Monday 18 December 2017

कांग्रेस को चिंता और भाजपा को चिंतन की जरूरत

यद्यपि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक गुजरात और हिमाचल में मतगणना पूरी नहीं हुई थी इसलिए रुझान ऊपर नीचे हो रहे हैं लेकिन इस बात में अब सन्देह नहीं रहा कि दोनों राज्यों में भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त देते हुए कांग्रेस मुक्त भारत की ओर एक कदम और बढ़ा दिया। गुजरात में तमाम शंकाओं को दरकिनार करते हुए भाजपा ने 22 साल से चली आ रही सत्ता को किसी तरह बचा लिया वहीं हिमाचल में उसने डंके की चोट पर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया । नरेंद्र मोदी को उन्हीं कर घर में हराकर पार्टी अध्यक्ष के तौर पर अपनी पारी का जोरदार आगाज़ करने की राहुल गांधी की अभिलाषा पर मोदी मैजिक ने पानी फेर दिया । गुजरात में भाजपा की जीत ने यद्यपि उसे सरकार बनाने का  एक  मौका और दे दिया लेकिन श्री मोदी के प्रधानमंत्री और अमित शाह के पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से उत्पन्न शून्य को भरने में भाजपा की नाकामी सामने आ गई और उसे बहुमत प्राप्त करने के लिए कोहनी के बल चलना पड़ गया । उसके नेताओं का ये मानना कि 22 साल के बाद भी सत्ता विरोधी रुझान को पीछे छोड़कर बहुमत ले आना बड़ी कामयाबी है , दिल को बहलाने के लिए तो अच्छा है लेकिन दूसरी तरफ ये कहना भी गलत नहीं होगा कि  भाजपा अपने सबसे मजबूत गढ़ में सेंध लगने को रोक नहीं सकी। अगर प्रधानमंत्री खुद को दांव पर न लगाते तो बड़ी बात नहीं आज कांग्रेस के खेमे में विजयोल्लास दिख रहा होता। लेकिन कांग्रेस यदि इस बात पर खुश हो रही है कि उसने भाजपा के 150 सीटों के दावे को फुस्स कर दिया और उसे 2012 की संख्या से भी नीचे उतारने में सफल हो गई तो वह मूर्खों के स्वर्ग में विचरण कर रही है। राहुल के आक्रामक प्रचार  के बाद भी कांग्रेस को यदि पहले से 10 - 15 सीटें अधिक मिल रही हैं तो इसका श्रेय हार्दिक पटैल के पाटीदार आंदोलन को दिया जाएगा जिसने भाजपा के परम्परागत वोट बैंक में मामूली ही सही लेकिन घुसपैठ तो की जिसका सीधा असर सौराष्ट्र में भाजपा के पिछड़ने से सामने आ गया । गुजरात में राज्य सरकार के विरुद्ध माहौल बीते दो साल से बन रहा था । नोटबन्दी और जीएसटी ने व्यवसायी वर्ग को बुरी तरह नाराज कर दिया वहीं ओबीसी और दलित वर्ग में भी भाजपा विरोधी एक दो युवा नेताओं के उभरने  से सत्ता विरोधी लहर पैदा होने का अंदेशा बन गया। राज्यसभा चुनाव के समय दो दर्जन कांग्रेस  विधायकों का टूटने और शंकर सिंह वाघेला की बगावत से कांग्रेस यद्यपि नुकसान में आ गई लेकिन हार्दिक पटैल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी नामक तीन जातिवादी युवा नेताओं को खींचकर उसने उस नुकसान की भरपाई कर ली वरना आज उसके पास मुंह छिपाने की जगह भी शायद नहीं बचती। इसलिए जो कांग्रेस प्रवक्ता टीवी चैनलों पर राहुल गांधी की शान में कसीदे पढ़ रहे हैं वे सब वास्तविकता से बचने की कोशिश में लगे रहे। गुजरात में कांग्रेस के आंकड़ों में थोड़ी सी वृद्धि और भाजपा को उतना ही घाटा एक तरह से यथास्थिति ही कही जाएगी जिसमें भाजपा के पास सीटें घटने पर भी बहुमत और कांग्रेस के पास पहले से अधिक विरोध की शक्ति भले आ गई लेकिन राहुल गांधी की चुनाव जिताऊ क्षमता पर फिर सवाल खड़े हो गए। बीते कुछ समय से राजनीतिक चर्चाओं का मुख्य विषय गुजरात ही रहा जबकि हिमाचल में भी कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला था । गुजरात सदृश तनातनी भी वहां नहीं थी । प्रधानमंत्री ने अपनी प्रतिष्ठा भी दांव पर नहीं लगाई । बावजूद इसके यदि वहां भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता छीनते हुए भारी बहुमत हासिल कर लिया तो क्या ये राहुल गांधी के नेतृत्व की अपशकुनी शुरूवात नहीं है कि जबरदस्त जनाक्रोश के बाद भी भाजपा गुजरात में 22 साल बाद भी अपनी पकड़ बनाए रखने में सफ़ल हो गई वहीं हिमाचल में कांग्रेस 5 साल बाद ही जनता द्वारा ठुकरा दी गई । इन दोनों राज्यों के परिणामों के बाद भाजपा और कांग्रेस दोनों को गम्भीरता से अपनी कमजोरियों पर विचार करना चाहिए । नरेंद्र मोदी के घर में ही यदि भाजपा को अपनी सरकार बचाने के लिए एढ़ी  चोटी एक करना पड़ी तो उसकी विजय रोमांचित नहीं करती वहीं कांग्रेस को यदि तीन क्षेत्रीय युवाओं को बैसाखी बनाना पड़ा तो इससे स्पष्ट होता है कि उसमें अभी भी अपेक्षित आत्मविश्वास नहीं है । गुजरात में मात खाने के बाद भी अगर हिमाचल में काँग्रेस अपनी सरकार बचा लेती तब शायद राहुल की बतौर अध्यक्ष नई पारी की शुरुवात धमाकेदार मानी जाती और मुकाबला  बराबरी पर छूटता किन्तु पराजय का सिलसिला वे नहीं तोड़ सके ।
कुल मिलाकर त्वरित प्रतिक्रिया तो यही है कि कांग्रेस के लिए गुजरात और हिमाचल के चुनाव परिणाम  जहाँ  चिंता का कारण हैं वहीं भाजपा को भी विजयोन्माद से निकलकर पूरी तरह से मोदी के भरोसे हो जाने की स्थिति पर चिन्तन करना चाहिए । अभी 2019 के बारे में आकलन करना जल्दबाजी होगी किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि राहुल के नेतृत्व में विपक्षी एकता की संभावनाएं एक बार फिर झमेले में फंस गईं हैं । फिलहाल तो भाजपा के पास पटाखे फोड़ने का अवसर है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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