Monday 19 February 2018

भाजपा : पते के साथ पहिचान न बदल जाए

गत दिवस एक समाचार ने ध्यानाकर्षित किया। राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली में कई दशकों से राजनीतिक गतिविधियों का जीवंत केंद्र रहे भाजपा कार्यालय का पता बदलकर 11, अशोक रोड की बजाय दीनदयाल मार्ग हो गया। करीब 1.70 लाख वर्गफुट में निर्मित ये बहुमंजिला भवन किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के आलीशान मुख्यालय की टक्कर का है जिसमें आधुनिक दौर की समस्त सुविधाओं और जरूरतों की उपलब्धता रहेगी। लगभग डेढ़ वर्ष की रिकॉर्ड समयावधि में इतने बड़े निर्माण को पूरा करने के लिए पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह की तारीफ स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई। इस अवसर पर भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी की उपस्थिति पार्टी की विकास यात्रा को संकलित करने जैसी थी। श्री मोदी ने अपने उद्बोधन में इसे पार्टी की बजाय कार्यकर्ताओं का कार्यालय कहा तो श्री शाह के मुताबिक किसी राजनीतिक दल का इतना शानदार कार्यालय विश्व भर में और कहीं नहीं है। प्रधानमंत्री ने ये भी कहा कि इस तरह का काम महज बजट से नहीं अपितु सपनों से सम्पन्न होता है। सुनने में ये सब निश्चित रूप से अच्छा लगता है लेकिन व्यवहार में देखें तो एक बात देखने में आती है कि वामपंथी दलों की तरह खुद के कार्यकर्ता आधारित (कैडर बेस्ड) पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा के कार्यालय में भी कार्यकर्ताओं के लिए पहले जैसी जगह नहीं रह गई है। रही बात सपनों की तो पार्टी की बुनियाद बने कार्यकर्ताओं की तकदीर में केवल सपने ही रह गए हैं। कलश की चमक को निहारते रहना ही उनकी नियति बनती जा रही है। यही वजह है कि विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने के दम्भ ने राजनीतिक रूप से जितना अर्जित किया, सैद्धांतिक तौर पर उससे ज्यादा खोया भी है। देश के राजनीतिक क्षितिज पर भाजपा का उभार धूमकेतु की  तरह से रातों - रात हो गया ये कहना तो गलत होगा। सहस्त्रों कार्यकर्ताओं की नि:स्वार्थ सेवा और परिश्रम तथा सैकड़ों जीवनदानी नेताओं के अथक परिश्रम की वजह से भाजपा चर्मोत्कर्ष के इस मुकाम तक आ सकी लेकिन इस उपलब्धि का असली श्रेय एक,दो या अनेक व्यक्तियों की बजाय उस विचारधारा को दिया जाना चाहिए जिससे आकर्षित और प्रभावित होकर करोड़ों मतदाताओं और लाखों परंपरागत समर्थकों ने भाजपा को शून्य से शिखर पर लाकर बिठा दिया। आज भाजपा ने कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ दिया है लेकिन इस दौड़ में उसका अपना भी बहुत कुछ रास्ते में गिरता गया जिसकी सुध विजयोल्लास कहें या फिर उन्माद में उसे नहीं है अथवा वह सफलता से बढ़कर सफलता कोई और नहीं के प्रबंधन मंत्र से प्रभावित होकर आगे बढऩे के जुनून में डूबी हुई है। उसे ये नहीं भूलना चाहिये कि विजेता बनकर पदक जीतने की लालच में नशीली दवाएँ लेने वाले खिलाड़ी का सम्मान जीतकर भी छिन जाता है। और यह भी कि हार्मोन के इंजेक्शन लगाकर निकाला गया गाय-भैंस का दूध और खेतों में पैदा किये जाने वाले फल-सब्जियां तात्कालिक तौर पर तो लाभदायक होते हैं किंतु कालांतर में उनके दुष्प्रभाव से बचना असम्भव होता है। उस दृष्टि से भाजपा को सीपीएम से सबक लेना चाहिये जो लगभग चार दशक तक बंगाल की सत्ता पर एकक्षत्र काबिज रहने के बाद जो हटी तो हाशिये से बाहर आने की स्थिति में चली गईं। भाजपा की यात्रा का आरंभ यदि जनसंघ के उदय से मानें तो उसने जो अर्जित किया वह अभूतपूर्व ही नहीं अकल्पनीय भी लगता है लेकिन ये तभी स्थायी हो सकता है जब पार्टी व्यक्ति केंद्रित होने की बजाय विचार केंद्रित बने। मोदी सरकार फिर एक बार के स्थान पर यदि भाजपा सरकार फिर एक बार का नारा लगाने की क्षमता वह अर्जित कर सके तो ठीक वरना ज्योति बसु जैसे विराट व्यक्तित्व के पश्चात वाम मोर्चे का मजबूत लालकिला जिस तरह ढह गया ठीक वही स्थिति भाजपा की हो जाने की आशंका को हवा में उड़ाना घातक हो सकता है। पार्टी का मास्टर प्लान देश भर में आधुनिक कार्यालय बनाने का है। अमित शाह पूरी तरह कारपोरेट कम्पनी के सीईओ जैसे अंधे को चश्मा बेचने के लिए आक्रामक रणनीति बनाने में विश्वास भले करते हों किन्तु सियासत और तिजारत दो अलग विधाएं हैं जिनमें घालमेल के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होते हैं। भाजपा के जिन नेताओं या उनके पिछलग्गुओं को सत्ता का स्वाद चखने मिल गया उन्हें असहमति में बग़ावत नजर आती है लेकिन उन्हें इसके पीछे छिपे मर्म को समझना चाहिये। भाजपा से केवल उसके अनुयायियों ही नहीं बल्कि पूरे देश और यहाँ तक कि दुनिया भर में फैले भारतवंशियों को हिमालय से भी ऊँची उम्मीदें हैं क्योंकि वह पार्टी विथ डिफरेन्स का भरोसा दिलाकर जनमानस में  अपना स्थान बना सकी है। इसे बनाए रखने के लिए आवश्यक है वह तेज गति में वाहन चलाने के साथ-साथ नियंत्रण भी बनाए रखे वरना सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की स्थिति बनते देर नहीं लगती। कार्यालय कितना भी भव्य और सुंदर भले हो किन्तु जिस तरह बिना प्राण प्रतिष्ठा किये मन्दिर में स्थापित दैवीय मूर्तियां पूजनीय नहीं मानी जातीं ठीक वैसे ही किसी विचार आधारित पार्टी के केंद्र में जब तक आदर्श और सिद्धांत को प्रतिष्ठित नहीं किया जाता तब तक वह महज ईंटों का एक ढांचा बनकर रह जाता है। पार्टी का पता बदलना तो फिर भी ठीक है लेकिन पहिचान न बदले ये देखने वाली बात होगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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