Saturday 24 February 2018

आचार संहिता : बिना धार वाली तलवार

मप्र की मुंगावली और कोलारस विधानसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। जीतने के लिए सभी मान्य और अमान्य तौर-तरीके आजमाए जाने की खबरें भी नित्यप्रति आती रहीं। जन और धनबल के अनुचित उपयोग को लेकर चुनाव आयोग के पास शिकायतों का ढेर लग गया। कुछ पर कार्रवाई हुई तो कुछ अभी जांच के दायरे में हैं। आयोग की सख्ती को लेकर भी भाजपा-कांग्रेस की अलग-अलग राय हैं। जिसकी बात नहीं सुनी गई वह आयोग की निष्पक्षता पर उँगलियाँ उठाने लगा। मतदान के एक दिन पहले भी भारी खींचातानी मची रही। दोनों पार्टियों ने चुनाव आयोग को अपने-अपने हिसाब से घेरा। जिसकी इच्छानुसार काम नहीं हुआ उसका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उधर आयोग ने कुछ शिकायतों पर तो फौरन कार्रवाई कर डाली वहीं कुछ को जांच प्रक्रिया के हवाले कर दिया। कुल मिलाकर जो कुछ हुआ वह किसी पुरानी फिल्म के रीमेक सरीखा ही है। चाहे आम चुनाव हो अथवा उपचुनाव,  आचार संहिता उल्लंघन के दर्जनों मामले आयोग बनाता  है। बड़े-बड़े  नेताओं के विरुद्ध कार्रवाई का ढोल पीटा जाता है। किसी की गाड़ी से नगदी तो किसी के पास से शराब का स्टॉक जप्त किया जाता है। एक-एक गतिविधि पर निगाह रखी जाती है। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक पूरी तरह निष्पक्ष और कठोर दिखने का प्रयास भी करते हैं लेकिन चुनाव सम्पन्न होने के बाद आचार संहिता के उल्लंघन वाले प्रकरणों का क्या होता है ये किसी को पता ही नहीं चलता। कभी-कभार किसी छोटे-मोटे नेता या कार्यकर्ता को दोषी साबित किया गया हो तो वह भी लोगों के संज्ञान में उतना नहीं आया। इस सबसे लगता है चुनाव के दौरान आयोग की सख्ती केवल तदर्थ व्यवस्था बनकर रह गई है। उसके प्रति जो डर राजनीतिक दलों में दिखाई देता है वह भी दिखावटी ही है क्योंकि आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों को यदि समुचित दण्ड मिलता होता तब भविष्य में कोई दूसरा वैसी जुर्रत नहीं कर पाता। चुनाव के दौरान अनुचित तरीके अपनाने के आरोप साबित होने पर चुनाव जीतने के बाद भी किसी प्रत्याशी का निर्वाचन रद्द हो जाता है। वहीं हारने के बाद भी आयोग के नियमों का पालन न करने वाले प्रत्याशी के चुनाव लडऩे पर कुछ वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। लेकिन जो लोग आचार संहिता  उल्लंघन के दोषी पाए जाते हैं उनमें से अपवाद स्वरूप ही कोई दंडित होता होगा। यही वजह है कि चुनाव आयोग की जबरदस्त सख्ती के बावजूद आचार संहिता मजाक बनकर रह जाती है। मुंगावली और कोलारस उपचुनाव में आचार संहिता का उल्लंघलन दोनों खेमों से जमकर होने के सबूत सामने हैं। शिकायतें भी थोक के भाव हुईं। कुछ प्रकरण आयोग ने स्वविवेक से  पंजीबद्ध किये। छिटपुट कार्रवाई के टोटके भी किये गए किन्तु सभी जानते हैं कि चुनाव सम्पन्न होते ही रात गई, बात गई वाली कहावत दोहरा दी जाएगी। यही वजह है कि चुनाव आयोग द्वारा आचार संहिता का अत्यंत कठोरता से पालन कराए जाने के बावजूद न तो चुनाव में पैसा बहने से रोकना मुमकिन हुआ और न शराब एवं अन्य उपहारों का वितरण। बाहुबलियों और माफियाओं की भूमिका भी बदस्तूर जारी है। वाहनों पर बेतहाशा खर्च होता है। कुल मिलाकर चुनाव आयोग डाल-डाल तो राजनीतिक दल पात-पात की नीति पर चल रहे हैं। भले ही स्थिति ऊपर से पूर्वापेक्षा काफी सुधरी हो लेकिन न तो चुनाव सस्ते हो सके और न ही उनमें अनुचित तरीकों का उपयोग रोका जा सका। अपराधी तत्व अभी भी चुनाव लड़ते और लड़वाते हैं। प्रश्न ये है कि इस स्थिति को कैसे सुधारा जाए क्योंकि वर्तमान चुनाव प्रक्रिया जिस तरह की हो चुकी है उसमें किसी साधारण व्यक्ति का उसमें उतरना नामुमकिन सा होता जा रहा है। कहने को तो सभी अपेक्षा करते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग को राजनीति में आना चाहिए किन्तु व्यवहारिक तौर पर यदि ये कठिन है तो उसकी मुख्य वजह चुनाव प्रणाली ही है । चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावों को कम खर्चीला तथा अपराधियों से मुक्त कर साफ-सुथरा बनाने के लिए जो भी प्रयास किये वे सिद्धांतों के रूप में तो प्रतिष्ठित हो गए किन्तु व्यवहार में नहीं आ पा रहे तो उसका कारण राजनीतिक दलों का पूरी तरह सत्ताभिमुखी हो जाना है। येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करने की वासना के चलते आचार संहिता का अचार डालकर रख दिया जाता है। यही कारण है कि चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की तमाम कोशिशें बेअसर होकर रह जाती हैं। ये स्थिति किसी भी दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि धनबल और बाहुबल के जोर पर लड़े जाने वाले चुनाव लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर कर देते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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