Saturday 3 February 2018

राजनीतिक आकाश पर अनिश्चितता के बादल

शेयर बाज़ार टूट गया। निवेशकों के करोड़ों डूब गए। राहुल गांधी ने इसे बजट के प्रति अविश्वास बताकऱ गलत नहीं किया। मध्यम वर्ग भी नाखुश है। जिस तबके को बजट में सौगातें दी गईं उसे भी ये नहीं पता कि उस पर कृपा कब तक बरसेगी। कम खुशी और ज्यादा गम के माहौल में ये खबर भी आ गई कि आंध्र में भाजपा की सहयोगी तेलुगु देशम भी कोप भवन में जा बैठी है। शिव सेना पहले ही सम्बन्ध विच्छेद का नोटिस भेज चुकी है जिस पर उसका कहना है कि कमान से निकला तीर वापिस नहीं आने वाला। गुजरात में फीके प्रदर्शन के बाद राजस्थान के तीनों उपचुनाव हार जाने के कारण भाजपा की सम्भावनाओं पर नए - नए प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं । पुरानी कहावत है केंद्रीय सत्ता के कमजोर होते ही सूबे सिर उठाने लगते हैं। उप्र चुनाव के बाद प्रधानमंत्री और भाजपा के अपराजेय होने की अवधारणा एकाएक बदलने लगी तो इसके पीछे के कारणों का विश्लेषण होना चाहिए क्योंकि 2019 के महासंग्राम के पहले 2018 में  लगातार कई राज्यों के चुनाव होने वाले हैं। पिछले दिनों दो टीवी चैनलों के सर्वेक्षण आए थे। उनमें राष्ट्रीय स्तर पर  जनमत का जो रुझान बताया गया उसके मुताबिक यदि आज चुनाव हो जाएं तो भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए को कमोबेश फिर 2014 जैसा बहुमत मिल जाएगा। लेकिन उसके बाद पहले उद्धव ठाकरे और अब चंद्राबाबू नायडू ने भी जिस तरह भाजपा से कुट्टी कर ली उससे उन लोगों को इन सर्वेक्षणों की प्रामाणिकता पर संदेह करने का अवसर मिल रहा है जो सदैव उन्हें प्रायोजित बताया करते हैं। गुजरात चुनाव के बाद आत्मविश्वास से लबरेज राहुल गांधी ने नया नारा बस एक साल और लगाना शुरू कर दिया है। सोनिया गांधी भले कांग्रेस अध्यक्ष पद से निवृत्त हो गई हों किन्तु दो दिन पूर्व 17 विपक्षी नेताओं को एक साथ बिठाकर उन्होंने  भाजपा विरोधी मोर्चा पुनर्जीवित करने का जो प्रयास किया उससे दो बातें सामने आईं। अव्वल तो ये कि कांग्रेस जान चुकी है कि अपनी दम पर नरेंद्र मोदी का मुकाबला करना उसके बस में नहीं है वहीं दूसरी बात ये कि अभी भी शेष विपक्ष राहुल के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए एकमत नहीं है। हाल ही में सीपीएम पोलित ब्यूरो द्वारा कांग्रेस के संग गलबहियां करने से इंकार कर दिए जाने से भी विपक्ष की एकजुटता पर संदेह के बादल मंडराने लगे थे किन्तु शिवसेना का भाजपा को तलाक का नोटिस और चंद्रा बाबू नायडू की तिरछी चाल से कांग्रेस को 2019 में उम्मीद की किरणें दिखाई देने लगी हैं। भाजपा ने हालांकि पूर्वोत्तर में अपनी पकड़ बनाई है जिसका प्रमाण बंगाल के चुनावों में उसका दूसरे स्थान पर आ जाना है किंतु अभी भी ममता बैनर्जी रुपी चक्रवात का कोई तोड़ उसके पास न होने से बंगाल से बहुत उम्मीदें पार्टी को नहीं हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर के समस्त राज्य मिलकर भी मोदी लहर को पुनर्जीवित करने में सहायक नहीं हो सकेंगे। दरअसल भाजपा की मुसीबत ये है कि उन राज्यों में जहां कांग्रेस से उसका सीधा मुकाबला है, उसकी पकड़ कमजोर पड़ी है। लेकिन इसी तरह कांग्रेस की भी दिक्कत ये है कि