Friday 9 February 2018

अयोध्या : मसले की दिशा तय होना शुभ संकेत

सर्वोच्च न्यायालय में राम जन्मभूमि विवाद पर नियमित सुनवाई सवा महीने के लिए फिर टल गई । कतिपय दस्तावेजों  के आदान-प्रदान के नाम पर मुख्य न्यायाधीश सहित तीन सदस्यीय पीठ ने अगली  तारीख 14 मार्च तय करते हुए कहा उसके बाद प्रतिदिन सुनवाई के सम्बंध में सोचा जावेगा लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये हुई कि अदालत ने पूरे मसले को राजनीति , धर्म और आस्था आधारित मानने से इंकार करते हुए केवल भूमि स्वामित्व के मुद्दे को विचारणीय माना और नए पक्षकारों को शामिल करने से भी इंकार कर दिया । सर्वोच्च अदालत के इस रुख से दोनों पक्षों द्वारा अपनी,-अपनी धार्मिक भावनाएं आहत होने की दलीलें तो रद्दी की टोकरी में चली गईं किन्तु एक सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि अयोध्या में बाबरी ढांचे की जगह राम मंदिर बनाने का मसला यदि केवल भूमि स्वामित्व का विवाद था तो इसे निबटाने में न्यायपालिका को बरस तो छोड़िए इतने दशक क्यों लग गए ? और फिर सर्वोच्च न्यायालय ने रामायण-गीता में दिए तथ्यों का अंग्रेजी अनुवाद क्यों मांगा ? इन ग्रंथों में इस विवाद सम्बन्धी कौन से प्रमाण हैं , ये समझ से परे है । 14 मार्च के बाद सर्वोच्च न्यायालय की पीठ इस मसले पर दैनिक सुनवाई करते हुए इसे निश्चित समय सीमा में हल करने की कोशिश करता है तो ये देश पर बड़ा एहसान होगा क्योंकि इसके कारण राजनीति ही नहीं राष्ट्र जीवन के और भी पहलू प्रभावित हुए हैं । 90 के दशक के उपरांत की राष्ट्रीय राजनीति भी इस विवाद से काफी प्रभावित हुई है । केंद्र और राज्यों की कई सरकारें भी इसकी बलि चढ़ गईं । कुछ दलों और नेताओं को जहां राम मंदिर विवाद ने सामान्य से सम्मान्य बनवा दिया वहीं अनेकों ऐसे भी हैं जिनकी अच्छी भली चलती सियासत पर ग्रहण लग गया । मन्दिर बनवाने और रुकवाने के लिए भी न जाने क्या-क्या जतन उभय पक्षों से हुए । जहां तक बात भूमि स्वामित्व की है तो ये विवाद निचली अदालत में तब से चल रहा था जब सर्वोच्च न्यायालय के तमाम न्यायाधीश और इसके नाम पर नेतागिरी करने वाले अधिकतर लोगों का जन्म तक नहीं हुआ था । यदि उस पर राजनीति के बादल न मंडराए होते तब बड़ी बात नहीं अदालतों की आलमारियों में धूल खा रहे जमीन विवाद के लाखों मामलों की तरह ये भी कहीं दबा पड़ा होता । कुछ बरस पहले हालांकि अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटने सम्बन्धी निर्णय देकर  हल निकालने की कोशिश की लेकिन कोई भी पक्ष उसे स्वीकार करने राजी नहीं हुआ तो मामला सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज तक आ पहुंचा । होना तो ये चाहिए था कि वह इसे सर्वोच्च प्राथमिकता के तौर पर निबटाता किन्तु ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि न्यायपालिका भी राष्ट्रीय महत्व के ऐसे संवेदनशील मामलों को लम्बे समय तक अकारण टालती रहती है । गत दिवस पीठ से निकली ये टिप्पणी काबिले गौर है कि केवल भूमि स्वामित्व के दावों और दस्तावेज़ों का ही संज्ञान लिया जावेगा । इसी आधार पर बेगानी शादी में अब्दुल्ला बनकर  प्रकरण को और पेचीदा बनाने की कोशिश करने वाले बाहरी तत्वों को पक्षकार बनने से अदालत ने रोक दिया ।  सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धर्म ,आस्था और उन जैसे भावनात्मक मुद्दों को अप्रासंगिक मान लिए जाने से कम से कम इतना तो हुआ कि प्रकरण की दिशा और सीमाएं तय हो गईं । जहां तक भूमि के मालिकाना हक की बात है तो इसका निबटारा तो दस्तावेजों के आधार पर ही हो सकेगा । हाशिम अंसारी नामक मूल पक्षकार की मृत्यु के उपरांत उप्र के शिया मुस्लिम बोर्ड की तरफ से बयान आया कि विवादित भूमि पर मूलतः उनका स्वामित्व रहा है इसलिए उनको मुख्य पक्षकार माना जावे। इससे भी एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने विवादित भूमि हिन्दुओं को सौंपने की रजामंदी भी दे दी । यद्यपि सुन्नी मुस्लिमों के संगठन उस पहल से पूरी तरह असहमत हैं किंतु यदि शिया समुदाय भूमि पर अपने हक़ को प्रमाणित कर सके तो फिर अदालत के लिए भी आसानी हो जाएगी । इस सम्बंध में आर्ट ऑफ लिविंग के प्रणेता श्री श्री रविशंकर के मध्यस्थता प्रयासों पर भी सबकी नजरें लगी हुई हैं । बीच में खबर उड़ी कि श्री श्री सफलता के करीब पहुंच गए हैं किंतु वैसा कुछ हुआ नहीं । गत दो दिनों से रविशंकर जी की कोशिशें नए सिरे से शुरू होने की सुगबुगाहट खबरों में है लेकिन टीवी चैनलों पर चली बहस में सुन्नी मुस्लिम धर्मगुरुओं के रुख में किसी भी तरह का बदलाव न होना श्री श्री की कोशिशों में अवरोध बना हुआ है । प्रश्न ये भी है कि केवल जमीन विवाद को निबटाने में इतना लंबा समय खराब करना कहाँ तक उचित था ? राम जन्मभूमि का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय की नज़र में भले ही जमीन के मालिकाना हक तक सीमित हो किन्तु ही हिंदुओं के लिए ये आस्था से भी बढ़कर आत्मसम्मान का सवाल बन गया वहीं आम मुस्लिम तो उतना मुखर नहीं लगता किन्तु सुन्नी  समाज के नेता गण इस मुद्दे पर पीछे हटने राजी नहीं हैं क्योंकि वोट बैंक की ठेकेदारी  के लिए खतरा पैदा हो जाएगा । मोदी सरकार द्वारा तीन तलाक़ पर दिए गए झटके से सनाके में आए मुस्लिम समाज को लग रहा है कि उसने यदि अयोध्या विवाद में पाँव पीछे खींच लिए तो भाजपा को मन्दिर बनाने का श्रेय मिल जावेगा जो 2019 के लोकसभा चुनाव में उसके लिए प्राणवायु का काम करेगा । उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी येन केन प्रकारेण अयोध्या   विवाद को निबटाने में जुटे हैं । सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनी सोच स्पष्ट कर देने के बाद कम से कम इतनी उम्मीद तो बंधी ही है कि अब प्रकरण जल्दी निबटाया जा सकेगा क्योंकि न्यायाधीश गण भी इधर उधर के दबावों से मुक्त होकर निर्णय की तरफ बढ़ सकेंगें । ये भी अच्छी बात है कि समाज में रचनात्मक सोच बढ़ती जा रही है जिससे सभी पक्ष चाहे अनचाहे अदालत के फैसले को शिरोधार्य करने पर रजामन्दी दिखा रहे हैं। देश के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा भी चाह रहे हैं उनकी सेवानिवृत्ति के पूर्व वे इस लम्बित मामले को हल कर जाएं। देश के इतिहास और राजनीतिक उथलपुथल में अयोध्या विवाद काफी महत्वपूर्ण है जिसे उलझाए रखने में कुछ लोगों का निहित स्वार्थ हो सकता है किंतु देशहित में यही होगा कि इसका सुखद अंत शीघ्रातिशीघ्र हो क्योंकि पहले ही काफी समय नष्ट हो चुका है और युवा पीढी इस तरह के मसलों से ऊपर उठकर सोचने लगी है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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