Wednesday 19 August 2020

सोशल मीडिया इतना ताकतवर नहीं कि चुनाव नतीजे तय कर सके



कांग्रेस द्वारा सोशल मीडिया पर भाजपा को प्राथमिकता मिलने का मुद्दा जोरशोर से उठाया जा रहा है। अमेरिका के एक अख़बार में प्रकाशित खबर के अनुसार फेसबुक ने भाजपा को समर्थन दिया। कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाते हुए फेसबुक के मालिक को चिट्ठी भेजकर अपना विरोध जताया। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी इस बारे में खुलकर बयानबाजी करते हुए संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराये जाने की मांग कर रहे हैं। उनकी मानें तो भाजपा ने फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर कब्जा जमा रखा है। आरोप है कि उनमें भाजपा द्वारा प्रसारित आपत्तिजनक सामग्री को हटाया नहीं जाता जबकि ऐसे ही मामलों में अन्य दलों को पक्षपात का शिकार होना पड़ता है। अतीत में भी ये आरोप उछले थे कि भाजपा ने चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर प्रचार हेतु बड़ी रकम खर्च की। वैसे ये बात भारत तक सीमित नहीं है। अनेक देशों में फेसबुक और ट्विटर पर ये आरोप लगते रहे हैं कि वे आंतरिक राजनीति में दखल देते हैं। इनको चुनाव के दौरान विज्ञापन तथा अन्य माध्यम से राजनीतिक दलों द्वारा मोटी रकम दी जाती है। आजकल व्हाट्स एप नामक एक और माध्यम है जो विचारों और सूचनाओं के आदान- प्रदान के लिए पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। इसके जरिये अफवाहों का फैलाव भी बड़ी जल्दी हो जाता है। आधारहीन और प्रामाणिकता रहित जानकारी के कारण व्हाट्स एप यूनीवर्सिटी नामक व्यंग्यात्मक शब्द भी खूब चर्चित है। अमेरिका में प्रकाशित खबर एवं कांग्रेस द्वारा लगाये आरोप कहाँ तक सही हैं ये कहना फिलहाल संभव नहीं है। लेकिन ये बात जरूर कही जा सकती है कि सोशल मीडिया के उपयोग में कांग्रेस भी पीछे नहीं है। भाजपा की तरह उसका अपना भी आईटी सेल है जिसका काम सोशल मीडिया के अलावा बाकी संचार माध्यमों का उपयोग करते हुए पार्टी की विचारधारा और नीति-रीति का प्रचार-प्रसार करना है। इस मामले में प्रारंभिक तौर पर तो ये लगता है कि कांग्रेस हार की खीज निकाल रही है। जहां तक सोशल मीडिया के उक्त प्लेटफार्मों का प्रश्न है तो ये खुले मंच जैसे हैं जिन पर हर कोई अपनी बात और विचार रख सकता है। कांग्रेस और उसके समर्थक भी इस बारे में अधिकार संपन्न हैं लेकिन उसकी शिकायत ये है कि भाजपा समर्थक सामग्री आपत्तिजनक होने पर भी हटाई नहीं जाती जबकि कांग्रेस के पक्ष वाले विचारों पर सेंसर लगाया जाता है। सामान्य तरीके से देखें तो ये कहना गलत नहीं होगा कि दौड़ सब एक ही दिशा और तरीके से रहे हैं लेकिन जो पीछे रह जाता है वह ये आरोप लगाने से बाज नहीं आता कि आगे निकले व्यक्ति ने उसे टंगड़ी मारी थी। बड़ी बात नहीं यदि कांग्रेस सत्ता में होती तो आज भाजपा उस पर ऐसे ही आरोप थोप देती। यही बात है कि संदर्भित मामले में आम जनता की रूचि नहीं है। वैसे कांग्रेस को ये देखना चाहिए कि वह सोशल मीडिया पर यदि प्रभावशाली नहीं हो पा रही तो इसके लिए क्या इन प्लेटफार्मों की पक्षपातपूर्ण नीति ही अकेली जिम्मेदार है ? उसे ये ध्यान रखना चाहिए कि जनसभा में वाहनों में भरकर श्रोता तो लाये जा सकते हैं लेकिन उन्हें संबोधित करने वाला नेता यदि प्रभावशाली भाषण न दे तो उस सभा का कोई लाभ नहीं होता। इस बारे में एक उदाहरण काफी सामयिक है। 2014 में भाजपा ने प्रशांत किशोर नामक एक पेशेवर की सेवाएँ लेकर लोकसभा चुनाव की पूरी व्यूहरचना की जिसमें उसे ऐतिहासिक सफलता मिली। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में प्रशांत की रणनीति को काफी हद तक जिम्मेदार माना गया। बाद में उनका भाजपा से मतभेद हो गया और बिहार विधानसभा के चुनाव में वे उसके विरुद्ध नीतीश कुमार और लालू के महागठबंधन के पक्ष में हो गये। संयोगवश उसे भी जोरदार सफलता मिली। और प्रशांत किशोर चुनाव जिताने वाली ताकत माने जाने लगे। लेकिन उसके बाद हुए उप्र विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस के साथ जुड़े किन्तु वह पूरी तरह से डूब गई। इससे स्पष्ट हो गया कि चुनाव जीतने के लिए पेशेवर लोगों की सेवाएं और संचार के आभासी माध्यम ही सफलता की गारंटी नहीं हैं। राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी को इस बात का पता करना चाहिये कि आखिर क्या कारण है कि वे और कांग्रेस दोनों जनता का भरोसा जीतने में नाकामयाब रहे। यदि सोशल मीडिया पर मिले अतिरिक्त समर्थन से चुनाव जीते जा सकते तो भाजपा मप्र, राजस्थान और छतीसगढ़ की सत्ता क्यों गंवाती? गुजरात में भी वह हारते-हारते ही जीत पाई। राहुल गांधी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद अध्ययन अवकाश लिया। हालाँकि उसे लेकर तरह-तरह की चर्चाएँ हुईं लेकिन ऐसा लगता है श्री गांधी वास्तविकता का एहसास अभी तक नहीं कर सके। बतौर विपक्षी नेता वे सत्तारूढ़ पार्टी और उसके नेता पर सियासी हमले करते रहें तो उसमें अस्वाभाविक कुछ भी  नहीं है । लेकिन उनके प्रयासों को अपेक्षित सफलता इसलिये नहीं मिलती क्योंकि वे जनता की नब्ज नहीं जान पा रहे। सोशल मीडिया को लेकर उनके हालिया आरोप लोगों के गले नहीं उतर रहे तो उसकी वजह साफ़ है। आम जनता में ये माध्यम इतना लोकप्रिय है कि उसे इसमें गड़बड़ी की बात पर यकीन नहीं होता। देश में अनेक टीवी चैनल ऐसे हैं जो भाजपा और प्रधानमंत्री की बखिया उधेड़ने का कोई अवसर नहीं गंवाते। इसी तरह टीवी चैनलों से निकलकर अपने खुद के वीडियो पोर्टल चलाने वाले देश के अनेक वरिष्ठ पत्रकार भी नरेंद्र मोदी के विरुद्ध हाथ धोकर पड़े रहते हैं। उनके लाखों दर्शक हैं लेकिन वे भी चुनावों को प्रभावित नहीं कर पा रहे। इससे साबित होता है कि संचार और समाचार माध्यम किसी के अंधभक्त या विरोधी होने पर अपना प्रभाव गँवा बैठते हैं। कांग्रेस के जो प्रादेशिक नेता जनता के मन पर अपना असर छोड़ने में कामयाब रहे  वे बिना सोशल मीडिया या विज्ञापनों के भी सफल हो जाते हैं। राहुल गांधी को बजाय व्यर्थ के विवादों में समय और शक्ति खर्च करने के जनता से सीधे सम्वाद की शैली अपनानी चाहिए। 2014 में हारने के बाद स्मृति ईरानी ने अमेठी से लगातार सम्पर्क बनाए रखा जबकि राहुल जीतकर भी वहां सक्रियता नहीं रख सके। पिछले लोकसभा चुनाव में हारने के बाद बीते सवा साल में वे कितनी बार अमेठी के लोगों से मिलने गए ये उन्हें सोचना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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