Wednesday 5 August 2020

कारसेवक बलिदानी भाव न दिखाते तो आज भी सपना ही रहता राम मन्दिर




ऐसा लगता है मानों कल की ही बात है। 30 अक्टूबर 1990 और 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में जो हुआ वह आजाद भारत के इतिहास के नव लेखन का आधार बन गया जिसकी प्रस्तावना आज पूरी हो गई। राम जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर का भूमि पूजन सदियों के संघर्ष का परिणाम है। सबसे अच्छी बात ये है कि कल तक इस समूचे अभियान का मजाक उड़ाने वाले राम की विरासत में हिस्सेदारी का दावा करने आगे आ गए हैं। राम राजनीति से परे हैं, वे तो राष्ट्रपुरुष हैं, वे इस देश की महान संस्कृति के जीवंत ध्वजवाहक हैं। जो उन्हें न मानने का दिखावा करते हैं वे भी मन ही मन राम के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं। जिसकी अभिव्यक्ति बीते कुछ दिनों से दिखाई देने लगी थी और आज खुलकर सामने आ गयी। राम को कपोल कल्पना मानकर हवा में उड़ाने वाले ये दावा कर रहे हैं कि राम तो सभी के हैं। लेकिन इस बात से इंकार तो कभी किया ही नहीं गया। भगवान के रूप में न सही किन्तु एक महामानव, आदर्श राजा और मर्यादाओं के प्रतीक के तौर पर तो श्री राम पूजनीय और अनुकरणीय हैं ही। गुलामी के दौर में हमारी सांस्कृतिक जड़ों को काटने का खूब प्रयास हुआ। मुगलों ने आतंक और जोर जबरदस्ती से तो अंग्रेजों ने चालाकी से हमारी मौलिकता को नष्ट करने का हरसंभव प्रयास किया। सतही तौर पर वे सफल भी दिखे लेकिन इस देश की सनातन संस्कृति अमरत्व का वरदान प्राप्त है। अनेकानेक संकटों के बावजूद इस देश ने अपनी जड़ों को सूखने नहीं दिया और आज अयोध्या में जो भूमिपूजन संपन्न हुआ वह उसी जिजीवषा का सुखद परिणाम है। ये अत्यंत ही संतोष का विषय है कि राम और उनके भव्य मंदिर के निर्माण के प्रति स्वीकृति और सहमति अब राजनीतिक प्रतिबद्धता के सीने पर पैर रखकर ऊंची आवाज में व्यक्त्त की जा रही है। जिन्हें राम मंदिर में राजनीति की बू आती थी वही आज उसे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक मानकर हर्षोल्लास करते दिख रहे हैं। राम को अपना आदि पुरुष मानने में जिन्हें शर्म महसूस होती थी तथा राजनीतिक पूंजी खो जाने का डर लगता था वे ही आज अपनी वंशावली में राम को अपना पूर्वज बताते घूम रहे हैं। इस प्रकार भारतीय राजनीति में ये एक बड़े चारित्रिक बदलाव का संकेत है जो हर दृष्टि से स्वागतयोग्य है। गर्व से कहो हम हिन्दू हैं के नारे से चिढ़कर गर्व से कहो हम भारतीय हैं पर जोर देने वाले ही आज ये कहते दिख रहे हैं कि हिंदुत्व किसी की बपौती नहीं है और वे भी उतने ही हिन्दू हैं जितने बाकी सब। हालाँकि ये दावे कितने दिन जारी रहेंगे ये कहना मुश्किल है क्योंकि राजनीति से जुड़े लोग बहुत ज्यादा विश्वसनीय नहीं होते किन्तु राम मंदिर का मुद्दा राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय बन गया ये परम संतोष का विषय है। भारत की एकता में श्री राम का महत्व किसी से छिपा नहीं है। करोड़ों देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार करने वाले सनातन धर्म में जिन दो अवतारों ने आम जन के साथ अपना तादात्म्य स्थापित किया उनमें श्री राम और श्री कृष्ण ही थे। यही वजह है कि ये भारत की लोक संस्कृति के अभिन्न हिस्से हैं। अयोध्या में श्री राम की जन्मभूमि पर बने मुगलकालीन ढांचे को हटाये जाने का संघर्ष अनेक शताब्दियों से चला आ रहा था। समय के साथ उसका स्वरूप भले ही बदलता रहा  लेकिन हिन्दू समाज के मन में अपने आराध्य की जन्मस्थली पर बलात खड़ा किया वह ढांचा कील की तरह चुभता था। आखिरकार वह समय आया जब उस चुभन ने हुंकार का रूप ले लिया और फिर वह हुआ जिसकी सुखद परिणिति आज देखने मिली। मंदिर आन्दोलन से जुड़े वे सभी जाने-अनजाने लोग अभिनंदन के हकदार हैं जिन्होंने इस संघर्ष को सफलता के इस मुकाम तक पहुंचाया। इसका श्रेय लूटने की होड़ भी चल रही है। ये दावे भी हो रहे हैं कि हम ऐसा न करते तो ये हो पाना संभव नहीं था। कौन सच्चा है कौन झूठा इस झगड़े में पड़े बिना आज का दिन राष्ट्रीय स्वाभिमान के उत्कर्ष का उत्सव मनाने का है। अयोध्या अपने प्राचीन वैभव को पुन: अर्जित करे ये मनोकामना हर किसी की है क्योंकि वह रामराज्य का प्रतीक है। भव्य राम मंदिर का निर्माण उसी तरह भारत के स्वाभिमान का प्रतीक बनेगा जैसा कभी सोमनाथ का मंदिर बना था। बीते तीन दशक का घटनाचक्र आज एक बार फिर स्मृति पटल पर सजीव हो उठा है। इस ऐतिहासिक अवसर पर उन हजारों कार सेवकों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना परम आवश्यक है क्योंकि वे बलिदानी भावना न दिखाते तो आज भी राममन्दिर सपना ही रहता।

- रवीन्द्र वाजपेयी


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