उप्र, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में उसका जनाधार न के बराबर है। उप्र में अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव के कटु अनुभव के बाद दोबारा राहुल के साथ मिलने से कतराते हुए चुनाव आने पर ही बातचीत करने की कहकर कन्नी काटते दिख रहे हैं वहीं बसपा भी अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को लेकर सजग है। बिहार में लालू के जेल जाने से कांग्रेस की आशाएं भी धूमिल हो चली हैं वहीं बंगाल में ममता को किसी की जरूरत नहीं है। उनके मन में ये बात बैठ गई है कि तीस-पैंतीस सांसद जिताकर वे प्रधानमंत्री भी बन सकती हैं। तमिलनाडु इस समय अनिश्चितता में फँस गया है । जयललिता की मौत और करुणानिधि के शरशैया पर होने से उपजे शून्य को भरने कमल हासन और रजनीकांत जैसे नए चेहरे सामने आ रहे हैं जो किसके साथ और किसके खिलाफ जाएंगे ये फिलहाल अनिश्चित है। इन स्थितियों में तो गर्मियों में होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव पर भाजपा और कांग्रेस का भविष्य टिक गया है। यदि कांग्रेस अपना ये राज्य बचा ले गई तो बाकी विपक्ष भी उसके झंडे तले आने में नखरे नहीं दिखाएगा वहीं भाजपा के लिए मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान बचाना भी कठिन होगा जिसका असर 2019 के लोकसभा चुनाव पर पडऩा अवश्याम्भावी है लेकिन भाजपा अगर कर्नाटक जीत लेती है तब श्री मोदी जैसा कहा जा रहा है लोकसभा के मध्यावधि चुनाव रुपी जुआ खेल सकते हैं। रही बात शिवसेना और तेलुगु देशम की तो वे दोनों एनडीए से अलग होने पर भी कांग्रेस से हाथ शायद ही मिलाएं क्योंकि दोनों का डीएनए पूरी तरह विरोधी  है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि केंद्र में स्थिर सरकार होने के बाद भी राजनीतिक स्तर पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं तो इसके लिए भाजपा ही दोषी कही जाएगी जो प्रभावक्षेत्र बढ़ाने के फेर में अपने परंपरागत गढ़ों में कमजोर होती दिख रही है । मोदी सरकार कितना भी अच्छा और देशहित का काम कर रही हो किन्तु उसकी नीतियां या तो लोगों को आश्वस्त नहीं कर पा रहीं या फिर उनका क्रियान्वयन अपेक्षित तरीके से नहीं हो पा रहा। यद्यपि ये कहना जल्दबाजी होगी कि भाजपा नामक जहाज के डूबने का अंदेशा होने से समर्थक रूपी चूहे कूदने लगे हैं किंतु ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि वर्तमान स्थिति में भाजपा और नरेंद्र मोदी अपने प्रतिबद्ध समर्थकों को भी ये समझाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं कि अच्छे दिन आने का वायदा पूरा हो रहा है। दूरगामी फायदे वाले काम करना नि:सन्देह देशहित में होता है किंतु व्यवहारिकता के धरातल पर देखें तो भूखे व्यक्ति को खेत का पट्टा देकर बीज देने से उसकी तात्कालिक जरूरत पूरी नहीं होती और यही फिलहाल लोगों की नाराजगी की वजह है जिसके कारण एक मजबूत संगठन और दबंग-मेहनती नेता होने के बावजूद भाजपा को लेकर लोगों के उत्साह में कमी आई है। यदि यही स्थिति बनी रही तब 2019 में फिर एक बार देश त्रिशंकु की स्थिति में फंस सकता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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