Saturday 1 August 2020

नई शिक्षा नीति में कई सवालों के जवाब नजर नहीं आ रहे शिक्षा को महत्व और शिक्षक के सम्मान का संस्कार आवश्यक





 
उम्मीद है शिक्षा क्षेत्र में रूचि रखने वालों ने नई शिक्षा नीति का विस्तृत न सही किन्तु सरसरी तौर पर अध्ययन अवश्य कर लिया होगा | इसे बेहद क्रांतिकारी एवं दूरगामी सोच पर आधारित बताया जा रहा है | प्राथमिक से लेकर तो उच्च  शिक्षा  और उसी के साथ शोध आदि पर इस नीति में काफी बारीकी से ध्यान दिया गया है | भारतीय शिक्षा प्रणाली को वैश्विक मापदंडों के अनुरूप ढालने का भगीरथी प्रयास इस नीति के जरिये दिखाई देता है | शिक्षा पर केन्द्रीय बजट के अंशदान में वृद्धि की बात भी आशान्वित करती है | वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन करने का जो इरादा नई नीति में परिलक्षित होता है वह निश्चित रूप से साहसिक है | मातृभाषा  में प्राथमिक शिक्षा और विषय चयन में विज्ञान , कला और वाणिज्य संकाय की विभाजन रेखा समाप्त करना भारतीय परिप्रेक्ष्य में निसंदेह एक अभिनव प्रयोग होगा | लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न जो शिक्षा जगत के भीतर से ही उठाया जा रहा है कि समूची शिक्षा प्रणाली को सिरे से बदल देने के लिए प्रशासनिक और शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े  प्रशिक्षित व्यक्ति कहाँ से आयेंगे ? ये वाकई  यक्ष प्रश्न है क्योंकि आर्थिक संसाधन उपलब्ध करवाने मात्र से अत्याधुनिक शिक्षा संस्थान तो खड़े किये जा सकते हैं लेकिन बिना सक्षम और समर्पित शिक्षकों के उनका समुचित उपयोग नहीं हो पाता | 

उदहारण के लिए मप्र सरकार ने शहडोल , छिंदवाड़ा, सागर और दतिया जैसे छोटे जिलों में मेडीकल कालेज तो खोल दिए | छिंदवाड़ा का कालेज तो बेहद उच्चस्तरीय  बना है लेकिन समस्या फिर वही शिक्षकों की आ रही है |  जबलपुर , भोपाल , रीवा , इंदौर और ग्वालियर आदि बड़े शहरों से जिस शिक्षक को वहाँ भेजा जाता है वह या तो  छुट्टी लेकर बैठ जाता है या फिर पूरे समय अपना स्थानान्तरण करवाने की जुगत भिड़ाया करता है |

ये बात विद्यालय और महाविद्यालयों पर भी लागू होती है | बीते कुछ सालों से संविदा पर पढ़ाने वाले रखने का जो तरीका निकला गया उसने शिक्षा को भी ठेकेदारी जैसा बना दिया | विश्वविद्यालयों में  इस प्रथा का  प्रचलन होने से शिक्षा का स्तर भी जैसा देव वैसी पूजा वाली उक्ति चरितार्थ करने लगा है | ऐसे में सरकार नई नीति के अंतर्गत शिक्षा में आमूल बदलाव करने की जो इच्छाशक्ति दिखा रही है वह पर्याप्त संख्या में योग्य और विधिवत प्रशिक्षित शिक्षकों के बिना कैसे सफलीभूत होगी इसका जवाब किसी के पास फ़िलहाल तो नहीं है |

मैं पूर्व में भी लिख चुका हूँ कि शिक्षा रूपी इमारत जिस नींव पर टिकी होती है वह है प्राथमिक स्तर की शिक्षा | और ये बताने वाली बात नहीं है कि निजी क्षेत्र को छोड़ दें तो देश की  अधिकतर सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं दुर्दशा का  पर्याय हैं | नई नीति में जिस बदलाव का सपना दिखाया जा रहा है उसमें तो माध्यमिक कक्षा में ही व्यावसायिक शिक्षा की शुरुवात करते हुए बच्चों को बाकायदे मैदानी प्रशिक्षण देने की बात भी है |  इसकी दशा भी मध्यान्ह भोजन जैसी न हो जाए ये डर अभी से जताया जा रहा है |

इस विषय में एक बात ध्यान देने वाली है कि जब तक प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर आज जैसे सरकारी शिक्षक रहेंगे तब तक कितनी भी नीतियाँ बना ली जाएं लेकिन शिक्षा की बदहाली दूर नहीं की जा सकेगी | इसलिए बेहतर होगा कि सरकार नीति के क्रियान्वयन के पहले चरण में शिक्षकों का ऐसा समूह तैयार करे जो नये परिवेश में विद्यार्थियों को शिक्षा दे सकें | ये बात स्वयंसिद्ध है कि पैसे से सड़क , पुल , बाँध , फ्लायओवर जैसे काम तो कराये  जा सकते हैं | विद्यालय , महाविद्यालय और विश्वविद्यालय की इमारतें भी  निर्मित हो सकती हैं लेकिन बिना सक्षम शिक्षकों के शिक्षा में  गुणवत्ता नहीं आ सकती |

इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि सीमेंट  ईंट और पत्थर से हुए घटिया निर्माण की तो मरम्मत सम्भव भी है किन्तु यदि विद्यार्थी के निर्माण में किसी भी तरह की कमी रह जाती है तो उस क्षति को पूरा करना संभव नहीं रहता | और यहीं आकर न सिर्फ योग्य वरन  प्रतिबद्ध शिक्षकों की अनिवार्यता महसूस होती है | उस दृष्टि से नई नीति को लागू करने के लिए वैसे शिक्षक कहाँ से आएंगे ये ऐसा सवाल है जिसका उत्तर तत्काल मिलना चाहिये वरना ये नीति ऊँची दूकान का फीका पकवान साबित होने का खतरा है |

अमेरिका जैसे देश में विश्वविद्यालयों के पास शोध कार्य से प्राप्त ज्ञान के पेटेंट से खूब धन आता है | उस दृष्टि से हमारे देश में आईआईटी छोड़कर उच्चशिक्षा के अधिकतर संस्थान सफेद हाथी बने हुए हैं | और इसीलिये उनकी दशा , दुर्दशा का प्रतिरूप होकर रह गयी | देश में एम्स और पीजीआई के अलावा   सैकड़ों सरकारी और  निजी मेडिकल कालेज हैं | इनमें चिकित्सा क्षेत्र को लेकर शोध किये जाने  के दावे तो बहुत होते हैं लेकिन उनमें से कितने विश्वस्तर पर मान्यता प्राप्त करने के बाद आर्थिक लाभ का आधार बनते हैं , ये पता नहीं चलता | इसी तरह निजी क्षेत्र के हजारों अस्पतालों के नाम के साथ रिसर्च सेंटर नामक पुछल्ला जुड़ा होने के बाद भी वे कितनी रिसर्च कर  पाए इसका खुलासा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि रिसर्च के नाम पर ये सरकार से मशीनों और उपकरणों के आयात में भारी रियायत हासिल करते हैं | ऐसे ही  निजी शिक्षा संस्थानों को आयकर से मिलने वाली छूट का लाभ  लेने के लिए कागजी शिक्षा समिति बनाई जाती हैं लेकिन परदे के पीछे से  शिक्षा माफिया काम  करता रहता है |

यद्यपि इसका मतलब ये कदापि नहीं कि नई नीति की सफलता को पूरी तरह संदिग्ध मानकर निराश हुआ जाए | लेकिन केंद्र और राज्य सरकार दोनों को पहले ये तय करना चाहिए कि क्या वे शिक्षा को देश के विकास का सबसे महत्वपूर्ण साधन मानती हैं या नहीं ? यदि हाँ , तो फिर केवल शिक्षा का बजट बढ़ाने से काम नहीं चलने वाला | शिक्षकों की सेवा को एक स्थायित्व देना बहुत जरूरी है | अपने भविष्य के लिए दिन रात चिंतित रहने  वाला शिक्षक विद्यार्थियों के भविष्य को  संवारने में कितना ध्यान दे सकेगा ये किसी से छिपा नहीं है | यहाँ शिक्षक से आशय केवल विद्यालयीन नहीं अपितु महाविद्यालय और विश्वविद्यालय सभी में पढ़ाने वालों से है |

दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि विभिन्न स्तरों पर शिक्षकों  के वेतनमान और सेवा शर्तों में बहुत ज्यादा अंतर भी नहीं होना चाहिए | ऐसा  इसलिए जिससे प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक में एक समान गुणवत्ता रहे | ये बात पूरी तरह सत्य है कि भारत यदि 21 वीं सदी में विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनना चाहता है  तो उसे शिक्षा क्षेत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता , प्रोत्साहन और संरक्षण देना होगा | 

स्मरणीय है स्व. अटलबिहारी  वाजपेयी ने प्रधानमन्त्री रहते हुए देश में विश्वस्तरीय राजमार्ग के साथ ही ग्रामीण सड़क योजना प्रारम्भ की | वह बहुत ही क्रांतिकारी कदम था | उसके कारण देश में सड़क परिवहन के साथ ही ऑटोमोबाइल उद्योग का भी मानो स्वर्णयुग आ गया | ग्रामीण इलाकों में  आधुनिकता एवं विकास का दौर पक्की बारह मासी सड़क बनने के बाद तेजी से आया |

नई शिक्षा नीति भी उसी  तरह विकास के द्वार खोल सकती है , बशर्ते सरकार में बैठे महानुभाव शिक्षा का महत्व और शिक्षक का सम्मान करने का संस्कार अपनी कार्यप्रणाली  में विकसित करें | एक जमाना था जब वेतन भले कम था लेकिन शिक्षक का सम्मान बहुत था | कालान्तर में वेतनमान बढ़ा तो सम्मान का अवमूल्यन होता गया | धीरे - धीरे ये स्थिति बनी कि शिक्षक सम्मान के साथ वेतनमान से भी वंचित कर दिया गया | ये कहने का अर्थ  कदापि न लगाया जाए कि समूचा शिक्षक समुदाय बहुत ही कर्तव्यनिष्ठ हो गया हो | अपवाद स्वरुप कुछ को छोड़ दें तो बाकी महज नौकरपेशा बनकर रह गए हैं | निजी संस्थानों में तो शोषण की पराकाष्ठा ही है | लेकिन सरकार ने भी शिक्षा और शिक्षकों  की जिस तरह उपेक्षा की वह एक दर्दनाक पहलू है |

 ये सब देखते हुए जरूरी  है कि नई शिक्षा नीति के अमल में पूरी तरह ईमानदारी रहे | वैसे इस बात को लेकर ये नीति मौन है कि क्या आगे भी शिक्षक वर्ग को पढ़ाने का  काम छोड़कर समय - समय पर सरकार की बेगारी करनी होगी ?

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