उसके दो न्यायाधीश वे ही हैं जिन्होंने प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध बगावत का बिगुल फंंूका था। ज़ाहिर है दोनों पीठों में शामिल न्यायाधीश भी पिछले झगड़े से सीधे अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे थे। इस ताजा विवाद से स्पष्ट है कि न्यायपालिका के भीतर भी अहं, वर्चस्व और प्रतिष्ठा की वैसी ही लड़ाई चल पड़ी है जो सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की स्थायी पहिचान बन गई है। लेकिन न्यायपालिका कोई साधारण सरकारी महकमा नहीं है जहां इस तरह की रस्साखींच को नजरअंदाज किया जाता रहे। न्यायाधीशगण उनके समक्ष विचारार्थ आए मसलों पर  अपनी बात खुलकर कहते हैं। यहां तक कि वे सरकार की आलोचना करने से भी बाज नहीं आते। विगत दिवस मुंबई उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने टिप्पणी कर डाली कि नेता कोई भगवान नहीं हैं। नौकरशाहों की नाक में भी नकेल डालने में न्यायाधीश नहीं हिचकते। आम जनता को ये देखकर अच्छा भी लगता है। व्यवस्था को पटरी पर लाने के न्यायपालिका के प्रयासों को देश के जनमानस का भी समर्थन हासिल है। यद्यपि कुछ मामलों में अत्यधिक न्यायिक सक्रियता अनधिकार चेष्टा भी लगती है। विधायिका और कार्यपालिका के साथ उसके टकराव की स्थिति भी कई मर्तबा बनी लेकिन इस सबके बाद भी न्यायपलिका की श्रेष्ठता और सर्वोच्चता पर लोगों का विश्वास और श्रद्धा बनी रही किन्तु हालिया घटनाओं के बाद स्थिति में बदलाव आया है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और आपसी खींचातानी के कई प्रकरण देश के सामने आ चुके हैं। फिर भी न्याय की आसंदी की छवि बरकरार रही पर अब ऐसा नहीं है क्योंकि न्यायपालिका के दामन पर कीचड़ उछालने का दुस्साहस वे लोग ही कर रहे हैं जिनके कंधों पर उसकी पवित्रता को बनाए रखने का दायित्व है। सर्वोच्च न्यायालय के जो न्यायाधीश मौजूदा विवाद में शामिल अथवा उसके कारण हैं वे सभी न तो सही हैं और न ही गलत किन्तु इस स्थिति को हमेशा तो जारी नहीं रखा जा सकता। वरना सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा तार-तार होते देर नहीं लगेगी। प्रतिबद्ध न्यायपालिका की बात भी इंदिरा जी के समय उठी थी लेकिन देश ने उसे सिरे से नकार दिया किन्तु अब तो उच्छश्रृंखल न्यायपालिका की स्थितियां निर्मित होती दिख रही हैं जो देश में नई तरह की अराजकता का आधार बन सकती हैं। समय रहते इसे न संभाला गया तो आने वाले समय में स्थिति और बिगड़ेगी। बेहतर हो उसके पहले राष्ट्रपति और हो सके तो संसद इस बारे में समुचित कदम उठाए वरना लोकतंत्र का यह महत्वपूर्ण स्तम्भ पूरी इमारत को धराशायी करने की वजह बन जायेगा ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment